आज़ादी की सौवीं जयंती – 2047 के लिए भारत का एजेंडा
अगले पचीस सालों के लिए सर्वमान्य कार्यक्रम क्या हो!
राम दत्त त्रिपाठी
अब से पचीस साल बाद यानी 2047 के लिए भारत का एजेंडा क्या हो ? 2047 में भारत की आज़ादी के सौ साल पूरे होंगे – तब शताब्दी वर्ष में यह समीक्षा ज़रूर होगी कि स्वतंत्रता आंदोलन का सपना हमने कितना पूरा किया। यह सपना था स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व का।
एक उत्सवधर्मी देश के रूप हमने भारत की आज़ादी का अमृत महोत्सव धूमधाम से मनाकर अपनी पीठ तो ठोंक ली है , लेकिन अब अगले पचीस सालों का कोई सर्वमान्य रोडमैप नहीं बनाया हैं . एक ऐसा रोडमैप जो इन पिछले पचहत्तर सालों की ग़लतियों और कमियों से सबक़ लेकर भारत के आम लोगों के जीवन में सुख , समृद्धि और शॉंति भर दे. कुछ लोग स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व के एजेंडे से ध्यान हटाने के लिए भारत को धर्म विशेष का राष्ट्र बनाने का जो सपना दिखा रहे हैं, वह डरावना है और उस पर आम सहमति नहीं हो सकती। वह हमारी आज़ादी के सपने से भी मेल नहीं खाता।
हमें यह मानने में कोई गुरेज़ या संकोच नहीं होना चाहिए कि जीवन स्तर के मापदंड के हिसाब से भारत की नब्बे फ़ीसदी आबादी के पास सुखी जीवन के पर्याप्त अवसर और आर्थिक संसाधन नहीं है . एक बड़ा हिस्सा तो दो जून की रोटी के लिए सरकार की रेवड़ियों का मोहताज है. और बहुतेरे लोगों को तो राशन की दुकान से जबरन बीस रुपये का तिरंगा झंडा ख़रीदना भी भारी वित्तीय बोझ लग रहा था , जबकि दूसरी ओर देश में धन कुबेरों की संख्या बढ़ती जा रही है. ऐसे में भावी भारत का एजेंडा स्पष्ट होना अनिवार्य है.
माना गया था कि भारत की जनसंख्या, विशेषकर युवा वर्ग , यानी इतना बड़ा वर्क फ़ोर्स हमारा बहुत बड़ा संसाधन या प्लस प्वाइंट है. लेकिन सचाई यह है कि हमने इस बड़ी जनसंख्या को ऐसी ट्रेनिंग या शिक्षा ही नहीं दी कि वह स्किल्ड वर्क फ़ोर्स बन सके . ऐसे लाखों श्रमिक रोज़ शहरों के चौराहों पर मज़दूरी के लिए खड़े होते हैं और उनमें से तमाम लोग निराश होकर मंदिरों के सामने बैठकर मुफ़्त का भोजन करके कुछ लोगों को पुण्य कमाने का मौक़ा देते हैं .
अपने अधिकारों के प्रति राजनीतिक रूप से जागरूक शिक्षित बेरोज़गार युवा कहीं धरना , प्रदर्शन और आगज़नी करते हुए पुलिस की लाठी खाते हैं और फिर जेल जाने पर इनके परिवार के लोग ज़मानत / रिहाई के लिए कचेहरी और जेल के चक्कर काटते हैं . देश में कई करोड़ युवा ऐसे भी होंगे जो अब नौकरी के लिए आवेदन करने की उम्र पार कर चुके हैं .
हमारे शहरों का नियोजन ऐसे हुआ है कि सड़क या पटरी पर खड़े होकर सामान बेंचना भी आसान नहीं और इनको बिज़नेस के लिए जरूरी छोटी पूँजी भी सस्ते ब्याज पर नहीं मिलती .
हमने अपनी वर्क फ़ोर्स को परंपरागत घरेलू, कुटीर उद्योगों में लगाकर उत्पादन से नहीं जोड़ा. मशीनीकरण और ऑटोमेशन के युग में बिना टेकनिकल ट्रेनिंग पाये श्रमिक रोज़गार कैसे पायेंगे? विकसित देशों के उद्योगपतियों ने चीन और उसके बाद वियतनाम आदि देशों में अपनी फैक्ट्रियॉं इसलिए लगायीं क्योंकि उनके पास तकनीकी कुशल श्रमिक थे. इसलिए भविष्य में हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन कर रोज़गार परक बनाना .
