प्रेस क्लब में एक शाम सुरेश सलिल के नाम
चंद्र प्रकाश झा *
प्रेस क्लब ऑफ इंडिया (नई दिल्ली) में असगर वजाहत ,रामशरण जोशी, इब्बार रब्बी , विष्णु नागर, राजेश जोशी आदि कई आमंत्रित नागरिकों के बीच 19 जून 2022 की वो शाम बुजुर्ग कवि, लेखक, पत्रकार और संपादक सुरेश सलिल के नाम थी। उस दिन उनका 80 वाँ जन्मदिन था।
हिन्दू कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) के राजनीतिक विभाग के रिटायर प्रोफेसर ईश मिश्र ने पिछले वर्ष उनके जन्मदिन के पहले अवामी हिन्दी न्यूज पोर्टल, जनचौक के लिए लिखे लेख में सुझाव दिया था कि सलिल जी के नागरिक अभिनंदन के वास्ते उनकी जयंती पर एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया जाना चाहिए।
उस लेख के मुताबिक हिंदी, साहित्य और पत्रकारिता में अमूल्य योगदान करने वाले सुरेश सलिल का जन्म 19 जून 1942 को हुआ था। 1960 के दशक से कवि कर्म और लेखन में तल्लीन सुरेश सलिल की “हवाएं क्या-क्या हैं” समेत कई कविता संकलन प्रकाशित है। भारतेंदु हरिश्चंद्र से अब तक के करीब 150 वर्ष की हिंदी कविताओं और कवियों के सर्वेक्षण को समेटे ‘कविता सदी’ शीर्षक से 2018 में राजपाल एंड संस से छपा उनका ग्रंथ हिंदी साहित्य का अनमोल खजाना है। यह ग्रंथ हिंदी कविताओं के माध्यम से भारतीय समाज के विभिन्न आंदोलनों, प्रवृत्तियों और शैलियों के सजीव चित्रण का दस्तावेज है। इसमें नवजागरण काल की कविताएं प्रतिध्वनित होती हैं तो छायावाद का स्वर भी सुनाई देता है; हिंदी कविता के प्रगतिशील आंदोलन की झलक मिलती है और प्रयोगवाद तथा नई कविता की विशिष्टता की भी। इसमें दलित और स्त्री अस्मिता की कविताएं हैं तथा प्रमुख समकालीन कवियों की भी चर्चा है। सलिल जी की 6 कविता संग्रह के अलावा कई काव्य अनुवाद हैं, जिसमें ‘बीसवीं सदी की विश्व कविता का वृहत् संचयन: रोशनी की खिड़कियां’ प्रमुख है। हाल में ही उनकी संपादित ‘कारवाने गजल’ (800 वर्षों की गजलों का सफरनामा) सराहनीय है। 1920 के दशक में औपनिवेशिक शासन द्वारा प्रतिबंधित चांद पत्रिका का फांसी अंक भी सलिल जी ने ही संग्रहित संपादित, पुनर्प्रकाशित किया था। स्वतंत्रता सांग्राम के महानतम हिंदी पत्रकार ‘गणेश शंकर विद्यार्धी संचयन’; ‘पाब्लो नेरूदा: प्रेम कविताएं’; इकबाल की जिंदगी और शायरी’ भी उनकी उल्लेखनीय रचनाएं हैं।
कोरोना कोविड महामारी से उत्पन्न हालत के कारण उस बरस उनका अभिनंदन नहीं किया जा सका। लेकिन प्रो मिश्र ने पीपुल्स मिशन के ट्रस्टी के रूप में क्रांतिकारी कामरेड शिव वर्मा मीडिया पुरस्कार के वितरण के अवसर पर भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया यानि सीपीएम के साप्ताहिक मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी के संपादक, प्रकाश करात और अन्य की गरिमामय उपस्थिति में सुरेश सलिल को पत्रकारिता के लिए शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी लाइफ टाइम पुरस्कार प्रदान करने की औपचारिक घोषणा कर दी। इस घोषणा के समय सुरेश सलिल स्वयं उपस्थित नहीं हो सके थे। लेकिन इस रविवार की शाम के कार्यक्रम में सुरेश सलिल अपनी बेटी और दो पड़ोसी साहित्यकारों, महेश दर्पण और ओम पीयूष के संग उपस्थित हुए।
प्रो मिश्र ने उन्हें ताजा फूलों का बुके देकर उनका स्वागत किया। आयोजकों के आग्रह पर रामशरण जोशी ने उन्हें भागलपुरी सिल्क शाल ओढ़ाया। उनके साथ दिल्ली की पाक्षिक हिन्दी पत्रिका युवकधारा के संपादकीय विभाग में 1980 के दशक के मध्य में काम कर चुके चंद्र प्रकाश झा ने उन्हें विशेष रूप से तैयार कॉफी मग भेंट की जिस पर एक तरफ शहीद-ए-आजम भगत सिंह और दूसरी तरफ शिव वर्मा और गणेश शंकर विद्यार्थी के स्केच अंकित हैं। सुरेश सलिल को उस मग में नित दिन प्रातः प्रहर पेय पीने के लिए कश्मीरी कहवा का जार, भागलपुरी कुर्ता पायजामा भेंट किया गया। उनकी बिटिया को भी एक कश्मीरी परिधान भेंट किया गया।
