आयुर्वेद की चुनौतियाँ और संभावनायें
आज कोरोना-कोविड महामारी काल विश्व की सारी चिकित्सा पद्धतियों के सामने चुनौती बना हुआ है।विकास की शिखर पर खड़े आधुनिक चिकित्सा विज्ञान औषधिय रूप से निर्विकल्पता के कारण बार-बार अपना प्रयोग बदल रहा है।ऐसे में आयुर्वेद आशान्वित करता है,जिसकी हजारो साल पुरानी औषधियों के प्रतिजन विश्वास बढ़ा है,परन्तु आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के वाणिज्यिक स्वार्थ के लिए यह सहज सुपाच्य नहीं है।जबकि चीन.ताईवान देशो में प्राचीन और आधुनिक चिकित्सा विधिया एक साथ होकर महामारी पर नियंत्रण कर रहीं है।इस स्थिति मे दुनियाँ की चिकित्साविधियो की उत्पत्ति व दर्शन पर एक विमर्श आवश्यक है।
पृथ्वी के भिन्न-भिन्न भूभाग में सूर्य की किरणों, जल की उपलब्धता, वायु की गति, शीत-ताप के अनुरूप, जीवजगत का विकास हुआ है। मनुष्य भी इसी जीव जगत की हिस्सा है।जलवायु के प्रभाव के कारण ही वनस्पतियों के विभिन्न आकार-प्रकार,मनुष्य के खान-पान,रहन-सहन जीवन शैली भी विकसित हुई है।प्रकृति के अनुसार जीने की यह प्रयास ही जीवन शैली व संस्कृति कहलाती है।इसमें असंतुलन व प्रदूषण ही रोग का कारण है।इस लिए चिकित्सा विज्ञान का विकास भी सांस्कृतिक परिवेश के अनुसार ही हुआ है। आयुर्वेद के आचार्यो ने इस दृष्टिकोण से पूरे पृथ्वी को निम्न तीन भागो में बाँटा है।
जाँगल्यदेश– शुष्क व रेगिस्तान क्षेत्र, विकार-पित्तज,रक्तज,वातज, आहारशैली-मधुर,स्नेह,आमिष
*आनूप देश- जलीय व पर्वतीय,क्षेत्र-विकार-कफज,वातज,आहारशैली-गुरु,तिक्त,कषाय,निरामिष
*सामान्य देश-सामान्य जलवायु क्षेत्र विकार,- सम दोष,आहारशैली- सर्व रसयुक्त
परन्तु आज वैश्विकरण के युग में मनुष्य का अपने मूल प्रदेश से विस्थापित होकर अन्य प्रदेशों में स्थापित होना स्वभाविक सा हो गया है।इस लिए वर्तमान की आधुनिक जीवनशैली प्रकृति के विरुद्ध होना स्वभाविक हो गया है इस लिए रोग की प्रवृत्ति भी बदल रही है । अतःचिकित्सा विज्ञान में बदलाव आवश्यक है। इस संदर्भ में आयुष चिकित्सा शैली में बदलाव आवश्यक है।
कोई भी चिकित्सा विज्ञान एक लम्बे काल खण्ड में मनुष्य के संघर्ष और शोध का परिणाम है आगे चल कर इन अनुभवो के संग्रहित कर एक शास्त्र का रुप दिया गया और मिथकीय रुप भगवान का दिया हुआ माना गया। पर वेदो में अश्वनीकुमार का होना सिद्ध करता है कि देवसंस्कृति में रोग थे।
इसके विकास क्रम में वैदिक काल की आयुर्विद्या, आयुर्वेद और अब आयुर्विज्ञान के रुप में है।जिसे समय-समय पर महर्षियों नें अपने-अपने समय की आवश्यकता ऐर संसाधनों के अनुसार परिमार्जित,संशोधित व विकसित किया है।जो क्रम अब भी जारी रहना चाहिए जो उपयोगिता बनाये रखने के लिए आवश्यक है।इस क्रम में देशकाल का विशेष महत्व है। जैसे-
