अब नेपाल का साथ भी छूटा
लिपुलेख-कालापानी-लिंपियाधूरा विवाद
पंकज प्रसून, वरिष्ठ पत्रकार
पाकिस्तान, चीन के बाद अब भारत का नेपाल से भी सीमा विवाद शुरू हो गया है। जिस तरह नेपाल से भारत के विवाद बढ़ रहे हैं वह मोदी सरकार की विदेश नीति पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं।
नेपाल न केवल एक दोस्त के तौर पर, बल्कि अपने सामरिक महत्व के लिए भी भारत के लिए महत्वपूर्ण है। चीन और भारत के मध्यवर्ती क्षेत्र (बफर) के रूप में भी नेपाल महत्वपूर्ण किरदार अदा करता है। यदि नेपाल की सीमा भी अन्य देश की सीमा के भांति असुरक्षित और अशांत हो जाये तो भारत को अपनी फौज का फैलाव एक नये क्षेत्र में करना पड़ेगा तथा चीन से एक और जगह भिड़ंत की स्थिति पैदा हो जायेगी,जैसा कि डोकलाम में देखने को मिला।
पिछले कुछ वर्षों से नेपाल चीन के प्रभाव क्षेत्र में जाता दिख रहा था। भारत का प्रभाव अपने इस ऐतिहासिक और पारंपरिक दोस्त पर कम होता जा रहा है। नेपाल में भी भारत विरोधी स्वर लगातार तेज़ होते जा रहे हैं, और चीन के प्रोत्साहन के बाद यह और अधिक तेज़ हुआ है।
ताज़ा विवाद, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने और उसके विभाजन के बाद नवम्बर के महीने में भारत द्वारा नया नकशा जारी करने के बाद शुरू हुआ। इस नये नक्शे में कालापानी को भारतीय हिस्सा के रूप में दिखाया गया था, जिस पर नेपाल ने कड़ी आपत्ति जतायी थी। जनवरी में नेपाल ने सीमा-विवाद के निपटारे के लिये बातचीत की प्रक्रिया शुरू करने की अपील की, लेकिन भारत ने इसका कोई संज्ञान नहीं लिया।
लिपुलेख-कालापानी-लिंपियाधूरा के 310 वर्ग किलोमीटर के इलाक़े को लेकर भारत और नेपाल के बीच दशकों से विवाद है। कालापानी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के पूर्वी कोने में स्थित है। यह पूर्व और दक्षिण में नेपाल उत्तर में चीन के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र के साथ एक सीमा साझा करता है।
गत 8 मई 2020 को रक्षामंत्री राजनाथ सिंह द्वारा कैलाश- मानसरोवर यात्रा के मार्ग में उत्तराखण्ड के पिथाेरागढ़ जिले में स्थित धारचूला से लिपुलेख दर्रे तक बनायी गयी नयी सड़क का उद्धाटन किया गया। नेपाल के अनुसार यह सड़क बिना उसकी सहमति के एकतरफा फैसला कर के बनायी गयी है और रोड करीब 17 किलोमीटर उसके नेपाली भूमि पर बनायी गयी है। 9 मई को नेपाल ने आधिकारिक रूप से भारत के लिपुलेख सीमा के लिये सड़क के उद्घाटन को एकतरफ़ा कार्रवाई बताते हुए भारत को चेतावनी दी कि वह कोई भी निर्माण कार्य या गतिविधि नेपाली सीमा के भीतर न करे। भारत ने नेपाल की इस प्रतिक्रिया को खारिज करते हुए कहा कि उसने इस रास्ते का अपनी सीमा के भीतर निर्माण किया है।
