एक बेमिसाल साहित्यिक जोड़ी
कर्नल नरेंद्र पाल सिंह और प्रभजोत कौर
यह सन् 1963-64 की बात है। किसी पंजाबी पत्रिका में अफ़ग़ानिस्तान पर कर्नल नरेंद्र पाल सिंह का एक आलेख पढ़ा।
मुझे रुचा और सोचा क्योँ न इसका हिंदी में अनुवाद कर उसे किसी अच्छी पत्रिका में छपवाया जाये।
लेखक की अनुमति लेने के लिए मैं ने कर्नल नरेंद्रपाल सिंह को फ़ोन किया जो उन दिनों राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के उपसैन्य सचिव थे।
.उन्हें मेरा सुझाव पसंद आया और उन्होंने मुझे उस लेख को हिंदी में अनुवाद करने की इज़ाजत दे दी।
मैंने बिना वक़्त बर्बाद किये उसका अनुवाद कर उस वक्त के सबसे लोकप्रिय हिंदी साप्ताहिक ‘धर्मयुग ‘में भेज दिया और वह जल्दी छप भी गया।
.’धर्मयुग’ के लिए मैं अपरिचित नहीं था, क्योंकि लोक सभा के तत्कालीन अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह के मेरे अनुदित यात्रा संस्मरण वहां काफी समय से प्रकाशित हो रहे थे।
कर्नल साहब का हिंदी में छ्पा लेख जब मैं खुद उनके ऑफ़िस में देने के लिए गया तो उसका गेटअप देखकर बहुत खुश हुए।
अफ़ग़ानिस्तान पर लिखी किताब ‘आरियना ‘
उन्होंने तुरंत मुझे अफ़ग़ानिस्तान पर लिखी अपनी किताब ‘आरियना ‘भेंट करते हुए कहा कि अब इस में से जितने लेख आप बनाना चाहें बना सकते हैं।
अफ़ग़ानिस्तान स्थित भारतीय दूतावास में सैनिक अताशे रहते हुए उन्होँने उस पूरे देश का दौरा कर यह किताब लिखी थी।
यह बहुत ही रुचिकर और जानकारी से परिपूर्ण पुस्तक है।
कर्नल साहब ने इसमें अफ़ग़ानिस्तान की भौगोलिक,ऐतिहासिक ,सांस्कृतिक,लोक कथाओं, लोकगीतों, पश्तो लेखकों और कवियों का भी उल्लेख किया है।
लिहाजा इस किताब से बहुत से आलेख तैयार करके ‘धर्मयुग’ के अलावा ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘नवनीत”, ‘कादम्बिनी ‘ तथा हिन्दी की अन्य कई पत्र – पत्रिकाओं में छपवाये और यूं कर्नल नरेंद्रपाल सिंह हिन्दी में भी परिचित नाम हो गये।
कर्नल साहब एक बार मुझे अपने घर ले गये जो राष्ट्रपति भवन में ही था।
उन्होँने अपनी पत्नी प्रभजोत कौर से मिलवाया जो पंजाबी की मशहूर कवयित्री थीं और कई सम्मानों से सम्मानित हो चुकी थीं ।
उनकी दो बेटियों निरूपमा और अनुपमा से भी भेंट हुई।
पंजाबी साहित्य में उनके योगदान को लेकर एक लंबा इंटरव्यू साप्ताहिक हिंदुस्तान में छ्पा जिस में इस साहित्यिक जोड़ी की भी चर्चा थी।
एक दिन की बात है। मैं प्रभजोत जी की कविताओं के हिंदी में अनुवाद के सिलसिले में उनसे मिलने के लिये गया तो उन्होंने पूछा कि परिवार में कौन कौन है।
मैं ने बताया,माँ,पत्नी और दो बच्चे। उस समय मेरे दो ही बच्चे थे। बाकी दो बाद में पैदा हुए।
उनका अगला सवाल था ,’ और भाई बहन? ‘ मैंने बताया कि मैं अकेला हूं ।
उन्होँने अपने बारे में बताया कि वे सात बहनें हैं,एक भाई था जो एक दुर्घटना का शिकार हो गया । इतना कहते-कहते वे फफक पड़ीं।
बहन का रिश्ता
