मुस्कराइये कि आप लखनऊ में है
बृजेश सिंह
मुस्कराइये कि आप लखनऊ में है
गुल मुस्करा रहे चमन में,
अपने रंग बिखराये हुए ।
असर भी नहीं
रंजोगम भी नहीं
मलाल भी तो नहीं
सारे है सिर उठाए हुए ।
हँस रहे वो खुलकर
नीले आसमां तले
हमीं हैं इक बस
अपनी मुस्कान छुपाये हुए ।
निगल रहे परिंदे
हँस के दानों को
मंडरा रहीं तितलियाँ भी
रंगीं पर चमकाए हुए ।
परिंदों की ऊंची परवाजें
आसमान हो गया अब नीला
बिन पर्दे सब मस्त हैं
दबाये है इंसान हँसी
होठों में छिपाए हुए ।
गुल, परिंदे, आसमां
चमन सब मस्त हैं,
इंसान, अरे ओ इंसान
तू ही अपने कर्मों से त्रस्त है ।
मलिन हवा औ पानी
उजड़े वन उपवन
सब तेरे से ए इंसा
हँसें वो क्यों न हम पर
हमीं हैं खुद को अब छुपाये हुए ।
तरस रहे मेरे ही क्या तेरे कान भी
सुनने को वो अवधी अंदाजे बयां
अब नहीं कहोगे क्या तुम कभी
मुस्कराइये लखनऊ में है आप, अये ।
बहुत बहुत आभार सर, धन्यवाद अवसर देने के लिए 🙏🙏