कार्यपालिका बनाम न्यायपालिका: क्या बढ़ता टकराव भारतीय लोकतंत्र के लिए ख़तरा है?
राम दत्त त्रिपाठी
भारत के लोकतंत्र में इन दिनों न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव की रेखाएं स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही हैं।
ताज़ा विवाद उस समय और गहरा गया जब सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसदों और स्वयं उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करते हुए संविधान के अनुच्छेद 142 के उपयोग को ‘न्यूक्लियर मिसाइल ’ कहा।

भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने सुप्रीम कोर्ट पर धार्मिक गृह युद्ध भड़काने का आरोप लगाया, जबकि राज्यसभा सांसद दिनेश शर्मा ने न्यायपालिका के अधिकारों को लेकर आपत्ति जताई। वहीं, उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा कि “कोई भी संस्था लोकसभा या राज्यसभा को निर्देशित नहीं कर सकती,” और अनुच्छेद 142 के विशेष उपयोग पर सवाल उठाया।
इन बयानों के पीछे एक व्यापक रणनीति की झलक मिलती है जिसमें न्यायपालिका पर दबाव बनाने का प्रयास किया जा रहा है।
इतिहास की छाया: न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका के पुराने संघर्ष
भारत के इतिहास में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव नई बात नहीं है:
• आपातकाल (1975-77) के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों को सीमित करने की कोशिश की।
• NJAC (National Judicial Appointments Commission) कानून लाकर मोदी सरकार ने न्यायाधीशों की नियुक्ति पर नियंत्रण पाने की कोशिश की, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक ठहराया।
• कई बार जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की नीतियों की आलोचना की — जैसे इलेक्टोरल बॉन्ड्स, वक़्फ़ बोर्ड, गृह तोड़फोड़ मामलों — तो इसे “जुडिशियल ओवररीच” कहकर खारिज किया गया।
संविधान और अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर दबाव?
कुछ आलोचकों का मानना है कि भाजपा और उसकी वैचारिक संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) संविधान की उस संरचना को बदलना चाहते हैं जो धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों को सुरक्षा और अधिकार देती है। सुप्रीम कोर्ट और संविधान, इस वैचारिक परियोजना — “हिंदू राष्ट्र” की कल्पना — में बाधक माने जा रहे हैं। इसलिए, न्यायपालिका पर दबाव बनाने की रणनीति सामने आ रही है।
न्यायपालिका की नियुक्तियों पर विवाद
सरकार लंबे समय से कोलेजियम प्रणाली को खत्म कर न्यायाधीशों की नियुक्ति में अपनी भूमिका चाहती है, जिसे सुप्रीम कोर्ट बार-बार अस्वीकार करता आया है। सरकार का तर्क पारदर्शिता है, लेकिन न्यायपालिका का मानना है कि इससे न्यायिक स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है।
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 50 में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखने की बात कही गई है, ताकि न्याय का निष्पक्ष प्रशासन सुनिश्चित हो सके। यह सिद्धांत मोंटेस्क्यू द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिसका उद्देश्य सत्ता के दुरुपयोग को रोकना और लोकतंत्र को मजबूत करना है ।
⚖️ न्यायपालिका बनाम कार्यपालिका: प्रमुख टकराव
भारत में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच कई बार टकराव देखने को मिला है, जिनमें से कुछ प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित हैं:
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मूल ढांचे को अपरिवर्तनीय घोषित किया, जिससे संसद की संशोधन शक्तियों पर सीमाएं निर्धारित हुईं।
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): इस निर्णय में न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन के मनमाने उपयोग को सीमित किया, जिससे कार्यपालिका की शक्तियों पर अंकुश लगा ।
- इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण (1975): इस मामले में न्यायपालिका ने विधायिका द्वारा न्यायिक निर्णयों को दरकिनार करने के प्रयासों को असंवैधानिक ठहराया।
🏛️ हालिया घटनाएँ और चिंताएँ
हाल ही में, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच की सीमाओं के धुंधले होने की घटनाएँ सामने आई हैं:
- प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश की धार्मिक समारोह में भागीदारी (2024): 11 सितंबर 2024 को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ के आवास पर गणपति पूजा में भाग लिया ।इस घटना ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर सवाल उठाए ।
- न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद राजनीतिक नियुक्तियाँ: पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा में नामित किया गया, जबकि न्यायमूर्ति अब्दुल नज़ीर को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया। इन नियुक्तियों ने न्यायपालिका की निष्पक्षता पर बहस को जन्म दिया।
🧭 निष्कर्ष
न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन बनाए रखना लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक है। संविधान द्वारा निर्धारित सीमाओं का सम्मान और शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का पालन ही एक स्वतंत्र और निष्पक्ष शासन व्यवस्था की आधारशिला है।
लोकतंत्र में तीनों स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—का संतुलन बेहद जरूरी है। न्यायपालिका को “सीमा लांघने” का आरोप लगाकर कमजोर करना न केवल संविधान का अपमान है, बल्कि नागरिकों के अधिकारों पर भी हमला है। सुप्रीम कोर्ट को दबाने या डराने के बजाय, सरकार को असहमति के लोकतांत्रिक साधनों का प्रयोग करना चाहिए।