आदि शंकराचार्य : अविभाज्य समग्रता और सार्वभौमिक एकता की सत्यता के प्रतिपादक
अविभाज्य समग्रता –सार्वभौमिक एकता ही एकमात्र शाश्वत सत्यता है। संस्कृत भाषा के “विद्” शब्द से बने “वेद”जिसका एक वचनीय शाब्दिक अर्थ “ज्ञान” है; “विदित” (जाना हुआ), “विद्या” (ज्ञान), “विद्वान” (ज्ञानी) आदि जैसे शब्द जिसके लिए प्रयुक्त हैं, अविभाज्य समग्रता –सार्वभौमिक एकता की सत्यता को प्रकट करते हैं। वेद ज्ञान की पराकाष्ठा हैं; ये सँख्या में चार –ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। एक परमसत्ता –महानियन्ता, महाप्रबन्धक, महाव्यवस्थापक और महासंचालक द्वारा समस्त दृश्य-अदृश्य ब्रह्माण्डीय व्यवस्था क्रमबद्ध रूप से संचालित होती है। वही चराचर जगत का मूल स्रोत है, और समस्त उत्पत्ति व निर्माण का कारण होने से सार्वभौमिक एकता का निर्माता है। वेदों की यही सर्वप्रमुख उद्घोषणा है।
वेदान्त, वेदों का अन्त, सार और/या सिद्धान्त, अविभाज्य समग्रता –सार्वभौमिक एकता एवं उसके निर्माता, ब्रह्म –ब्रह्मन् (परम सत्य, जगत-सार, जगत-आत्मा, सृष्टि-कारण, उत्पत्ति कर्ता, आधार, समावेशी, एक और अद्वितीय, परम ज्ञान, प्रकाश-स्रोत, महाप्रकाश, निराकार, अनन्त, नित्य और शाश्वत, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी) की व्याख्या, वैभव और गौरव को समर्पित है। उपनिषद् इसके मुख्य स्रोत हैं। वेदान्त, अन्ततःज्ञानयोग से व्यक्ति को वैदिक-मार्ग द्वारा ज्ञान की उच्चतम अवस्था-प्राप्ति की दिशा में उत्प्रेरित करते हुए परम सत्य, अविभाज्य समग्रता –सार्वभौमिक एकता की वास्तविकता को समझने एवं उससे सम्पूर्णपरिचयकरने का आह्वान करता है। अद्वैत-वेदान्त, वेदान्त की तीन प्रमुख अथवा सर्वाधिक प्रसिद्ध शाखाओं में से एक है; विशिष्ट अद्वैत (रामानुज से सम्बद्ध)और द्वैत (मध्वाचार्य से जुड़ी) इसकी दो अन्य शाखाएँ हैं। आदि शंकर (788-820 ईसवीं) अद्वैत-वेदान्त के सर्वप्रमुख आचार्य होने के साथ ही, एक ऐसे महानतम दार्शनिक एवं धर्म प्रवर्तक थे, जिन्होंने अपने ज्ञान और सिद्धान्त के माध्यम से भारत के साथ ही विश्वभर के आध्यात्मिक-धार्मिक दर्शनों को प्रभावित किया; उन पर गहरी छाप छोड़ी।
आदि शंकराचार्य ने आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित, गौड़पादाचार्य (छठीं शताब्दी इसवीं), जो स्वयंउनके गुरु गोविन्दभगवत्पाद(सातवीं शताब्दी ईसवीं)के भी गुरु थे और “माण्डूक्यकारिका”के रचयिता होने के साथ ही अद्वैत-वेदान्त दर्शन के प्रधान उद्घोषक, के सिद्धान्त को ठोस स्वरूप प्रदान करते हुए इसे अति प्रभावशाली बनाया। गौड़पादाचार्य ने “मनोदृश्यमिदंद्वैतमद्वैतं परमार्थ:, मनसोह्ममनीभावेद्वैतंनैवोपलभ्यते–यह जितना द्वैत है, सब मन का ही दृश्य है; परमार्थ तो अद्वैत ही है, क्योंकि मन के मननशून्य हो जाने पर द्वैत की उपलब्धि नहीं होती” के माध्यम से एक सर्वोच्च सत्ता, ब्रह्मके चिद्घन (परम ज्ञान अथवा ज्ञानस्वरूप होने) के अपने उद्घोष और माण्डूक्योपनिषद्के समस्त मन्त्रों द्वारा, माध्यमिक दर्शन की शब्दावली का प्रयोग करते हुए, अद्वैत-वेदान्त के मूल तत्त्वों की जो व्याख्या की, आदि शंकर ने उसे अतिश्रेष्ठ विस्तार दिया। उन्होंने ईश, ऐतरेय, कठ, केन, छान्दोग्य, तैत्तिरीय, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य व बृहदारण्यक उपनिषदों के साथ ही, ब्रह्मसूत्रों व भगवद्गीता पर अति सुन्दर और ऐतिहासिक टीकाएँ प्रस्तुत कीं I इन सभी की अतुलनीय व्याख्याएँ कीं और अपने ठोस निष्कर्षों द्वारा यह उद्घोषणा की कि “आत्मा और परमात्मा की एकरूपता है। परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण, दोनों ही, स्वरूपों में रहता है।”