कार्यक्रम की शुरुआत सुरेश सलिल के काव्य पाठ से हुई। उन्होंने अपनी दो कविताएं और एक गजल पढ़ीं। सबका आग्रह था कि उनके बाद विष्णु नागर और इबबर रब्बी और अन्य उपस्थित नागरिक भी अपनी कविताओं का पाठ करें। रब्बी जी काव्य पाठ करने के बजाय सुरेश सलिल के बारे में अपने विशद संस्मरण सुनाए। इसमें यह भी रेखांकित किया गया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानि आरएसएस के साप्ताहिक हिन्दी मुखपत्र पाँचजन्य के मास्ट हेड पर पहले भगत सिंह आदि की भी फोटो छपती थी।सुरेश सलिल द्वारा एक लेख में इंगित किये जाने पर कि भगत सिंह घोषित कम्युनिस्ट थे पाँचजन्य के मास्ट हेड पर उनकी तस्वीर छपनी बंद हो गई। रब्बी जी के मुताबिक सुरेश सलिल का जन्म ही 1942 में अंग्रेज शासकों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हुआ था और वह आजीवन करानिकारों आंदोलनों से जुड़े रहे है।
कार्यक्रम के अंत मेँ सीपी ने असरार-उल-हक़ मजाज़ की 1937 में मुंबई में अरब सागर तटवर्ती की जगमगाती मरीन ड्राइव की सड़कों पर लिखी मशहूर नज़्म, आवारा का अलहदा अंदाज में गायन शुरू किया।
शहर की रात और मैं
नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती
सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है कब तलक
दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
झिलमिलाते कुमकुमों की
राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में
दिन की मोहिनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर
चलती हुई शमशीर सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
ये रुपहली छाँव
ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर
जैसे आशिक़ का ख़याल
आह लेकिन कौन समझे
कौन जाने जी का हाल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
फिर वो टूटा एक सितारा
फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में
आई ये मोती की लड़ी
हूक सी सीने में उठी
चोट सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
रात हँस–हँस के ये कहती है
कि मैखाने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर
ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
हर तरफ़ बिखरी हुई
रंगीनियाँ रानाइयाँ
हर क़दम पर इशरतें
लेती हुई अंगड़ाइयां
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुये रुस्वाइयाँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
रास्ते में रुक के दम लूँ
ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ
ये मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये
ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
मुंतज़िर है एक
तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने
दरवाज़े है वहां मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा
अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
जी में आता है
कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उनको पा सकता हूँ मैं ये
आसरा भी छोड़ दूँ
हाँ मुनासिब है ये
ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
एक महल की आड़ से
निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा
जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी
जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
दिल में एक शोला भड़क उठा है
आख़िर क्या करूँ
मेरा पैमाना छलक उठा है
आख़िर क्या करूँ
ज़ख्म सीने का महक उठा है
आख़िर क्या करूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर
हैं नज़र के सामने
सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर
हैं नज़र के सामने
सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़बर
हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
ले के एक चंगेज़ के
हाथों से खंज़र तोड़ दूँ
ताज पर उसके दमकता
है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या न तोड़े
मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
बढ़ के इस इंदर-सभा का
साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ
इसका गुलशन फूँक दूँ
उसका शबिस्ताँ फूँक दूँ
तख्त-ए-सुल्ताँ क्या
मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
जी में आता है
ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ
इस किनारे नोंच लूँ
और उस किनारे नोंच लूँ
एक दो का ज़िक्र क्या
सारे के सारे नोंच लूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ
ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ
युवकधारा, हिन्दी दैनिक जनसत्ता और बीबीसी हिन्दी के पत्रकार रहे राजेश जोशी के बीच में टोकने पर कि और कितना गाओगे रामशरण जोशी ने उन्हें और न टोकने का इशारा किया।
