मायावती की लखनऊ रैली : श्रद्धांजलि या राजनीतिक पुनरुत्थान की शुरुआत?
दलित राजनीति का नया दौर?
9 अक्टूबर को बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) प्रमुख मायावती लखनऊ में अपने राजनीतिक गुरु कांशीराम की जयंती पर विशाल रैली करने जा रही हैं।पार्टी इसे “श्रद्धांजलि सभा” कह रही है, लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों की नज़र में यह रैली उत्तर प्रदेश की राजनीति में बीएसपी के पुनरुत्थान की कोशिश मानी जा रही है।
बीते कुछ वर्षों में बीएसपी न केवल सत्ता से दूर रही है, बल्कि राजनीतिक हाशिए पर भी पहुंच गई है। ऐसे में यह रैली केवल परंपरा निभाने की औपचारिकता नहीं, बल्कि राजनीतिक अस्तित्व बचाने की चुनौती से जुड़ी हुई है।
बीएसपी का सफर : शिखर से गिरावट तक
1990 के दशक में कांशीराम और मायावती ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित स्वाभिमान और भागीदारी का जो आंदोलन खड़ा किया, उसने पारंपरिक जातीय राजनीति की धारा बदल दी।
2007 में मायावती ने ‘बहुजन से सर्वजन’ का नारा देकर अकेले बहुमत हासिल किया — यह दलित राजनीति की ऐतिहासिक उपलब्धि थी।
लेकिन 2007 के बाद पार्टी लगातार गिरावट की ओर बढ़ी:
बीएसपी की पिछले कुछ वर्षों की चुनावी यात्रा
- 2007: 206 सीटें, पूर्ण बहुमत।
- 2012: 80 सीटें।
- 2017: सिर्फ 19 सीटें।
- 2022: केवल 1 सीट ।
लोकसभा चुनावों में भी गिरावट साफ दिखती है
- 2019: समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में 10 सीटें।
- 2024: 0 सीटें, पर 9% वोट।
चुनाववर्ष | विधानसभासीटें | वोटप्रतिशत | लोकसभासीटें | टिप्पणी |
2007 | 206 | 30.43% | — | पूर्ण बहुमत |
2012 | 80 | 25.91% | — | सत्ता से बाहर |
2017 | 19 | 22.2% | — | भारी गिरावट |
2022 | 1 | 12.8% | — | लगभग समाप्त |
2019 (लोकसभा) | — | 19.4% | 10 (SP गठबंधन में) | आंशिक वापसी |
2024 (लोकसभा) | — | 9.3% | 0 | ऐतिहासिक न्यूनतम |
(स्रोत: चुनाव आयोग / मीडिया रिपोर्ट्स)
इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि बीएसपी का वोट शेयर तो अब भी दोहरेअंकों में है, लेकिन उसका सीट-कन्वर्ज़न (vote to seat conversion) लगभग समाप्त हो चुका है।
दलित वोट बैंक का बिखराव
बीएसपी की सबसे बड़ी ताक़त उसका संगठित दलित वोट बैंक रहा है — ख़ासकर जाटवसमुदाय में मायावती की छवि एक संरक्षक के रूप में रही है।
लेकिन पिछले एक दशक में यह वोट बैंक भी दरकने लगा है।सबसे बड़ा कारण यह है कि पार्टी के अनेक प्रमुख नेता मायावती का साथ छोड़ गये और मायावती ने अपने को बंगले के अंदर सीमित कर लिया है . वह केवल सोशल मीडिया पर बयान देती हैं.
भारतीय जनता पार्टी ने ‘सबकासाथ, सबकाविकास’ और ‘दलितसम्मान’ जैसे नारों के ज़रिए दलितों के बीच पैठ बनाई।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बीजेपी ने “जाटव के बाहर के दलित वर्गों” (जैसे पासी, वाल्मीकि, कोरी आदि) को अपने साथ जोड़ लिया है, जबकि मायावती का असर सीमित होता जा रहा है।
समाजवादी पार्टी ने भी सुनियोजित ढंग से दलित समुदाय में सेंध लगायी है.
