विचित्र किंतु सत्य: मृत्यु यात्रा के साथ नृत्य की अनोखी परंपरा
लोकेंद्र सिंह बिष्ट, उत्तरकाशी
आपने आज तक संभवतः किसी शव यात्रा या मृत्यु यात्रा को पारंपरिक वाद्य यंत्रों ढोल नगाड़ों की थाप के साथ नृत्य करते हुए ले जाने की बात न सुनी होगी और न ही देखी होगी, लेकिन उत्तरकाशी जिले में खासकर रवाईं यमुना घाटी में अभी भी एक अनोखी संस्कृति जिंदा है, जहां किसी बुजुर्ग के मरने पर शव यात्रा को मोक्षघाट तक गाजे बाजों व पारंपरिक ढोल नगाड़ों रणसिंघो के साथ नृत्य करते हुए शमशान घाट तक ले जाया जाता है। यह सुनने व देखने में जरूर अटपटा लग सकता है लेकिन यही विचित्र भी है, और सत्य भी है, अद्भुत भी है और अकल्पनीय भी।
ठीक एक वर्ष पहले 22 मई 2019 को मैं अपने रिश्तेदार चैन सिंह जयाड़ा (87 वर्ष), सेवानिवृत्त पंचायत राज अधिकारी, उत्तराखंड सरकार, निवासी डख्याट गांव, बड़कोट ,जिला उत्तरकाशी की मृत्यु का समाचार सुनकर उनके अंतिम दर्शन करने और उनकी शवयात्रा में शामिल होने के लिए गया था। उनकी मृत्युयात्रा (शवयात्रा) को भव्य रूप से दर्जनों ढोल, नगाड़ों और रणसिंघो के साथ ले जाया गया था। सैकड़ों लोग इस शवयात्रा में शरीक थे।रास्ते में यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर बड़कोट में शवयात्रा को एक जगह रोककर गढ़वाली पहाड़ी पारंपरिक वाद्य यंत्रों, ढोल बाजे नगाड़े व रणसिंघो के साथ करीब 30 मिनट तक नृत्य किया गया।
वीडियो देखें https://youtu.be/FKgRvVI0e2c
ये एक नया अनुभव था जो अद्भुत और अकल्पनीय था। शवयात्रा में किये जाने वाले इस नृत्य को ‘”पैंसारा”” नाम से जाना जाता है। इस खास नृत्य को ढोलक की थाप पर किया जाता है। जोड़ी में बारी-बारी से इस नृत्य में निपुण लोग ढोल के साथ ढोल को विशेष अंदाज में बजाते- बजाते इस नृत्य को प्रस्तुत करते हैं। बाकी ढोल, नगाड़े व पहाड़ी वाद्य यंत्रों को बजाने वाले इनका साथ देते हैं। इन ढोल नगाड़े बजाने वालों को स्थानीय भाषा मे “बाजगी” कहा जाता है। जिस किसी के घर से किसी बुजुर्ग की मृत्यु होती है उसके परिवारजन व रिश्तेदार मृत आत्मा की शांति के लिए पर्याप्त मात्रा में इस नृत्य को करने वालों व दूसरे वाद्य यंत्रों व पहाड़ी ढोल नगाड़े बजाने वालों को पैसे रुपये भी भेंट करते हैं। वो भी बारी- बारी से ताकि बीच नृत्य में कोई बाधा न हो। इस पैंसारा नृत्य के निपुण लोग इस नृत्य के दौरान गजब का समां बांधकर लोगों के आकर्षण का केंद्र बन जाते हैं। गजब का समां बंध जाता है। लोग मंत्रमुग्ध इस नृत्य को देखते हैं। हालांकि ये परंपरा व संस्कृति विलुप्ति की कगार पर है लेकिन है अभी भी जिंदा।
केंद्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर के प्रोफेसर रहे प्रोफेसर डी आर पुरोहित कहते हैं कि पहले ये संस्कृति उत्तराखंड के उत्तरकाशी, चमोली, पौड़ी गढ़वाल में जिंदा थी। पहले जवान हो या बुजुर्ग सभी की मृत्युयात्रा में इस नृत्य को किया जाता था। तब लोग मौत को भी सेलीब्रेट करते थे, क्योंकि मृत्यु ही अंतिम सत्य है। प्रशासनिक अधिकारी रहे मदन सिंह कुंडरा कहते हैं कि अपनी उम्र पूरी कर चुके बुजुर्गों की ही मृत्युयात्रा में इस नृत्य को किया जाता है। आज पहाड़ की एक मजबूत, अद्भुत, अनूठी, अकल्पनीय कला औऱ संस्कृति विलुप्ति के कगार पर है। ये एक ऐसी कला है जिसे लाखों- करोडों खर्च करके भी किसी संस्थान से नहीं सीखा जा सकता है। इस अति महत्वपूर्ण कला के बचे खुचे माहिर और निपुण लोगों को चिन्हित कर सरकार उन्हें मदद और संरक्षण दे ताकि विलुप्ति की कगार पर यह अनूठी कला संसाधनों व संरक्षण के अभाव में कहीं दम न तोड़ दे। पैंसारा नाम से विख्यात इस दुर्लभ कला को जानने वाले लोग शदियों से अपने ही पूर्वजों व बुजुर्गों से इस अनूठी कला को सीखते आए हैं। इसी क्रम में ये अदभुत कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित हो रही है, बिना किसी सरकारी संसाधनों व संरक्षण के। इस नृत्य कला में निपुण बड़कोट निवासी रामदास कहते हैं कि इस अद्भुत संस्कृति व कला के संरक्षण की आवश्यकता है अन्यथा संसाधनों के अभाव में ये एक दिन दम तोड़ देगी।
( लेखकर एक वरिष्ठ पत्रकार, निदेशक जीएमवीएन व भाजपा प्रदेश कार्यकारिणी समिति के सदस्य हैं)