गांधी, चरखा और ग्राम स्वराज्य: विनोबा की दृष्टि में बापू का समग्र दर्शन

खादी की शुरुआत कैसे हुई

विनोबा भावे कहते थे कि गांधीजी केवल ऊंचे आदर्शों वाले चिंतक नहीं, बल्कि धरती से जुड़े हुए ऐसे कामगार थे जिन्हें भारत की ग्राम्य आत्मा का गहरा अनुभव था। चरखा, खादी और श्रम-प्रतिष्ठा उनके लिए केवल प्रतीक नहीं थे—वे एक नई, अहिंसक और न्यायपूर्ण अर्थव्यवस्था की आधारशिला थे।इस लेख में विनोबा भावे के शब्दों के माध्यम से हम समझते हैं कि बापू का चरखा क्यों मात्र धागा कातने का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता, स्वावलंबन और मानव मुक्ति का एक जीवंत दर्शन था।

गांधीजी का जीवन_ चित्र सूत की गुंडी में बाबा को बहुत स्पष्ट दीखता था। इसलिए  बापू की स्मृति में सूतांजलि अर्पण करने का कार्यक्रम हर वर्ष 12 फरवरी को देश के सामने रखा था। बाबा बापू का यही स्मारक बताते थे।  यह चीज देखने में छोटी थी, लेकिन उतनी ही शक्तिशाली भी थी।  इसमें शरीर_ परिश्रम, अहिंसक_ प्रेम और त्याग की दीक्षा मिलती है। यह हमारी श्रम_प्रतिष्ठा की भावना का प्रतीक है। इसमें मातृभाव का दर्शन होता था। यह सर्वोदय विचार के लिए एक वोट ही है।             

बापू ने कहा था कि देश में धार्मिक और पांथिक उपासनाएं तो हैं लेकिन उनसे भेद पैदा होता है।  एक ऐसी अभेद उत्पन्न करने वाली उपासना भी  होनी चाहिए जिससे सबको लगे कि मैं कुछ_ न _कुछ कर रहा हूं। यही विचार लेकर चरखे का विकास हुआ।

 कातना हलके से हलका और सरल श्रम है। यह कमजोर से कमजोर नागरिक को भी उत्पादक बना सकता है, यह अदभुत औजार बापू ने हमें दिया। 

बापू के पास वर्ष 1916 में जब विनोबा पहुंचे थे तो वहां सूत की बुनाई का काम होता था। वहां स्वाबलंबन के लिए 25 गज कपड़ा बुनने का यत्न बाबा करते रहे। एक दिन तो बाबा रात के नौ दस बजे तक  25 गज की पट्टी उतार कर ही उठे। यह सब सूत मिल का था। तब ध्यान में आया। कि यह सूत भी अपने हाथ का होना चाहिए। तब चरखा मिला।

लेकिन पूनी फिर भी समस्या थी। क्योंकि मिल    की पूनी लंबी थी। फिर सोचा गया। कि पूनी भी अपने हांथ से बनाई जाए। और उसमें भी सफलता मिली और यहीं से खादी की शुरुआत हो गई।

 बापू को तो खादी के माध्यम से लोगों के दिल के तार जोड़ने थे।बापू मीराबाई का एक भजन गाया करते थे _ कांचे तांतडे रे मने हरि जीये रे बांधी।जेम ताणे तेम तेमनी रे। एक कच्चा धागा है,उसमें मुझे बांधा है और यह इतना मजबूत है कि उसके बल पर भगवान मुझे खींचते हैं और मैं उससे खिंची चली जाती हूँ। मीराबाई कहती है- इसी कच्चे धागे के प्रेम रज्जू से सारे विश्व को खींच सकती हूं। यह भाव चरखे में निहित है।

बापू ने सारा जीवन चरखा काता। मरण के दिन भी चरखा कातकर गए। उनसे एक बार अदालत में पूंछा गया था कि आपका धंधा क्या है? तो उन्होंने कहा, कातना और बुनना।  उनकी इसी तेजस्वी पद्धति के कारण वे भारत की जनता से एकरूप हो सके।

चरखे के पीछे सर्वजन के साथ एकात्मता साधने की एक भावना है। लेकिन उसके पीछे एक अर्थव्यवस्था की दृष्टि भी रही है, जिसको मदद की जरूरत हो उसको मदद कैसे पहुंचाई जाए। इसकी खोज में से ही चरखा निकला।यह उनकी अदभुत प्रतिभा थी। वे  क्रांतदृष्टा थे। उन्हें उस पार का दर्शन होता था।इस दृष्टि से गांधीजी कवि थे।