शंकराचार्य ने बलपूर्वक यह कहा कि केवल ब्रह्म ही शाश्वत सत्यता है; इसके विपरीत प्रतीत होती कोई भी स्थिति असत्य है। “ब्रह्म सत्यंजगन्मिथ्याजीवोब्रह्मैवनापरः–ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है।जीव अज्ञानतावश ब्रह्म को नहीं जान पाता, जबकि ब्रह्म उसके भीतर ही विराजमान हैI” इस प्रकार, ब्रह्म (निर्गुण ईश्वर) ही एकमात्र सत्य है और आत्मा ब्रह्म का ही रूप है। आत्मा एवं ब्रह्म में द्वैत नहीं है।
परमाचार्य शंकर के असाधारण दार्शनिक प्रतिपादन के अनुसार अद्वैत यथार्थ –परमार्थ है; विपरीत इसके, द्वैत माया है। माया-मुक्त होने पर अद्वैत का बोध होता है; यथार्थ से साक्षात्कार होता है। उन्होंने यह उद्घोष किया कि माया, जो लगभग अविद्या के समान है, ब्रह्माधीन है। लेकिन माया ब्रह्म को प्रभावित नहीं करती। माया विद्यमान है, लेकिन वह ब्रह्म निहित है और उससे पृथक नहीं है। अविद्या व्यक्ति को प्रभावित करती है। व्यक्ति ब्रह्म को जान ले, वह सत्य तक पहुँच जाए, तो वह अविद्या मुक्त हो जाता है तथा माया को पहचान लेता है। इस स्थिति में, अर्थात् अविद्या मुक्त होकर माया को पहचान लेने के उपरान्त, वह ब्रह्ममय हो जाता है।
आचार्य शिरोमणि आदि शंकर ने अद्वैत –एकत्व विचार को असाधारण व अद्वितीय रूप में प्रस्तुत किया। समस्त चल-अचल एवं दृश्य-अदृश्य के एक स्रोत निर्गत होने और सर्व एकता की पुष्टि की। यह सर्व एकता विशुद्धतः सर्व समानता, सर्व सौहार्द और सर्व कल्याण को समर्पित है। यह समस्त संशयों से बाहर निकलकर एक ही मूल से सबकी उत्पत्ति और अन्ततः उसी से एकरूप हो जाने की स्थिति को प्रकट करता है। सत्कर्मों द्वारा सर्वकल्याण के लिए प्रतिबद्ध होकर सत्यमय होने का आह्वान करता है। इसके माध्यम से उन्होंने अविभाज्य समग्रता व सार्वभौमिकता की सत्यता को मानव विश्व के समक्ष रखा, जिसने, जैसा कि कहा है, विश्वभर में आध्यात्मिक-धार्मिक दर्शनों को प्रभावित किया। आदि शंकराचार्य एक बेजोड़ दार्शनिक थे; अपने ज्ञान की ऊँचाई में वे आजतक भी विश्वभर में बेजोड़ हैं।
विशालतम स्तर पर अपने आह्वान –सनातन सत्य से जन-परिचय, तदनुसार मानवीयव्यवहारों के उद्देश्य से आदि शंकराचार्य ने चार मठ –ज्योतिर्मठ (बद्रीनाथ, उत्तराखण्ड), गोवर्धन (पुरी, ओड़िशा), श्रृंगेरी (कर्नाटक) और द्वारका (गुजरात) स्थापित किए। मूलतः (आदि शंकराचार्य के सिद्धान्त और अपेक्षा के अनुसार) ये चारों पीठें या धाम उत्तर-दक्षिण एवं पूरब-पश्चिम, सम्पूर्ण भारत वर्ष के लोगों का, किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना, सार्वभौमिक एकता की अनुभूति करने का आह्वान करते हैं; इसके बल पर सत्कर्मों द्वारा सत्य-प्राप्ति –आत्मा-परमात्मा की एकरूपता स्थापित करने की अपेक्षा करते हैं। इन पीठों के माध्यम से भारत की एकता अक्षुण्ण रहे, साथ ही अद्वैत की सत्यता संसार के हर एक जन तक पहुँचे, आदि शंकराचार्य का इनकी स्थापना का यही मूल उद्देश्य था।
विशेषकर, भारतवासी समानता और एकता की वास्तविकता का आलिंगन करते हुए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, हमबारम्बारकहसकतेहैं, सत्कर्मों में संलग्न हों, एवं अपने सद्व्यवहारों से धरावासियों के कल्याण के प्रेरक बनें, यह आचार्य शिरोमणि शंकर के महान जीवन और अद्वितीय विचार का उद्देश्य था। अपने बेजोड़ विचार –दार्शनिक पराकाष्ठा और कार्यों के कारण आदि शंकराचार्य एक महानतम भारतीय के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उनकी कीर्ति और प्रतिष्ठा स्थापित है, और भविष्य में भी रहेगी। *पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I