आचार्य चरक– आचार्य चरक उत्तर भारत से थे इस लिए प्रचुर मात्रा में बनौधियों पर आधारित चिकित्सा विज्ञान की खोज की।
आचार्य सुश्रुत– आचार्य सुश्रुत ये राजपरिवार से थे इस लिए युद्ध काल में शल्यकर्म की आवश्यकताओं के देखते हुए शल्यविधा की खोज की।
आचार्य नागार्जुन-इस काल आकाल के कारण बनौषधियाँ सूख गयी थी.इस लिए इन्होने धातुओं का औषधियों के रुप में प्रयोग किया ।
महर्षि अगस्त-सिद्ध चिकित्सा विज्ञान दक्षिण के भारत के समुद्र के तटीय क्षेत्र मे विकसित हुई जहाँ लवणों धातुओं,पत्थरो,का सहज उपलब्धता थी इसलिए सिद्धचिकित्सा में इन पर आधारित है।
हिप्पोक्रेटिज-ये460 बीसी में जन्मे यूनानी दार्शनिक थे,जिन्होने परम्परिक चिकित्सा ज्ञान को संग्रहित ,क्रमबद्ध करने की शुरुआत की। इन्होने समसामयिक शोध को अधिक महत्व दिया, जिसका परिणाम आज आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का स्वरुप सबके सामने है।
सेमुअलहनीमैन-हिप्पोक्रेट की ही परम्परा में आते है जहाँ वनौधियों के अभाव के कारण सूक्ष्म उनके सूक्ष्म तत्वों का प्रयोग किया।
ऐसा नहीं है कि आयुर्वेद में समकालीन शोध की परम्परा नहीं रही है,यह क्रम अश्विनी कुमारो से लेकर भावमिश्र तक जारी रही, परन्तु उसके पश्चात राजनैतिक उथलपुथल के कारण यह परम्परा अवरुद्ध गयी।
मानव जीवन प्रकृति के साथ जीने के लिए संघर्ष करता रहा है।इस संघर्ष के परिणाम स्वरुप ही ज्ञान-विज्ञान का विकास हुआ है। इस प्रकार कोई भी चिकित्सा पद्धति एक लम्बे कालखण्ड के मानव जाति के अनुभव का परिणाम है ।इसलिए विज्ञान आस्था का विषय नही हो सकता है, यह प्रयोग और परिणाम पर आधारित होता है ।इस लिए हमें आयुर्वेद को आस्था के बजाय प्रयोग और परिणाम आधारित बनाना होगा। हमें अपने समय की आवश्यकताओं के अनुसार कार्य करना होगा।
देश की कुल आबादी का ग्रामीण – शहरी वितरण: 68.84% और 31.16%है,अर्थात ग्रामीण आबादी 9018040 शहरी आबादी 4081.986 है जिसके चिकित्सा के लिए 8 लाख डाक्टर एलोपैथी ग्रेजुएट है, अर्थात रोगी और चिकित्सक का अनुपात 1: 1668 है।परन्तु एलोपैथी के 50% स्नातक स्पेशिलिस्ट या सुपर स्पेशिलिटी के लिए चले जाते है।
अधिकतम् एलोपैथिक स्नातक शहरी क्षेत्रो में सेवा देना पसंद करते है ।
परन्तु एलोपैथिक स्नातको के साथ यदि 7.5 लाख आयुष चिकित्सको को जोड लिया जाय तो है।शहरी रोगी-चिकित्सक अनुपात 1:7 का हो जाता है,तथा ग्राणीण क्षेत्र में यह अनुपात 1:129 का होता है।
शासकीय सामान्य अस्पताल,क्लीनिक,विषेशज्ञता अस्पताल व क्लीनिक,निजी अस्पताल व क्लीनिक.व्यासायिक उच्चस्तरीय अस्पताल, येसभी आधुनिक चिकित्सा केन्द्र शहरो में ही स्थित है,ग्रामीण क्षेत्र के स्वास्थ्य का दायित्व आज भी पारंपरिक व आयुष चिकित्सको ही पर निर्भर है।