तुकाराम ने कहा कि उद्धार में उधारी किसलिए?  एक आदमी डूब रहा हो और उससे कहें कि तुम्हें कल बचा लेंगे। क्या यह संभव है? उसका जैसा भी उद्धार करना हो वह अभी करना होगा । इसमें उधारी नहीं चलेगी। इसलिए बापू कहते थे कि जिसे मदद की जरूरत है उन्हें आज ही कुछ न कुछ काम मिलना चाहिए। बापू कहते ही थे कि चरखा चलाओ नहीं तो तकली चलाओ। 

इस तरह चरखे के पीछे बापू का एक समग्र दर्शन ही था। उसमें थोड़ी बहुत राहत पहुंचाने या सेवा करने की ही दृष्टि नहीं थी,बल्कि अपने देश की  परिस्थिति के अनुरूप नई अहिंसक अर्थ व्यवस्था के गठन की भी दृष्टि थी।

गांधीजी केवल ऊंचे विचारक ही नहीं थे, बल्कि जमीन पर रहकर विचार करनेवाले भी थे। हिंदुस्तान के  ग्रामजनों का, उनकी परिस्थिति और उनके स्वभाव का उन्हें सूक्ष्म अवलोकन था।  इसीलिए वे कहते थे कि मास प्रोडक्शन नहीं बल्कि प्रोडक्शन बॉय मासेस। अधिक हाथों द्वारा उत्पादन करना पड़ेगा। तभी गांव में उत्पादन बढ़ेगा। और गांव खड़े हो सकेंगे।

उनका यह मौलिक विचार था कि केवल खेती के भरोसे गांव नहीं टिक सकेंगे, अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की चीजें ग्रामों को खुद ही तैयार कर लेनी  चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि तिल बेचकर तेल खरीदा जाए, कपास बेचकर कपड़ा खरीदा जाए, गन्ना बेचकर गुड़ खरीदा जाए।जीवनोपयोगी चीजें गांव में ही बननी चाहिए। खेती की मदद के   लिए जितने संभव हो उद्योग शुरू किए जाएं। इसमें खादी भी एक उद्योग होगा।

स्वराज्य प्राप्ति से पहले खादी स्वराज्य की आकांक्षा की प्रतीक थी। वह आजादी का   गणवेश थी। बाबा।कहते थे कि वह ग्राम स्वराज्य का गणवेश बननी चाहिए। बापू भी कहते थे कि हमें ग्राम संस्कृति को।पुनः स्थापित करना है। खादी द्वारा ग्राम शक्ति खड़ी हो।

बापू की यह आशा अभी तक पूरी नहीं हुई। बापू को खादी की स्थिति देखकर अंतिम दिनों में         काफी  दुःख हुआ था। अंतिम जेल यात्रा से बाहर आने पर वे इस विषय पर चिंतन कर रहे थे कि हमें खादी का नव संस्करण करना पड़ेगा।

 बापू ने उपनिषद के मंत्र की तरह दो वाक्य कहे थे कातें  वे पहनें जो , पहनें वे कातें । जिस प्रकार गांव गांव अन्न का उत्पादन होता है, वैसे ही कपास से कपड़ा का उत्पादन होना चाहिए।

 आज दुनिया अन्याय, उत्पीड़न और शोषण से त्रस्त है।सत्ता के शिकंजे में उसकी सांस रुंधी जा रही है। युद्ध और  शस्त्रास्त्रों के अभिशाप से वह   पीड़ित है। विज्ञान की जो शक्ति उसे वरदान रूप बननी चाहिए थी वह आज शाप रूप बन गई है। क्योंकि विज्ञान सत्ता, सम्पत्ति और स्वार्थ के हाथों बिक गया है।

सर्वोदय विचार आज के युग की इस विभीषिका से मुक्त होने का उपाय बता रहा है। बापू ने ग्राम स्वराज्य का उद्घोष इसीलिए दिया था।उन्होंने कहा था कि भारत को अपना विकास यदि अहिंसा अर्थात  अशोषण और न्याय की दिशा में करना हो, तो बहुत सारी चीजों का विकेंद्रीकरण करना होगा। अहिंसक समाज रचना तो स्वाबलंबी और स्वाश्रयी ग्रामों के आधार पर ही खड़ी की जा सकती है।

 विकेंद्रीकरण और ग्राम स्वराज्य यह विचार मानव जाति के लिए बापू की अनोखी देन हैं। महात्मा गांधी एक व्यक्ति नहीं, लेकिन अहिंसा तत्व के प्रतीक थे।उनके मार्फत अहिंसक समाज रचना की एक अच्छी रूपरेखा मानव जाति को मिली है।

रमेश भैया 

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