सीपी ने तनिक मुस्कुरा कर कहा 40 मिनट तक गा सकते है। लेकिन बीच के हिस्से को छोड़ इसकी आखरी पंक्तियों सुना कर गाना बंद कर देंगे। उनके मुताबिक साहित्य के रुमानी कीट्सवादी अक्सर कह्ते है कि मजाज़ को इंकलाब के भेडिये उठा ले गये.लेकिन हमारे वक़्त के सबसे बडे शायर फैज़ अहमद ‘फैज़ ‘ खूब जोर देकर मज़ाज़ को ‘ इंकलाब का मुगन्नी ‘ कहते थे.ये भी गौरतलब है कि फैज़ और मज़ाज़ समेत हमारे लगभग सभी बडे शायर इंकलाबी और रुमानी भी रहे है.जिन्हे इंकलाब से रोमांस नहीं है, वे शायर हो ही नहीं सकते.सीपी ने कहा हमने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानि जेएनयू (नई दिल्ली) के पूर्व छात्र-छात्राओं के 2005 में हुए वैश्विक जमावड़े के बरसों बाद इसे घर के बाहर गाया है। सीपी ने एक किस्सा भी सुनाया जो यूं है: ” इस्मत चुग़्ताई ! तुम लखनऊ से मेरे लिए दो चीज़ें लाना मत भूलना। एक तो कुरते दूसरे मजाज़।” इस्मत लखनऊ में मजाज़ से मिलीं तो शाहिद लतीफ़ की फ़र्माइश दोहरा दी। मजाज़ ने जवाब दिया, “ अच्छा गिरेबाँ और चाक-ए-गिरेबाँ दोनों को मंगवाया है।”
राजेश जोशी ने जानकारी दी कि इसे तलत महमूद ने बेहतर गाया । सीपी से रहा नहीं गया और कह पड़े वह तलत महमूद को बेहतरीन गायक मानते हैं पर उन्होंने फिल्मकार सुधीर मिश्रा की एक फिल्म के लिए इसे गाकर मजाज के आवारा के साथ न्याय नही किया। मजाज का आवारा खुल कर पूरे तान में गाने की नज़्म है।
महफ़िल में जिक्र किया गया कि 19 अक्टूबर 1911 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिला के रुदौली गाँव में पैदा हुए मजाज का निधन 5 दिसंबर1955 को लखनऊ में हुआ। लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन के पास उनकी कब्र है। उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी यानि एएमयू में अध्ययन और अध्यापन भी किया था। वह प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़े रहे थे।वह मशहूर फिल्म गीतकार और स्क्रिप्ट लेखक जावेद अख्तर और अब अमेरिकी नागरिक और साइकोएनालिस्ट सलमान अख्तर के मामा थे।
इस गायन के बाद सुरेश सलिल ने कहा कि मजाज़ उर्दू के अज़ीम शायर हैं। उनके कलामों में इंक़लाब और रूमानियत की सदाएं एक साथ सुनाई देती हैं। उन्होंने मजाज के कुछ किस्से भी सुनाए।
फिर राजेश जोशी ने फैज अहमद ‘ फैज ‘ की एक नज़्म पढ़ी।
महफ़िल में गीतांजलि श्री के राजकमल प्रकाशन से छपे मूल हिन्दी उपन्यास रेत-समाधि के पेंग्युन से प्रकाशित डेज़ी रॉकवेल द्वारा किये अंग्रेजी अनुवाद टॉम्ब ऑफ़ सैंड को अंतरराष्ट्रीय मान बुकर पुरस्कार मिलने पर भी संक्षिप्त चर्चा हुई ।
बहरहाल मजाज की जिस लोकप्रिय नज़्म का रविवार की महफ़िल में उल्लेख नहीं किया जा सका वह निम्नवत है।
बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना
तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है
मिरी बर्बादियों का हम-नशीनो
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है
कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था
बताने वाले वहीं पर बताते हैं मंज़िल
हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं
मुझ को ये आरज़ू वो उठाएं नक़ाब ख़ुद
उन को ये इंतिज़ार तक़ाज़ा करे कोई
इश्क़ को पूछता नहीं कोई
हुस्न का एहतिराम होता है
क्या क्या हुआ है हम से जुनूं में न पूछिए
उलझे कभी ज़मीं से कभी आसमां से हम
जब भी आँखें मिलीं उन आँखों से
दिल ने दिल का मिज़ाज पूछा है
रोएं न अभी अहल-ए-नज़र हाल पे मेरे
होना है अभी मुझ को ख़राब और ज़ियादा
दफ़्न कर सकता हूँ सीने में तुम्हारे राज़ को
और तुम चाहो तो अफ़्साना बना सकता हूँ मैं
बताऊं क्या तुझे ऐ हम-नशीं किस से मोहब्बत है
मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो इस दुनिया की औरत है
और ज़्यादा आवारा और मजनूँ ही
पे मौकूफ नहीं कुछ मिलने हैं …
धडकेगा दिल-ए-खाना-खराब
और ज़्यादा होगी मेरी बातों से
उन्हें और भी हैरत
सारी महफ़िल जिस पे झूम उठी
‘मज़ाज़’ वो तो आवाज़-ए-शिकस्त-ए-साज़ है
*सीपी नाम से चर्चित पत्रकार,यूनाईटेड न्यूज ऑफ इंडिया के मुम्बई ब्यूरो के विशेष संवाददाता पद से दिसंबर 2017 में रिटायर होने के बाद बिहार के अपने गांव में खेतीबाडी करने और स्कूल चलाने के अलावा स्वतंत्र पत्रकारिता और पुस्तक लेखन करते है।