सामान्यतःआयुष चिकित्सा पद्धति को वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में देखाजाता है,क्योकि जनता व शासन के दृष्टि में एलोपैथिक पद्धति ही मुख्यधारा की चिकित्सा पद्धति है जबकि अनेक रोग ऐसे है जिनकी समुचित चिकित्साएलोपैथिक पद्धति में संभव नही होती है। ऐसे रोगों की चिकित्सा आयुषपद्धतियों में ही संभव होती है इस लिए इस क्षेत्र में हमें विशेष को कौशलप्राप्त करने की आवश्यकता है।वर्तमान में जीवन शैली व प्रदूषण के होनेवाले रोग पूरी दुनियाँ में महामारी की तरह फैल रहे है,जिसमें आयुर्वेद,योग वअन्य आयुष चिकित्सा पद्धतियां वरदान सिद्ध हो रही है,इस प्रकार स्वास्थ्यके बाजार में आयुर्वेद का बहुत महत्वपूर्ण स्थान विकसित हो रहा है।
आयुर्वेद में त्वरित प्रभाव देने वाली औषधियाँ भी है जिनका प्रयोग व अभ्यास आवश्यक है। सामान्य रोगों जैसे ज्वर,वमन,अतिसार आदि जैसे सामान्य रोगो की चिकित्सा भी आयुर्वेद द्वारा संभव है। इस लिए इसके प्रयोग व अभ्यास पर ध्यान देना आवश्यक है ।एलोपैथिक दवाओंएण्टीबायोटिक का प्रभाव ज्वर में 7 से 10 दिन में होता है इसके विपरीत आयुर्वेदिक दवायें रसौधियाँ 3 से 5 दिन में लाभ देती है।
जीवन शैली के रोग जैसै-मधुमेह,उदर,जराजन्यरोग,रक्तचाप,तनाव,कटिशूल,यकृत,मूत्ररोग यौनरोग,स्नायुशूल,अनिद्रा आदि,स्त्री रोग,में आयुर्वेद,योग एवं अन्य आयुष चिकित्सा पद्धतियाँ विशेष रुप से लाभदायक पायी जा रही है।
इसके लिए रसतंत्रसार,आयुर्वेद सार संग्रह जैसे ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए।
एलौपैथी का प्रभाव घट रहा है।भारत में हर साल लाखों एंटीबायोटिक दवा बिना मंजूरी के बिकती हैं, जिससे दुनिया भर में सुपरबग के खिलाफ लड़ी जाने वाली जंग पर खतरा मंडरा रहा है। ब्रिटेन के हालिया शोध में यह चेतावनी देते हुए बताया गया कि यहां बिकने वाली 64 फीसदी एंटीबायोटिक अवैध हैं।
ब्रिटिश जर्नल ऑफ क्लीनिकल फॉर्मेसी में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां बिना मंजूरी के दर्जनों ऐसी दवाएं बेच रही हैं। जबकि पूरी दुनिया पर रोगाणुरोधी प्रतिरोध का खतरा है। शोधकर्ताओं के मुताबिक भारत उन देशों में शामिल है, जहां एंटीबायोटिक दवा की खपत और रोगाणुरोधी प्रतिरोध की दर सबसे ज्यादा है। इससे भारत के दवा नियामक तंत्र की असफलता सामने आती है।जिनकी मंजूरी भारत सरकार ने भी नहीं दी है।
इस शोध के लिए भारत में 2007 से 2012 के बीच बिकने वाली एंटीबायोटिक दवा और उनकी मंजूरी के स्तर का अध्ययन किया गया। पाया गया कि भारत में 118 तरह की एफडीसी (फिक्स्ड डोज कांबिनेशन) दवा बिकती है, जिसमें से 64 फीसदी को भारतीय नियामक ने ही मंजूरी नहीं दी है। अमेरिका में इस तरह की चार दवा ही बिकती हैं। हालांकि भारत में बिकने वाली 93 प्रतिशत एसडीएफ (सिंगल डोज फार्मुलेशन) वैध हैं। भारत में कुल 86 एसडीएफ दवा बिकती है।