भारत के इस कदम के विरोध में नेपाल नेएक नया नक्शा जारी किया । नक़्शे में लिपुलेख – कालापानी – लिंपियाधूरा को नेपाल के हिस्से के रूप में दिखाया गया। 13 जून को नेपाली संसद की निचली सदन प्रतिनिधि सभा ने संविधान संशोधन बिल के ज़रिए इस नए नक्शे को सर्वसम्मति से पारित कर दिया, अब यह बिल ऊपरी सदन राष्ट्रीय सभा में पारित होने के लिए भेज दिया गया है। राष्ट्रीय सभा में कम्युनिस्ट पार्टी का दबदबा है और वहाँ से भी इस बिल को मंजूरी मिलने तय है। अभी इस बिल के पटल पर रखे जाने की तारीख की घोषणा नहीं की गई है।
सीमा विवाद भारतीय उपमहाद्वीप के औपनिवेशिक अतीत की देन है। तात्कालिक अंग्रेज़ी साम्राज्यवादी शक्ति ने इस हिस्से में स्थानीय राष्ट्रों के साथ एकतरफ़ा संधि कर गैर तार्किक आधार पर सीमाओं का निर्धारण किया। भारत नेपाल के बीच 1850 किलोमीटर लंबी सीमा है जो लगभग 98 प्रतिशत स्पष्ट रूप से रेखांकित कर ली गयी हैं। लेकिन इस क्षेत्र की सीमा अभी भी विवाद का विषय है। इसकी वजह 1815 में हुई सुगौली संधि है जिसका अनुमोदन 1816 में हुआ, कि यह दोनों देशों द्वारा अलग व्याख्या के कारण है। यह संधि आंग्ल गोरखा युद्ध (1814-16) में गोरखा राज के पराजय के बाद नेपाल के गोरखा प्रमुखों और ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच हुई थी। संधि के अनुसार, नेपाल ने पश्चिम में कुमाऊँ-गढ़वाल और पूर्व में सिक्किम के क्षेत्रों को खो दिया। अनुच्छेद 5 के अनुसार, नेपाल के राजा ने काली नदी के पश्चिम में क्षेत्र पर अपना दावा छोड़ दिया, जो ऊपरी हिमालय में शुरू होती हुई भारतीय उपमहाद्वीप के मैदानों में बहती है।
इस संधि के अनुसार, महाकाली नदी के पूर्व में पड़ने वाली सारी ज़मीन नेपाल के हिस्से में आती है। इस संधि के अनुसार, नेपाल का दावा है कि लिपुलेख, लिंपियाधुरा और और कालापानी उसके अधिकार क्षेत्र में आते हैं। विवाद इस पर भी है कि महाकाली नदी का उद्गम कहां से होता है । नेपाल जिस स्थान से महाकाली नदी का उद्गम बताता है, भारत के अनुसार वह ‘लिपु गाद’ नाम की एक बरसाती नदी का शुरुआती स्थल है। ये महाकाली नदी में मिलने वाली तमाम सहायक नदियों में से एक छोटी पहाड़ी बरसाती धारा है। भारत का कहना है कि नदी वास्तव में कालापानी के पास काली नाम लेती है। नेपाल के इस दावे का भारत यह कह कर खारिज करता रहा है कि सुगौली की संधि के अंतर्गत इस धारा के उत्तर वाले हिस्से की सीमा को पूरी तरह से निर्धारित नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त, भारत के अनुसार उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशक से प्रशासनिक एवं राजस्व रिकॉर्ड के अनुसार भी कालापानी इलाक़ा भारत के पिथौरागढ़ ज़िले का हिस्सा रहा था।
दोनों देशों के बीच सीमा निर्धारण अब तक मित्रतापूर्ण वातावरण में कूटनीतिक संवाद के जरिये सफलतापूर्वक किया जा रहा था। सीमा निर्धारण करने के लिए दोनों देशों के बीच 1981 में तकनीकी स्तरीय सीमा समिति का गठन किया था, जिसने 2007 तक अपनी 98 प्रतिशत सीमा सफलतापूर्वक निर्धारित कर ली थी।
भारत के लिए क्यों महत्वपूर्ण है यह सड़क?