दूसरी ओर, मुस्लिम और पिछड़ा वर्ग जो पहले बीएसपी के साथ जुड़ा था, अब समाजवादी पार्टी या कांग्रेस के साथ चला गया है।
यानी बीएसपी की “सर्वजन” रणनीति टूट चुकी है और “बहुजन” आधार कमजोर।
संगठन और नेतृत्व संकट
मायावती का नियंत्रण पार्टी पर पूरी तरह केंद्रीकृत है।उनके बाद स्पष्ट दूसरीपंक्तिकानेतृत्व नहीं दिखता।
कभी-कभी उनके भतीजे आकाश आनंद की भूमिका को लेकर चर्चा होती है, लेकिन उन्हें अचानक सक्रिय कर फिर ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
राजनीति में अब जबकि सामाजिकमीडिया, युवाओंकीभूमिकाऔरस्थानीयसंगठन की अहमियत बढ़ चुकी है,
बीएसपी पुराने “कमानसेआदेशऔरकैडरसेपालन” वाले ढांचे में फँसी दिखती है।
रैली का राजनीतिक सन्देश
मायावती इस रैली को “श्रद्धांजलि सभा” कह रही हैं, पर लखनऊ में इसका पैमाना और तैयारी राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन जैसी है।
पार्टी ने पिछले कई महीनों से कार्यकर्ताओं को जुटाना शुरू किया है।
इस रैली से संभावित संकेत ये हो सकते हैं —
- 2027 विधानसभा चुनाव की तैयारी की औपचारिक शुरुआत।
- “जनता का गठबंधन” के नाम से नया सामाजिक समीकरण पेश करना।
- दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्गों को जोड़ने का प्रयास।
- पार्टी के भीतर संगठनात्मक पुनर्गठन या नेतृत्व की नई झलक।
अगर मायावती इस मंच से कोई ठोस राजनीतिकघोषणा करती हैं — जैसे नई राज्य स्तरीय कमेटी, युवाओं की भागीदारी या सामाजिक न्याय पर नया एजेंडा — तो यह बीएसपी के लिए टर्निंग पॉइंट हो सकता है।
विपक्षी राजनीति पर असर
बीजेपी के लिए फिलहाल बीएसपी कोई सीधा ख़तरा नहीं है।लेकिन यदि मायावती का वोट शेयर दोबारा 15–20% तक जाता है, तो विपक्षी गठबंधन (INDIA Bloc) के लिए यह गंभीर चुनौती बन सकता है।
कई सीटों पर बीएसपी के वोट इतने निर्णायक होते हैं कि तीसरे स्थान की पार्टी भी नतीजा पलट सकती है — जैसा 2024 के कई लोकसभा क्षेत्रों में देखा गया।
यानी बीएसपी भले सत्ता से दूर हो, लेकिन विपक्षी समीकरण बदलने की ताक़त अब भी रखती है।
दलित राजनीति का नया दौर?
मायावती की लखनऊ रैली केवल श्रद्धांजलि का मंच नहीं, बल्कि यह सवाल भी उठाती है —
क्या बीएसपी फिर से सक्रिय, ज़मीनी और जनसंवादी राजनीति की ओर लौट पाएगी?
कांशीराम के शब्दों में — “जिस समाज को आप संगठित नहीं करते, वह आपके साथ नहीं रहता।”
अगर मायावती इस रैली के माध्यम से दलित समाज को एक बार फिर संगठित करने में सफल होती हैं, तो यह रैली वास्तव में राजनीतिकपुनर्जन्म साबित हो सकती है।
लेकिन अगर यह केवल प्रतीकात्मक आयोजन रह गया, तो यह बीएसपी के धीरे-धीरे राजनीतिक इतिहास में विलुप्त होने की शुरुआत भी मानी जा सकती है।