मैं ने उनका हाथ पकड़ कर अपने सिर पर रखते हुए कहा कि आज से मुझे आप अपना आशीर्वाद दें और मैं जीवनपर्यंत इस रिश्ते को निभाऊंगा और हम दोनों ने इस रिश्ते को जिया।
इस रिश्ते से मेरा परिवार भी परिचित था तथा कर्नल साहब और उनकी दोनों बेटियां भी।
प्रभजोतजी जहां भी रहीं, देश में या विदेश में रक्षा-बंधन के दिन उनकी राखी मुझे मिलती रही।
जब तक वे जीवित रहीं इस पवित्र रिश्ते को निभाती रहीं।
सन् 2016 में उनके जाने के बाद मेरी हथेली सूनी रही।
कभी कभी उनकी बेटी अनुपमा कहती,जिसे मैं रोहिणी कहता हूं, क्यों अंकल आज मम्मी को मिस कर रहे हो न।
उन्हें क्या बताता कि यही जिंदगी की हक़ीक़त है।
एक दिन कर्नल नरेंद्रपाल सिंह ने फ़ोन करके बताया कि ‘सस्ता साहित्य मंडल के यशपाल जैन मिले थे।
उनसे मेरे उपन्यासों पर चर्चा हुई। वे मेरा उपन्यास ‘चानन खड़ा किनारे ‘हिंदी में छापना चाहते हैं।
वे आपको जानते हैं .आप उनसे मिलकर बात कर लें।’
यशपाल जी से मेरा परिचय भी था ही।
उन्होंने मुझे बताया कि कब तक उन्हें उपन्यास चाहिये ।
जब अनुवाद करके दे दिया तो’प्रकाश की छाया ‘ नाम से हिंदी में छ्पा, जिसे हिंदी जगत में खूब पसंद किया गया और जो समीक्षकों को भी भाया।
इसके बाद उनके दूसरा उपन्यास जिस का मैंने अनुवाद किया वह था ‘त्रिया जाल ‘।
हिंदी में वह ‘ कड़ियां टूट गयीं ‘ के नाम से पहले साप्ताहिक हिंदुस्तान में धारावाहिक तौर पर चला।
यह शीर्षक मेरे मित्र जयप्रकाश भारती ने सुझाया जो उन दिनों साप्ताहिक हिन्दुस्तान में ही काम करते थे।
इस पर जब मैंने कर्नल साहब की स्वीकृति चाही तो उन्होंने सहर्ष दे दिया।
इस उपन्यास को खूब सराहा गया। बाद में यह पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुआ।
हिंदी-पंजाबी साहित्यकारों की मुलाकात
उस समय साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक थे बाँके बिहारी भटनागर।
उनकी पत्नी शांति भटनागर हिंदी भवन की महासचिव थीं।
एक दिन उन्होंने प्रभजोत जी को फ़ोन करके बताया कि हिंदी के कुछ साहित्यकार इस पंजाबी साहित्यिक जोड़ी से मिलने की इच्छा रखते हैं।
मिलने का समय एक दिन निश्चित हुआ और प्रभजोत कौर अपने पति कर्नल नरेंद्रपाल सिंह तथा अपनी दोनों बेटियों के साथ हिंदी भवन पहुंच गयीं।
उन दिनो हिंदी भवन थियेटर कम्यूनिकेशन बिल्डिंग में हुआ करता था जहां आज पालिका बाज़ार है।
वहां हिंदी के डॉ. हरिवंश राय बच्चन, डॉ. नगेन्द्र, जैनेंद्र जी, विष्णु प्रभाकर, कमला रत्नम, यशपाल जैन, रमानाथ अवस्थी,पंजाबी के गुरुमुख सिंह जीत सहित बहुत से लोग उपस्थित थे।
कर्नल नरेंद्रपाल सिंह के उपन्यासों के साथ साथ प्रभजोत जी की कविताओं पर बातचीत हुई।
सभी लोग अलग अलग भी मिले और ग्रुप में भी .मीटिंग अच्छी खासी दो घंटे तक चली।
उसे हिंदी और पंजाबी के साहित्यकारों के बीच अपने किस्म का पहला आपस में खुले मन से मिलने और विचारों का आदान प्रदान करने का महत्वपूर्ण अवसर कहा जा सकता था।