निर्माण और शोध का व्यापक बाजार,स्थानीय भोज्य पदार्थो का जैसे केला बाँस आदि एकल औषधिया व योग का अध्ययन ।इसके लिए विज्ञान की अन्य शाखाओं जैसे वायोकेमिस्ट्री वनस्पति विज्ञान,रसायन विज्ञान,आई.टी.आदि के साथ मिल कर काम किये जाने की आवश्यकता है।इसके सी.डी.आर.आई.एन बी.आर. आई.के अतिरिक्त विश्वविद्यालय का सहयोग लिया जा रहा है। इस संबंध में कुछ उदाहरण देना चाहूँगा जैसे
ड़ा वाई वी कोहली जो अरुणाँचल प्रदेश में केमिस्ट्री के प्रोफेसर रहे है इन्होने माहोनिया ,केले क्षार पर पर कार्य किया है।
जसमीत सिंह ने अपामार्ग क्षार का प्रयोग अर्श व व्रण में किया है।
डॉ वरेश नागरथ जो एक एमडी एलोपैथी है पर आयुर्वेद के प्रयोगो से एच. आई.वी,और डेंगू के विशेषज्ञ बन चुके है।
औषधीय वनस्पतियों के व्यावसायिक उत्पाद में अत्यधिक संभावनायें है।इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों के साथ मिल काम करने की आवश्यकता है,यह कार्य कुछ आयुर्वेद संस्थानों में अन्तर्विषयिक अध्ययन के रुप में आरंभ किया जा चुका है।
-राज्य सरकार केन्द्र सरकार,सेना,रेलवे में अब आयुष चिकित्सकों नियुक्तियाँ होनी आरम्भ हो चुकी है। पर्यटन के साथ ही विदेशों में भी जीवन शैली के लोगों के लिए आरोग्य केन्द्र विकसित किये जा रहे है।
आयुर्वेद या आयुष के संबंध में समाज में फैले भ्रम जैसे धीमे प्रभाव, ,दुष्प्रभाव रहित, मँहगी,शल्य रहित,केवल पुराने रोगों में प्रभावी,तीव्र रोगों में प्रभावी न होना आदि को दूर करना होगा।
आयुर्वेद के विकास के लिए जनविश्वास आवश्यक है।इसके लिए आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की तरह रोगाधिकार के अनुसार ईकाइयाँ होना चाहिए।इससे शोध को बढ़ावा मिलने के साथ चिकित्सकों में आत्मविश्वास भी बढ़ेगा।सामान्यतः यह देखा जाता हैकि आयुर्वेद चिकित्सकों में गठिया-वात, यौनरोग आदि की छवि निर्मित हो जाती है।
एलोपैथी के जनक हिप्पोक्रेटिज ने केवल स्वास्थ्य दर्शन व सामान्य चिकित्सा को संगठित रूप दिया था, पर समय की आवश्यकताओ के अनुसार विज्ञान के सहयोग से विभिन्न रोगो पर केन्द्रित विशेष की ईकाईयाँ स्थापित व विकसित होती गयी और जनता से जुड़ती गयी, जनविश्वास बढता गया जिसके दबाव मे सत्ता को पूर्ण समर्थन व संरक्षण देना पड़ा।इसके लिए हमे विज्ञान की आधुनिक शाखाओं के साथ सामन्जस्य स्थापित करना होगा।इसके लिए सरकारों को घोषणाओं के बजाय आयुर्वेद के शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों के गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा।देश के स्वास्थ्य नीति में आयुर्वेद की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।