विकास का कौटिल्य शास्त्र
—महेश चंद्र द्विवेदी
हे विकास ! एन्काउंटर में मरकर तुमने न तो वैयक्तिक हित में और न सामाजिक विकास के हित में काम किया है। तुम्हारे मारे जाने के फलस्वरूप कुलजमा तीन सेवानिवृत महानुभाओं को काम मिला है और वह भी केवल दो माह के लिये। तुमने इतना भी नहीं सोचा कि इस कोरोना-काल में लाखों लोग बेरोज़गार हुए हैं। यदि तुम जीवित होते तो आज कितने बेरोज़गार लोग काम-धंधे में लग गये होते। जब तुम महाकाल मंदिर से थाने की हवालात में लाये गये होते, तो कितने पत्रकार और केमरामैन तुम्हारे मुखारबिंद से निकले आशिष-वचन एवं तुम्हारी फोटो लेकर सबसे पहले अपने स्टूडियो भेजने हेतु ऐसी प्रतिस्पर्धा कर रहे होते, जैसे ओलम्पिक की दौड़ का मेडल उसी पर निर्भर हो। फिर अगले दिन जब तुम मुस्कराते और हाथ हिलाते हुए पुलिस की गाड़ी में बैठकर कचहरी जा रहे होते, उस समय तुम्हें शान-शौकत से विदा करने हेतु अनेक नेता, छात्र, वकील, मवाली और किराये के टट्टू मालायें लिये तुम्हारे आगे-पीछे दौड़ रहे होते। तुम्हें अपनी शकल दिखाकर उनका दिन तो सार्थक होता ही, मालायें बेचने वालों और फूल उगाने वालों की अच्छी ख़ासी आमदनी भी हो जाती।
तुम्हारे जेल में पहुंचने से पहले तुम्हारी सुख-सुविधा हेतु गद्दा-बिस्तर, रुचिकर भोजन और तुम्हारी पसंद के ठंडे और ‘गरम’ पेय उपलब्ध कराने में तुम्हारे लोग लग जाते। जेल में तुम्हारा दरबार लगाने हेतु कुर्सी-मेज़ आदि का प्रबंध करने में कितने टेंट-कनात वालों और कामगारों को रोज़ी मिलती। तिलक, विवाह, जन्म-दिवस जैसे उत्सव ठप अथवा न्यून हो जाने के कारण आजकल ये बिचारे बड़ी कड़की में जी रहे हैं। तुम्हारे लिये स्मार्ट फोन और स्मार्ट कट्टे का प्रबंध करने में तुम्हारे खास चमचे व्यस्त हो गये होते। तुम्हारी छत्रछाया में पलने वाले गिरोह, जो अभी निष्क्रिय हैं, मोबाइल पर तुमसे निर्देश लेकर अंधाधुंध कमाई में लग गये होते। अंधाधुंध इसलिये कि पुलिस वालों ने तुम्हारा मकान, गाड़ियां और कारोबार नष्ट कर जो नुकसान कर दिया है, उसकी पूर्ति भी तो उन्हें करनी है। इस हेतु वे अधिक लूटपाट, फिरौती और मारपीट करते, तो कोरोना काल में खाली बैठे तमाम झूठे गवाहों, वकीलों, कचहरी के कर्मचारियों और दलालों की रोटी-रोज़ी का प्रबंध स्वतः हो जाता। कोरोना से लड़लड़कर बोर हो गये पुलिस वालों और डाक्टरों को भी कुछ नये हाथ आज़माने का मौका मिलता।
तुमने असमय अनंत यात्रा पर प्रस्थान कर अपराध के रास्ते से बनने वाले होनहार नेताओं को मझधार में छोड़ दिया है। वे बिचारे अपने को अनाथ अनुभव कर रहे हैं। कुछ को तो छाती पीट-पीटकर रोते हुए सुना गया है – ‘तुम हमें मझधार में छोड़कर चले गये हो, हाय अब हमारी नैया का क्या होगा।‘ अनेक राजनैतिक दलों को भी तुम मायूस कर गये हो – तुम जैसा बाहुबली, दबंग, त्वरित शूटर और लक्ष्मी-कृपा प्राप्त नेता अपने दल में सम्मिलित करने को उन्हें अब कहां मिलेगा।
अनेक टी. वी. चैनल हफ़्ते भर से सिर्फ़ तुम्हारी कारगुज़ारियों के बखान पर ही अपनी टी. आर. पी. चरम पर पहुंचाये हुए थे। तुम्हारे चले जाने से उनके ऐंकर, कैमरामैन, सम्वाददाता आदि सब अवसाद की स्थिति में आ गये हैं- तुम उन्हें मिनट-मिनट पर ऐसी ब्रेकिंग-न्यूज़ दिलाते थे जिसको अब वे टौर्च से ढूंढ कर भी नहीं पा रहे हैं। कितने फ़िल्म प्रोड्यूसर्स ने तुम पर फ़िल्म बनाने की योजना बना डाली थी और पटकथा लिखवाने का काम भी प्रारम्भ कर दिया था। अब वे असमंजस की स्थिति में हैं कि तुम्हारी अनुपस्थिति में कहीं फ़िल्म फ़्लाप न हो जाय। यदि तुम होते तो किस भकुए डिस्ट्रीब्यूटर की हिम्मत थी कि तुम पर बनी फ़िल्म को न खरीदे।
