चातुर्मास में क्या करना चाहिए और क्या नहीं
ध्यान, साधना, दान का विशेष महत्व
डा. पशुपति पाण्डेय
हरिशयनी एकादशी अथवा देवशयनी नाम से पुकारी जाने वाली एकादशी के दिन से हिन्दू के लिए चातुर्मास नियम प्रारंभ हो जाते हैं। देवशयनी एकादशी नाम से ही स्पष्ट है कि इस दिन श्रीहरि शयन करने चले जाते हैं, इस अवधि में श्रीहरि पाताल के राजा बलि के यहां चार मास निवास करते हैं।
चातुर्मास कब से कब तक-:
चातुर्मास चार महीने की अवधि का होता है। जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से शुरू होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलता है। इस बार अधिक मास भी पड़ रहा है। इसलिए चातुर्मास इस बार पांच महीने का पड़ रहा है। हिंदू धर्म में एक जुलाई से चातुर्मास शुरू होगा, 24 नवंबर तक देवशयन करेंगे। 25 नवंबर को इसकी समाप्ति होगी। *18 सितंबर से 16 अक्टूबर तक आश्विन (क्वार) के महीने में अधिकमास* भी पड़ रहा है। इसके कारण चातुर्मास के दिनों में एक माह की वृद्धि हो गई है। 4 महीने के स्थान पर 5 महीने का चतुर्मास होगा।
ध्यान, साधना, दान का विशेष महत्व-:
वास्तव में चातुर्मास वे दिन होते हैं जब चारों तरफ नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव बढ़ने लगता है और शुभ शक्तियां कमजोर पड़ने लगती हैं। ऐसे में जरूरी होता है कि देव पूजन द्वारा शुभ शक्तियों को जागृत रखा जाए। देवप्रबोधिनी एकादशी से देवता के उठने के साथ ही शुभ शक्तियां प्रभावी हो जाती हैं और नकारात्मक शक्तियां क्षीण होने लगती हैं।
हिंदू धर्म में व्रत, भक्ति और शुभ कर्म के चार महीने को चातुर्मास कहा गया है। ध्यान और साधना करने वाले लोगों के लिए यह माह महत्वपूर्ण होता है। चातुर्मास चार महीने की अवधि का होता है। जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से शुरू होकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चलता है।
चातुर्मास/अधिकमास में दान करना श्रेष्ठ फलदायी-:
चातुर्मास में ही इस बार अधिक मास भी पड़ रहा है, जिसमें दान का विशेष महत्व बताया गया है। इस मास में गुड़, सरसों, मालपुआ स्वर्ण के साथ दान करने से पृथ्वी दान का फल प्राप्त होता है। इसके अलावा अधिकमास में तिल, गेहूं, सोने का दान तथा संध्योपासना कर्म व पर्व, होम, अग्निहोत्र देवता पूजन, अतिथि पूजन अधिकमास में ग्राह्य है। श्रीमद् भागवत कथा मोक्षदायी है।
इस मास में देवताओं का स्मरण, पूजन करने का विधान होता है। इसके अलावा अधिकमास में तीर्थयात्रा, देवप्रतिष्ठा, तालाब, बगीचा, यज्ञोपवीत आदि कर्म निष्क्रिय हो जाते हैं। राज्याभिषेक, अन्नप्राशन, गृह आरंभ, गृहप्रवेश इत्यादि कर्म नहीं करना चाहिए।