रोजगार का संकट प्रवासी मजदूरों की वापसी और “पर निर्भर अर्थव्यवस्था”
भारतीय राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक ढांचा- आजादी के बाद से ही रोटी , कपड़ा और मकान की बुनियादी समस्याओं से रहा है जूझता
-डॉ अमिताभ शुक्ल
भारत में विकास की नीतियों में दूरदर्शिता एवं दीर्घ अवधि योजनाओं के निश्चित समय अवधि में प्रभावी एवं वास्तविक क्रियान्वयन का अभाव हमेशा रहा है। भारतीय संविधान को विश्व के एक श्रेष्ठ संविधान के रूप में मान्यता दी जाती है. डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जैसे समाज विज्ञानियों द्वारा ” समता पर आधारित समाज ” के उद्देश्य पर आधारित संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों का और कर्तव्यों का भी उल्लेख है । भारतीय राजनीति , अर्थव्यवस्था और सामाजिक – ढांचा आजादी के बाद से ही रोटी , कपड़ा और मकान की बुनियादी समस्याओं से जूझता रहा है ।
जहां इन मुद्दों को लेकर राजनीतिक दल सत्ता प्राप्त करते रहे, वहीं , बाद के वर्षों में जनता की भावनाओं को उभार कर वोट – बैंक की राजनीति कर सत्ता में काबिज होने वाली होने वाली पार्टी भी बुनियादी समस्याओं के समाधान के लिए कोई सार्थक परिणाम देने में सफल नहीं हो सकी हैं ।इनके मूल में वह सामाजिक और आर्थिक ढांचा और वह आर्थिक नीतियां है जो देश की सामाजिक रचना और अधिसंख्य जनता के भविष्य को प्रभावित करती हैं । बुनियादी अधिकारों से वंचित जनता :- देश में रोटी, कपड़ा और मकान और स्वास्थ्य और शिक्षा की शासकीय व्यवस्थाओं से करोड़ों लोग वंचित हैं ,विकास का कौन सा ” प्रादर्श ” लागू है ? और आर्थिक नीतियां कैसी हैं ?यह स्पष्ट हो जाता है l बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रभाव में 1990 के दशक से प्रारंभ उदारीकरण ने सामाजिक असमानता धन , संपत्ति , सत्ता , अधिकारों के केंद्रीकरण और बेरोजगारी को बढ़ाने का काम किया है l
हाल के संकट के दौर में सर्वाधिक भीषण समस्या श्रमिकों का कार्य के स्थान से उनके मूल निवास के स्थानों पर पलायन रहा l इस त्रासदी के जैसे- तैसे हल होने के बाद 5 किलो गेहूं या चावल और 1 किलो चने की महान उद्घोषणा के बाद यह भी घोषणा की गई थी की आप्रवासन को रोकने के लिए इन श्रमिकों को उनके मूल स्थान पर रोजगार उपलब्ध कराया जाएगा , और इसके लिए 1000 करोड रुपए का आवंटन करने की घोषणा की गई थी l इसके बावजूद जैसी की संभावना थी, पिछले 1 सप्ताह में तीन लाख अप्रवासी श्रमिक अपने गांव से महानगरों में काम पर लौटे हैं । दिल्ली , मुंबई , अहमदाबाद , सूरत , अमृतसर , जोधपुर आदि शहरों में बिहार , उत्तर प्रदेश , पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के मजदूरों की वापसी से साफ है कि , भीषण संकट के बाद , 1000 करोड़ के बजट आवंटन और उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार उपलब्ध कराने की घोषणाओं के बाद भी वह अपने स्थानों पर यथोचित रोजगार प्राप्त करने से वंचित रहे और पेट की आग और परिवार के पोषण की जिम्मेदारी उन्हें महानगरों की ओर वापस ले आई है ।
“आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था ” हासिल करने के लिए मूलभूत नीतियों में परिवर्तन , स्थानीय संसाधनों और श्रमिकों का उपयोग और इनसे उपभोक्ता एवं अन्य वस्तुओं के उत्पादन की ठोस योजनाएं आवश्यक हैं , लेकिन इन का अभाव है. संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों जिसमें आजीविका का अधिकार भी शामिल है , के बावजूद रोजगार की गारंटी नहीं है . आधिकारिक तौर पर 40 करोड़ जनसंख्या के गरीबी रेखा से नीचे होने और वास्तव में यह आंकड़ा इससे अधिक होने की स्थितियों में और इस महा संकट से जूझते हुए देश में आज भी रोजगार प्राप्त होने , मूल – स्थान में रहकर विकास की योजनाओं का लाभ प्राप्त करने से अधिसंख्य जनता वंचित हैं l आप्रवासन और उसके परिणामों से उत्पन्न समस्याओं को रोकने के उपाय नहीं है । स्वास्थ्य- सुविधाओं का जो परिदृश्य है , उसमें फिलहाल आगे कुछ समय तक तो केवल इस संकट से उत्पन्न चिकित्सा होगी और आम जनता सामान्य बीमारियों के इलाज से भी वंचित है और रहेगी l ” ऑनलाइन व्यापार ” देश की आर्थिक समस्याओं का समाधान नहीं है l आयात – निर्यात , व्यापार – परिवर्तन करोड़ों जनता के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं लाते । इन स्थितियों में किस दिशा और दशा की ओर भारतीय अर्थव्यवस्था बढ़ रही है…. ? और ऐसी ” पर निर्भर अर्थव्यवस्था” के परिणाम क्या होंगे ….? यही चिंता का विषय है ।