यम नियम अर्थात् आत्मसंयम और आत्मशोधन के बिना योगाभ्यास के लाभ नहीं
योग दिवस पर विशेष
डाॅ0 शिव शंकर त्रिपाठी , एम0डी0 (आयु)
योग ‘जीवन को समग्र रूप से जीने की कला’ है, जिससे हमें स्वास्थ्य, सम्पन्नता, चरित्र एवं प्रसन्नता सभी प्राप्त हो सकते हैं। आधुनिक समय में अधिकांश लोग जीवन को समग्र रूप में नहीं देखते और यही कारण है कि निरन्तर भौतिक प्रगति के बाद भी उनके जीवन में शान्ति व प्रसन्नता का अभाव है। प्रकृति ने केवल मानव को ही शरीर के साथ विचार, विवेक एवं अध्यात्म की शक्ति दी है और यदि इन शक्तियों का ठीक से उपयोग किया जाय तो हम समग्र जीवन जी सकते हैं। समग्र जीवन के लिए इन सभी शक्तियों का विकसित होना आवश्यक है और योग इन्ही शक्तियों को विकसित करने का माध्यम है।
हमारा मानना है कि जीवन के प्रत्येक पहलू के साथ योग का अभिन्न रूप से सम्बन्ध है। जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसे कहा जाय कि योग से अछूता है। इसी कारण महर्षियों ने योग की सार्वभौमिकता को स्वीकारा है। आज पूरे विश्व ने भी इस योग की सार्वभौमिकता को समझकर स्वीकार किया है।
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योग एक ऐसी पद्वति है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी अंतर्निहित शक्तियों को संतुलित रूप से विकसित कर सकता है। योग पूर्ण स्वानुभूति कराने का साधन प्रदान करता है। बहुत से लोग योग को परमात्मा की प्राप्ति के एक साधन के रूप में देखते हैं। योग हमारे जीवन में संतुलन लाता है। हमारे विचारों के प्रवाह को घनीभूत करके हमारे आत्मविश्वास में अभिवृद्धि करता है। हमारी निर्णय क्षमता तथा कार्य करने की शक्ति को बढ़ाता है तथा जीवनी शक्ति में अभिवृद्धि करके जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण को बदलने की क्षमता रखता है। हमारे अन्दर की नकारात्मता को हटाकर उत्तेजना, अवसाद आदि को शान्त करता है तथा हमें एक सुसंस्कृत नागरिक के रूप में प्रतिष्ठित करने का मार्ग प्रशस्त करता है। परन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि उन सबकी प्राप्ति कैसे संभव है?
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आत्मसंयम और आत्मशोधन के बिना योगाभ्यास करने से संभवतः इन लाभों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है हम यम और नियम का पालन करते हुए योग को आचरण में उतारने का प्रयास करें। मन की शुद्धता के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पालन करने की ओर कदम बढ़ाएं। उसके बाद यदि हम आसन, प्राणायाम का अभ्यास करते हैं तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि हम योग साधना के महत्व को समझ सके हैं तथा उसे अपने आचरण और जीवन में उतारने के लिए तत्पर हैं।
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चिकित्सा की दृष्टि से रोग, योग का विरोधी है अर्थात् रोगी व्यक्ति कभी भी योग मार्ग पर नहीं चल सकता। यह बात महर्षि पतंजलि ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि विकार से व्याधि की उत्पत्ति होती है, जो योग में बाधक है। शरीर के सम्पूर्ण पोषण के लिए हम संतुलित आहार लेते हैं। भोजन संतुलित नहीं होने से या तो हम कुपोषण के शिकार होते हैं, या फिर शरीर में कोई खास तत्व ज्यादा मात्रा में संग्रहित होकर शरीर को रोग-ग्रस्त कर देता है। इसी तरह यौगिक प्रक्रिया भी संतुलित होनी चाहिए। जिससे शरीर, मन एवं प्राण के विकास के लिए अनुकूल स्थित प्राप्त हो।
योग हमारी स्वास्थ्य-रक्षा में अवश्य सहयोग कर सकता है, बशर्ते उसका संतुलित और यथावश्यक प्रयोग अथवा अभ्यास किया जाये और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि यदि आपका आहार-विहार अनुशासित नहीं है, तो उससे संग्रहीत होने वाला शरीर-विष की मात्रा केवल आसन प्राणायाम या ध्यान से नहीं घट सकती, क्योंकि गलत जीवन-शैली या खान-पान से विष का जमा होना तो जारी ही रहेगा।
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वर्तमान में रोगों का जन साधारण का उनके परम्परागत् स्वास्थ्य रक्षण के उपायों के ज्ञान की निरन्तर कमी संयुक्त परिवारों का विघटन, पर्यावरण प्रदूषण तथा रोगों के रोकने व उपचार के प्रति अज्ञानता एवं साधनों की कमी ही दृष्टिगोचर हो रही है। पूरा विश्व जीवन शैली जनित रोगों की बढ़ती संख्या को लेकर चिंतित है और उन उपायों एवं समाधान में केन्द्रित हो रहे हैं कि किस प्रकार हम अपने स्वास्थ्य को सुरक्षित रख सकें।
यह तभी सम्भव है जब हम भारत की परम्परागत चिकित्सा विधियों जैसे-आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग आदि को अपनायें और महर्षि, चरक, सुश्रुत, बाग्भट्ट एवं महर्षि पतंजलि आदि के द्वारा निर्दिष्ट सद्वृत का पालन, दिनचर्या को नियंत्रित करने एवं स्वास्थ्य रक्षण के उपायों का पालन करने के संदेश को जन-जन तक पहुँचाएं, तभी निरोगी एवं समग्र स्वास्थ्य की कामना का सपना साकार होेगा।
से0नि0 प्रभारी चिकित्साधिकारी (आयुर्वेद), राजभवन, उ0प्र0।पूर्व क्षेत्रीय आयुर्वेदिक एवं यूनानी अधिकारी,लखनऊ।
पूर्व सहायक औषधि नियंत्रक आयुर्वेद सेवाएं, उ0प्र0।