नयी शिक्षा में हमें रटंत विद्या छोड़कर प्रयोगधर्मी और खोजपरक बनाना होगा, केवल जुगाड़ तकनीक और उधार की तकनीक से उत्पादन पर्याप्त नहीं है। हमें विश्वविद्यालयों नयी तकनीक की खोज के केंद्र बनाना होगा।
युवा जनसंख्या के बाद हमारा देश का दूसरा बड़ा संसाधन ज़मीन , जल और जंगल , खनिज और अन्य प्राकृतिक संसाधन हैं. लेकिन ये भी धीरे – धीरे लोगों अथवा स्थानीय समुदायों के हाथों से निकलकर सरकार के ज़रिये बड़े पूँजीपतियों, कंपनियों को जा रहे हैं . अधिक लागत वाली खेती बहुसंख्यक छोटे किसानों की बर्बादी का कारण है. हमारा किसान अब बीज और खाद के लिए आत्म निर्भर नहीं रहा . रिसर्च के लिए ज़रूरी संसाधन न देकर हमने अपने कृषि विश्वविद्यालयों को बेकार कर दिया , सारा बीज , खाद उद्योग बड़ी कंपनियों के पास चला गया है .
खेती के मशीनीकरण के बाद गाय बैल पालना मुश्किल हो गया है और रासायनिक खादों पर निर्भरता से न केवल खेती की लागत बढ़ी बल्कि किसान क़र्ज़दार भी होता गया. किसानों को सम्मान राशि की रेवड़ी देने के बजाय हमें कृषि नीति में इस तरह आमूलचूल परिवर्तन करना चाहिए कि किसानों की बीज , खाद और सिंचाई की लागत कम हो , उत्पादन लागत का दोगुना दाम मिले और अधिक से अधिक लोगों को रोज़गार . मनरेगा के वर्तमान स्वरूप में भी परिवर्तन कर इसे कृषि उत्पादन, पशुपालन, बाग़वानी और कुटीर उद्योगों से जोड़ना पड़ेगा – उदाहरण के लिए चरखे से सूत कातने वालों और हाथ से कपड़ा बुनने वालों को मनरेगा से जोड़ने पर विचार करना चाहिए.
बुनियादी सिद्धांत है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय को मुनाफ़ाखोर बिज़नेस का ज़रिया न बनाया जाये . आज हर परिवार का सबसे ज़्यादा खर्च पढ़ाई और दवाई पर है. यह क़र्ज़ और ग़रीबी का कारण बनता है. पढ़ाई के लिए तो बड़ी संख्या में युवा भी बैंकों के क़र्ज़दार हो जाते हैं. भले ही बहुत कम लोग इनकम टैक्स के दायरे में आते हैं लेकिन आज जीएसटी के चलते गरीब आदमी भी किसी न किसी रूप में टैक्स देता ही है. इसलिए सरकार की ज़िम्मेदारी है कि सरकार को अपना शिक्षा और स्वास्थ्य का ढाँचा इतना मज़बूत करना चाहिए कि लोगों को इनके लिए प्राइवेट बिज़नेस वालों के पास न जाना पड़े. पर्यावरण प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन आज अनेक बीमारियों और महामारी के कारण बन गये हैं, इसलिए वातावरण को प्रदूषित होने से बचाना सरकार की हर नीति का अनिवार्य अंग होना चाहिए.
आज जब संयुक्त परिवार बिखर चुके हैं सोशल सेक्योरिटी बहुत बड़ी ज़रूरत है. सरकार को एक ऐसी व्यापक और अनिवार्य सोशल सेक्योरिटी स्कीम लागू करना चाहिए जिसमें मामूली अंशदान पर हर कोई बेरोज़गारी, दुर्घटना , बुढापे अथवा विधवा या अनाथ होने की स्थिति में न्यूनतम आवश्यक जीवन निर्वाह खर्च लायक़ भत्ता पा सके.
समाज में सुख समृद्धि के लिए शॉंति चाहिए और शॉंति के लिए न्याय अनिवार्य तत्व है . राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय के अलावा रोज़मर्रा के कामकाज में अगर कोई अपराध या अन्याय का शिकार होता है तो उसे बिना समय और पैसा गँवाये न्याय मिलना चाहिए. हम जिस ब्रिटिश क़ालीन न्याय प्रणाली को चला रहे हैं वह बहुत विलंबकारी और खर्चीली है. अगर किसी के मकान या ज़मीन पर कोई क़ब्ज़ा कर लें या किसी करार से मुकर जाये तो सालों की मुकदमेबाजी के बावजूद ज़रूरी नहीं कि न्याय मिले . त्वरित न्याय के लिए माफिया के दरबार खुल गये हैं .
हमें अगले पचीस सालों में इन बुनियादी बातों के लिए न्यूनतम सर्वमान्य एजेंडा बनाना होगा. आज भारत में अनेक शासक दल हैं और यह ज़रूरी नहीं कि जिसे संसद या विधानसभा में बहुमत मिल गया केवल उसे ही नीति निर्माण में एकाधिकार है. इसलिए हमें अगले पचीस वर्षों के व्यापक विमर्श के ज़रिये स्वतंत्रता , समानता , न्याय पर बंधुत्व पर आधारित भारत के विकास का सर्वमान्य एजेंडा बनाना चाहिए जिससे जब हम 2047 में आज़ादी की सौवीं जयंती मनायें तो भारत एक सुखी , संतुष्ट और समृद्ध राष्ट्र हो .