कुछ दिनों के बाद साहित्य अकादेमी ने 1964 के लिए पुरस्कृत साहित्यकारों की जो सूची जारी की।
उसे देखने से पता चला कि पंजाबी में प्रभजोत कौर को उनके कविता संग्रह ‘पब्बी ‘के लिए और हिंदी में अज्ञेय को उनके कविता संग्रह ‘आंगन के पार द्वार ‘ का चयन किया गया है।
उन दिनों साहित्य अकादमी के पुरस्कार की बहुत अहमियत होती थी और पुरस्कार पाने वाले को सिर आंखों पर बिठाया जाता था।
उस समय मैं प्रभजोतजी के परिवार के काफी निकट था लिहाज़ा उनके यहां आने वाले फोनों की झड़ी का मुझे अंदाजा था।
पद्मश्री और साहित्य अकादमी सम्मानित जोड़ी
दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ कॉलेज उन्हें सम्मानित करना चाहते थे।
व्यस्तता के कारण कर्नल नरेंद्रपाल सिंह उनके साथ जाने में असमर्थ थे, इसलिए उनका साथ देने के लिए मुझे कहा गया।
उन दिनों मैं लोक सभा सचिवालय मे काम करता था, इसलिये मेरे लिए कोई दिक्कत भी नहीं थी।
खालसा कॉलेज के अलावा हम लोग एक दूसरे कॉलेज में भी गये।
कॉलेज के प्रिंसिपल अपने स्टाफ के साथ बाहर खड़े होकर उनका स्वागत करते थे।
हॉल छात्रों से खचाखच भरा रहता था।
कॉलेज की ओर से प्रभजोतजी का सम्मान होता। वे अपने साहित्य के बारे में विचार व्यक्त करतीं।
बाद में प्रिंसिपल के कमरे में कुछ चुनिंदा लोगों के साथ चाय-काफी होती और बातचीत भी।
खालसा कॉलेज में सविंदर सिंह उप्पल, डॉ.महीप सिंह जैसे पंजाबी-हिंदी लेखक भी मिलकर प्रभजोतजी का अभिनंदन तथा अभिवादन करते।
वे लोग वहां पढ़ाते भी थे। अलावा इसके एक बार फिर हिंदी भवन में प्रभजोत जी को सम्मानित किया गया।
इस साहित्यिक जोड़ी ने पंजाबी और हिंदी साहित्यकारों को एक दूसरे के निकट लाने में अहम भूमिका निभायी।
कर्नल नरेंद्रपाल सिंह के एक और उपन्यास विकेन्द्रित का भी मैंने हिंदी में अनुवाद किया।
कर्नल साहब को ‘बा मुलाहज़ा होशियार ‘ उपन्यास पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला।
पंजाबी में शायद पहली साहित्यिक जोड़ी है जिसे साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला।
प्रभजोत जी को 1964 में अपने कविता संग्रह ‘पब्बी ‘पर और कर्नल नरेंद्रपाल सिंह को 1976 में उनके उपन्यास ‘बा मुलाहजा होशियार’ पर।
इतना ही नहीं यह युगल जोड़ी ‘पदमश्री ‘ से भी अलंकृत हो चुकी है।
अनुवाद में अज्ञेय से ली मदद
हिंदी में मैंने प्रभजोत जी की कुछ कविताओं का अनुवाद करने में अज्ञेय जी की भी सहायता ली थी जब मैं ‘दिनमान’ में उनके साथ काम करता था।
मैं इस बात से बखूबी वाक़िफ था कि अज्ञेय जी पंजाबी पढ़ -लिख-बोल सकते हैं। बुनियादी तौर पर वे पंजाबी थे।
हिंदी के साहित्यकारों के साथ इस दम्पति की निकटता थी लिहाज़ा रेडियो और दूरदर्शन पर भी उन्हें आमंत्रित किया जाता था।
कर्नल साहब को अपनी नयी कहानी पढ़ने के लिये तो प्रभजोत जी को कविता सुनाने के लिये .पंजाबी टॉक में तो दोनों बुलाये ही जाते थे।