जम्मू कश्मीर के विभाजन के बाद भारत द्वारा प्रकाशित मानचित्र पर नेपाली तीव्र प्रतिक्रिया कोविड 19 के मद्देनजर नेपथ्य में चली गयी थी। नेपाल सरकार ने भारत द्वारा उसे 30 हज़ार टेस्टिंग किट प्रदान करने पर सार्वजनिक रूप से धन्यवाद भी दिया था। लेकिन जब 8 मई को राजनाथ सिंह ने उत्तराखंड के धारचुला से, भारत नेपाल और चीन की सीमाओं को जोड़ने वाले लिपुलेख दर्रे तक जाने वाली 80 किलोमीटर लंबी सड़क के उदघाटन की घोषणा की तो नेपाल ने कड़ा रुख अख्तियार कर लिया।
इस सड़क का निर्माण भारत सरकार के अनुसार मानसरोवर यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं की सुगमता के लिए किया गया है। अब तक कैलाश मानसरोवर जाने के लिए केवल दो ही रास्ते उपलब्ध थी। नाथू ला के रास्ते या फिर नेपाल के रास्ते ये दोनों ही मार्ग बेहद मुश्किल हैं और भारत सरकार के मुताबिक धारचुला तक सड़क के बन जाने से कैलाश मानसरोवर की तीर्थ यात्रा पर जाना आसान हो जायेगा और इससे काफ़ी समय भी बचेगा।
भारत के लिये इस सड़क का व्यापारिक महत्व भी है। इस सड़क के बन जाने के बाद भारत – चीन के बीच व्यापार की बढ़ने की बड़ी संभावना है।
भारत के लिये यह सड़क सामरिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। सीमा पर चीन के साथ लगातार बढ़ रही झड़पों के मद्देनजर भारत अब सामरिक महत्व के स्थानों पर आधारभूत संरचनाओं (इंफ्रास्ट्रक्चर) के विकास पर ध्यान दे रहा है। 2017 में संसद की रक्षा मामलों की स्थायी समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि सीमा के आस पास के इलाक़ों में पर्याप्त बुनियादी ढांचे का विकास करना बेहद महत्वपूर्ण है।
2017 में हुए डोकलाम विवाद के वक़्त भी कालापानी क्षेत्र का सामरिक महत्व भी सामने आया था जब एक चीन अधिकारी ने कहा था कि चीन कालापानी या फिर पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर के रास्ते भारत की सीमा में घुस सकता है।
कालापानी का इलाक़ा ऊंचे स्थान पर है, जिससे भारत की सीमा चौकियों को तिब्बत के पठारी इलाक़ों के रास्तों पर निगरानी का अच्छा मौक़ा मिलता है। किसी आक्रमण की स्थिति में भारत मज़बूत स्थिति में होगा।
इसलिए भी भारत इस सामरिक महत्व के ठिकाने को हाथ से गवाना नहीं चाहेगा।
नेपाल की अंदरूनी राजनीति
नेपाल सरकार और खास कर प्रधानमंत्री के.पी.ओली द्वारा इस वक़्त सीमा विवाद और नेपाली राष्ट्रवाद को हवा देने के पीछे चीन का हाथ होने के अलावा नेपाल में चल रही अंदरूनी राजनीति उठापटक भी है।
कोरोना संकट से निपटने के तरीके के लिए प्रधानमंत्री ओली को नेपाल में कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। कोरोनोवायरस संकट के लिए चीन से चिकित्सा उपकरणों और अन्य उपकरणों की खरीद को लेकर उनके कुछ मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे हैं। ओली पर कम्युनिस्ट पार्टी पर पकड़ खोने की बात भी नेपाली मीडिया में कई बार आयी साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि पार्टी पर प्रचंड और माधव नेपाल की पकड़ मजबूत हुई है। प्रचंड और माधव नेपाल खेमे द्वारा उनकी इस्तीफे की मांग की जा रही थी।
इस स्थिति में ओली के पास भारत से सीमा विवाद और नेपाली राष्ट्रवाद को बढ़ा कर अपनी सत्ता कायम रखने की मजबूरी भी है
भारत से दूर हो चुका नेपाल
