जातीय जनगणना पर राहुल ने मानी गलती : सामाजिक न्याय की राजनीति में नया मोड़
25 जुलाई, 2025 को दिल्ली में आयोजित भागीदारी न्याय सम्मेलन ने एक ऐतिहासिक राजनीतिक क्षण को जन्म दिया, जब राहुल गांधी ने खुले मंच से स्वीकार किया कि कांग्रेस शासन में जातीय जनगणना न कराना एक बड़ी भूल थी। यह बयान केवल एक आत्मस्वीकृति नहीं, बल्कि एक संभावित राजनीतिक पुनर्रचना की शुरुआत भी है—विशेषकर जब भारतीय राजनीति सामाजिक न्याय और भागीदारी की दिशा में पुनः केन्द्रित हो रही है।
🔶 जातीय जनगणना का महत्व:
1. सामाजिक न्याय की बुनियाद:
• भारत जैसे बहुजातीय देश में सटीक आंकड़े सामाजिक न्याय की योजनाओं की नींव हैं।
• बिना आंकड़ों के ‘अंधेरे में तीर चलाना’ होता है – न नीतियां कारगर बनती हैं, न आरक्षण पारदर्शी।
2. राजनीतिक प्रतिनिधित्व:
• पिछड़े वर्गों (OBC), अनुसूचित जातियों (SC) और जनजातियों (ST) को वास्तविक जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए जनगणना अनिवार्य है।
3. नीतिगत पारदर्शिता:
• वर्तमान में अधिकांश योजनाएं 1931 की जनगणना पर आधारित अनुमानित आंकड़ों पर चल रही हैं – जो आज अप्रासंगिक हो चुके हैं।
कांग्रेस के शासनकाल में जातीय जनगणना क्यों नहीं हुई?
1. राहुल गांधी की स्वीकारोक्ति:
• उन्होंने कहा: “मुझे इस बात का अफसोस है कि हम ओबीसी की समस्याएं और उनकी जनसंख्या का महत्व पहले नहीं समझ सके।यह मेरी भूल थी।”
2. संकोच और राजनीतिक दबाव:
• जातीय जनगणना हमेशा विवादास्पद रही, विशेष रूप से ऊंची जातियों की प्रतिक्रिया को लेकर।
• कांग्रेस ने अपने शासनकाल में इस पर गंभीर प्रयास नहीं किए, संभवतः सामाजिक तनाव की आशंका और राजनीतिक संतुलन के कारण।
3. ओबीसी समुदाय की उपेक्षा:
• लंबे समय तक कांग्रेस का ध्यान उदारीकरण और विकास केंद्रित नीतियों पर रहा, जिससे हाशिए के वर्गों को अपेक्षित प्राथमिकता नहीं मिली।
पिछड़े वर्गों की उपेक्षा की पड़ताल:
1. शिक्षा और रोजगार में असमानता:
• OBC के लिए 27% आरक्षण 1990 में लागू तो हुआ, लेकिन उपयुक्त आंकड़ों की अनुपस्थिति से उनका उचित लाभ नहीं मिला।
2. राजनीति में सीमित भागीदारी:
• संसद और विधानसभाओं में ओबीसी प्रतिनिधित्व अब भी जनसंख्या अनुपात से बहुत कम है।
3. आर्थिक बाधाएँ:
• नई उदारीकृत अर्थव्यवस्था में OBC समुदाय अब भी मुख्यधारा से बाहर है।
भागीदारी न्याय सम्मेलन और राजनीतिक संकेत:
1. ‘सामाजिक न्याय 2.0’ का एजेंडा:
• राहुल गांधी ने कहा कि तेलंगाना मॉडल की तर्ज पर कांग्रेस हर राज्य में जातीय जनगणना पर कार्यशालाएँ चलाएगी।
• यह “न्याययोद्धा” की नई राजनीतिक छवि का हिस्सा है, जो कांग्रेस को नए सामाजिक गठबंधन की तरफ ले जा सकती है।
2. राजनीतिक रणनीति या ईमानदार आत्ममंथन?
• सवाल उठता है कि यह बयान 2029 के आम चुनाव को ध्यान में रखकर दिया गया है या यह कांग्रेस की वैचारिक वापसी है?
जातीय जनगणना को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों की स्थिति:
कांग्रेस अब खुलकर समर्थन में; पहले निष्क्रियता रही
भाजपा बयानबाज़ी के बावजूद कोई ठोस पहल नहीं। इंडिया गठबंधन के दबाव पर सरकार ने जातीय गणना का आदेश जारी किया है, लेकिन उसमे भी अभी कई पेंच हैं।
सपा, राजद, जदयू वर्षों से जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं
तेलंगाना (BRS सरकार) जातीय जनगणना का सफल प्रयोग किया गया
🔶 भविष्य की राजनीति और सुधार की संभावनाएँ:
1. डेटा आधारित नीति निर्धारण:
• जातीय जनगणना से मिलने वाले आंकड़ों के आधार पर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार में सटीक लक्षित योजनाएं बनाई जा सकेंगी।
2. OBC सशक्तिकरण:
• कांग्रेस द्वारा ओबीसी नेताओं को नेतृत्व में लाना और हर राज्य में “न्यायपंचायतें” आयोजित करने की घोषणा एक दीर्घकालिक रणनीति बन सकती है।
3. नवयुवकों की भूमिका:
• युवा पीढ़ी के लिए जातीय जनगणना केवल आंकड़ा संग्रह नहीं, बल्कि समानता और भागीदारी की बुनियादी मांग है।
🔶 जनता की प्रतिक्रिया और आलोचनाएं:
• समर्थन:
• OBC संगठनों और सामाजिक न्याय के पक्षधर बुद्धिजीवियों ने इसे सकारात्मक कदम माना है।
• आलोचना:
• विपक्ष इसे “देर से जागने की कोशिश” और राजनीतिक मजबूरी करार दे रहा है।
• कुछ वर्गों को डर है कि इससे नवीन सामाजिक ध्रुवीकरण होगा।
🔶 निष्कर्ष:
राहुल गांधी का जातीय जनगणना पर दिया गया यह बयान भारतीय राजनीति में एक निर्णायक मोड़ हो सकता है। यह आत्ममंथन, स्वीकारोक्ति और नई रणनीति—तीनों का संगम है। अगर कांग्रेस इसे केवल चुनावी नारा नहीं बल्कि स्थायी एजेंडा बनाए, तो यह भारत के सामाजिक ताने बाने में गहरा प्रभाव छोड़ सकता है।
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