मई 1964 में पंडित नेहरू का निधन हो गया। देश ग़म में डूब गया। लोगों ने अपनी अपनी तरह से उन्हें श्रद्धांजलि दी।
कुछ ने उनकी वसीयत को गाने का रूप दिया तो किसी ने गंभीर कविता एवं लेखन द्वारा।
प्रभजोत जी ने नेहरू जी की वसीयत पर एक लंबी कविता लिखी ‘ऐ मेरे लोको,मेरे देशवासियों मैं करना हां अपनी एह वसीयत——-,”काफी लंबी कविता थी।
हिंदी में इसका अनुवाद मैंने किया था। नेहरू जी के बाद लालबहादुर शास्त्री ने प्रधानमंत्री पद संभाल लिया और देश में सामान्य हालात कायम हो गये।
शास्त्री जी की सरकार में इंदिरा गांधी सूचना व प्रसारण मंत्री थीं।
एक दिन वह बहन जी (प्रभजोत जी को मैं बहन जी और कर्नल साहब को वीर जी कहकर संबोधित करता था) को उनके साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलने के उपलक्ष्य में बधाई देने के लिए आना चाहती थीं।
उनके आगमन के लिए विशेष व्यवस्था की गयी । प्रभजोत जी ने अपने कुछ करीबी लोगों को बुला लिया जिन में मैं भी शामिल था।
इंदिरा जी से मुलाकात
इंदिरा जी आयीं, प्रभजोत जी से गले मिलकर बधाई दी। दूसरे मेहमानों से भी मिलीं।
ज़्यादा लोग थे नहीं इसलिए हरेक को समय दिया। मैं पहले भी उन्हे लोकसभा में मिल चुका था।
एक बार तो मैं शास्त्री जी और उनके साथ लिफ्ट में भी गया था।बीच में ही पूछा था यहां क्या काम करते हैं।
संसद के लॉन में कांग्रेस पार्टी की चाय पार्टी में वह अक्सर आतीं और अपने पति फ़िरोज़ गांधी के साथ हंसी मज़ाक करती भी देखी जातीं।
शास्त्री जी के कंधे पर नेहरू जी के हाथ वाला ऐतिहासिक चित्र वैसी ही एक लॉन वाली पार्टी का है।
हमारा ऑफ़िस तीसरी मंज़िल पर था इसलिए हम लोगों को ये सभी नज़ारे देखने को मिल जाया करते थे ।
इस जोड़ी के दामाद हैं जनरल जेजे सिंह
यह शायद कम ही लोगों को ज्ञात होगा कि सशस्त्र सेना के पहले सिख सेनाध्यक्ष जोगिन्दर जसवंत सिंह यानी जनरल जे. जे. सिंह प्रभजोत कौर और कर्नल नरेंद्रपाल सिंह के दामाद हैं।
उनकी छोटी बेटी अनुपमा (हम लोग उसे रोहिणी कहते हैं ) की शादी जनरल जे.जे. सिंह के साथ हुई है।
बेशक़ प्रभजोत जी और कर्नल नरेंद्रपाल सिंह अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनके बच्चों के साथ आज भी मेरा रिश्ता कायम है।
उनकी बड़ी बेटी निरूपमा (हम लोगों की वीना) का हाल ही में कैंसर की बीमारी से निधन हो गया।
जनरल जे.जे. सिंह करीब ढाई बरस यानी पहली फरवरी,2005 से 30. सितम्बर 2007 तक सेनाध्यक्ष रहे।
सेवानिवृत्त होने के तीन महीने के बाद 27 जनवरी 2008 को अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल बनाये गये।
इस पद पर वे 28 मई, 2013 तक रहे .अपनी ससुराली परंपरा कायम रखते हुए उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी ‘A Soldier ‘s General-An Autobiography ‘ यानी ‘एक सैनिक का जनरल ‘।
इसकी खूब सराहना हुई .अब तो उस पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है।