मोदी जब नेपाल गये तो हिन्दू भावना और भारत -नेपाल मैत्री का खूब गान किया, पर ज़मीन पर किया ठीक उल्टा। संविधान सभा पर अनावश्यक दवाब और बिना योजना के नेपाल की घरेलू राजनीति में ज़रूरत से ज़्यादा दख़ल देना भारत की नेपाल नीति का हिस्सा रहा है। जब निरंकुश राजशाही के विरुद्ध जनयुद्ध अपने उफान पर था, तो उस वक़्त अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने अमरीका के साथ मिल कर शाही नेपाली सेना को हथियार और अन्य युद्ध सामग्री मुहैया कराया था। राजशाही के हटने के बाद भी भारत की दखलंदाज़ी और नेपाली अस्मिता की अनदेखी करना आम बात है।
2015 में मोदी ने एक कदम आगे बढ़ते हुए नेपाल पर अघोषित आर्थिक नाकेबंदी तक कर दिया ।पहले से ही विपन्नता की मार झेल रहा नेपाल भारत के इस फैसले से पूरी तरह बर्बादी के कगार पर पहुँच गया था। उसी साल भूकंप से तबाह नेपाल को राहत कार्य में लगने वाली ज़रूरी समान की आपूर्ति भी नहीं हो पा रही थी। मौक़ा तलाशते चीन के सामने मोदी सरकार ने नेपाल को चांदी के प्लेट पर मुफ्त में परोस दिया।
नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी का बड़ा हिस्सा और खास कर के प्रधानमंत्री के.पी.ओली पहले से ही चीन के पक्षधर माने जाते हैं। उन्होंने चीन से दोस्ती का खुला न्यौता स्वीकार कर उसके साथ आर्थिक, राजनीतिक और वाणिज्य के क्षेत्र में कई संधियां कर डाली । भारत द्वारा नेपाल पर एकतरफा आर्थिक नाकेबंदी और उससे हुए नुकसान को नेपाली जनता अभी तक भूली नहीं है। वहां पहले से ही एक भारत विरोधी धारा थी । अब तो वहां भारत विरोधी स्वर और लहर मुखर हो चुकी है।
भारत की परवाह किये बगैर नेपाल चीन की महत्त्वाकांक्षी पहल वन बेल्ट वन रोड इनिशिएटिव का हिस्सा बन गया है। हाल के वर्षों में चीन ने नेपाल में इंफ्रास्ट्रक्चर तथा रक्षा सहित कई क्षेत्रों में भारी निवेश किया है और नेपाल से तिब्बत तक रेलवे लाइन बिछाने का प्रस्ताव रखा है। चालू वित्त वर्ष में नेपाल में हो रहे विदेशी निवेश का 90 प्रतिशत चीन के द्वारा किया जा रहा है।
दशकों से नेपाल अपने वाणिज्य के लिये भारतीय बंदरगाहों पर निर्भर रहा है। नेपाल आने और जाने वाला दो-तिहाई सामान भारत के माध्यम से गुजरता है। इस निर्भरता पर कटौती करने के लिये काठमांडू ने पिछले साल बीजिंग के साथ एक पारगमन संधि पर हस्ताक्षर किया। यह इस साल की 1 फरवरी से लागू हुआ जिसके तहत चीन नेपाल को अपने चार समुद्री बंदरगाहों और तीन भूमि बंदरगाहों तक पहुंच प्रदान करता है। भारत द्वारा नेपाल को ईंधन और दवाओं जैसी आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति पर रोक लगाने के कुछ महीने बाद ही यह लागू हो गया था।
जिस तरह से नेपाल ने भारत विरोध के अपने तेवर को बरकरार रखा है, उससे लगता है कि आने वाले दिनों में भारत -नेपाल संबंध में सुधार की गुंजाइश कम ही है। भारत दक्षिण एशिया में अलग -थलग पड़ता जा रहा है और एक एक कर अपने पारंपरिक मित्रों को खोता जा रहा है जो सामरिक और राजनीतिक दृष्टि से शुभ संकेत नहीं है।
भारत के उत्तराखंड और नेपाल के धारचुल्हा के बीच बहती शारदा नदी, जिसे नेपाल में काली या महाकाली नदी भी कहा जाता है। (साभार dw.com)
( लेखक दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर इंडियन पोलिटिकल रिसर्च ऐंड अनालिसिस के संस्थापक-निदेशक हैं )