तुमने असमय प्रस्थान कर केवल देश के रोज़गार, अर्थ, राजनीति और कला पर ही कुठाराघात नहीं किया है, वरन देश को गम्भीर सम्वैधानिक एवं वैधानिक ठेस भी पहुंचाई है। यदि तुम जीवित होते, तो तुम्हें जेल से छुड़ाने हेतु देश के कितने नामी ऐडवोकेट और मानवाधिकारवादी सम्विधान और विधान के ऐसे फंदा-छिद्र (लूपहोल) खोज रहे होते, जिनकी कल्पना भीमराव अम्बेडकर ने भी नहीं की होगी। उनकी खोज से न्यायाधीशों सहित हम सब के सम्वैधानिक और विधिक ज्ञान की वृद्धि होती और इन विद्वान ऐडवोकेटों के प्रयत्नस्वरूप तुम पुनः उसी तरह ज़मानत पर होते, जैसे पिछली बार हत्या के केस में आजीवन कारावास का दंड पाने के पश्चात आज़ाद हो गये थे। तुमको ज़मानत मिल जाने के पश्चात कचहरी में तुम्हारे अभियोजन की फ़ाइल तब तक नीचे दबती रहती जब तक तुम्हारे विरुद्ध गवाही देने वाले अधिकांश गवाह ज़मीन में नहीं दब जाते। इस दौरान तुमने सही समय पर सही पार्टी चुन ली होती (या बदल ली होती), और फिर कम से कम विधायकी हासिल कर ली होती। यद्यपि मेरा सुविचारित मत है कि तुम्हें केवल विधायकी देना तुम्हारे साथ अन्याय होता क्योंकि तुममें योग्यता तो मंत्री पद को सुशोभित करने से भी कहीं अधिक थी। विधायक बन जाने के पश्चात तुम्हारे जैसे सर्वगुणसम्पन्न व्यक्ति को अपने विरुद्ध चलने वाले केस को वापस करा लेने में क्या कठिनाई होती?
फिर भी चूंकि तुमने शोले पिक्चर में बिछी हुई लाशों से कहीं अधिक पुलिस वालों की लाशें बिछायीं थीं और तुम्हारा आपराधिक इतिहास गब्बरसिंह के इतिहास से कहीं अधिक शानदार था, अतः मैं मान लेता हूं कि शासन केस वापस नहीं लेता और तुम्हारे केस में 30-35 साल बाद तुम्हें फांसी की सज़ा ही सुनाई जाती। पर इसमें घबराने की क्या बात है? यह तो हिंदुस्तान है, जहां हर प्रकार के ज़हर का काट मिल जाता है। तुम्हारी सज़ा के विरुद्ध लाखों-करोड़ों की फ़ीस पर दिल्ली से आये नामी ऐडवोकेट अपील दायर करते और ज़मानत की अर्ज़ी पर अपने प्रभाव और पैसे की मोहर लगाते। ऐसे में अपील की लम्बी सुनवाई के दौरान तुमको ज़मानत न देना स्पष्टतः मानवाधिकार हनन का प्रकरण बन जाता। हां, प्रारम्भ में एक-आध बार ज़मानत की दरख़्वास्त ज़रूर ख़ारिज़ की जाती, परंतु अंत में तुम्हारे मानवाधिकार की ही विजय होती। यदि ज़मानत में किसी कारणवश देरी होती तो तुमको ब्लड प्रेशर हो जाता और कोई न कोई डाक्टर तुम्हें हार्ट अटैक का खतरा होने की पुष्टि कर देता? इस तरह उच्च-न्यायालय में अपील, यदि नहीं बरी हुए तो सर्वोच्च न्यायालय में अपील, फिर रिवीज़न पेटीशन, फिर क्यूरेटिव पेटीशन, फिर मर्सी अपील के दौरान तुमको छुट्टा घूमने को कम से कम 10-20 साल और मिल जाते।
यदि दुर्भाग्यवश 40-50 साल की कानूनी लड़ाई के पश्चात राष्ट्रपति तुम्हारी दया याचिका ख़ारिज़ कर देते तथा तुम्हारी फांसी की तारीख भी निश्चित हो जाती, तब भी पूर्णंतः निराश होने की बात नहीं होती। तुम्हारे विद्वान वकील कोई नया सम्वैधानिक अथवा विधिक विंदु खड़ाकर उच्च-न्यायालय से स्टे ले लेते और फिर केस वैसे ही खिंचता रहता जैसा निर्भया कांड एवं अन्य अनेक कांडों में हुआ था। यह भी हो सकता है कि तुम्हारे विद्वान वकील अभियोजन में अजीबोग़रीब सम्वैधानिक ख़ामियां निकालकर रिट्रायल करवा देते और तुम उसमें ससम्मान छूट जाते।
और उस उम्र में अगर तुम न भी छूटते, तो क्या फ़र्क पड़ता? तुम कोई अमृत पीकर तो आये नहीं थे? ज़िंदगी पूरी जीने के बाद अस्पताल में मुंह और नाक में नलियां डलवाकर मरने से तो फांसी के फंदे पर लटक जाना बहुत बेहतर मौत है।