अधिनायकवाद की शुरुआत नागरिकों की सहमति से होती है ?

इंदौर में अशनीर ग्रोवर की टिप्पणी पर बवाल

सत्ताओं के अधिनायकवाद की शुरुआत नागरिकों से ही होती है। नागरिकों की रगों में ही सबसे पहले तानाशाही प्रवृति के गुण भरे जाते हैं। वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक श्रवण गर्ग का विश्लेषण।

-श्रवण गर्ग

श्रवण गर्ग, राजनीतिक टीकाकार
श्रवण गर्ग, वरिष्ठ पत्रकार

मध्यप्रदेश का सबसे बड़ा शहर इंदौर एक बार फिर चर्चा में है। स्वच्छता के क्षेत्र में छह सालों से देश भर में पहले स्थान पर बने रहते हुए नाम कमाने वाला चालीस लाख की आबादी का शहर लगता है किसी नये प्रयोग की तलाश में है ! जो चल रहा है उसके ज़रिए कुछ प्रभावशाली लोग सांस्कृतिक तानाशाही को आमंत्रित करते नज़र आते हैं। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के साथ वैचारिक असहिष्णुता पर भी नागरिक स्वीकृति हासिल करने के प्रयास हो रहे हैं। बहुसंख्यवाद नई पहचान के रूप में स्थापित होता दिखता है और कोई चिंता भी नहीं व्यक्त कर रहा है । स्वतंत्रता के साथ विचार और असहमति व्यक्त करने की व्यक्तिगत आज़ादी पर सामूहिक नियंत्रण क़ाबिज़ होने जा रहा है !

‘भारत-पे’ के को-फाउंडर, मोटिवेशनल स्पीकर और चर्चित टीवी शो ‘शार्क टैंक’ का हिस्सा रहे अशनीर ग्रोवर पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित संस्था के आमंत्रण पर इंदौर यात्रा पर थे। संस्था के कार्यक्रम में किसी व्यक्ति ने पूछ लिया :’ आपने भोपाल की तो तारीफ़ की है ,हमसे (इंदौर से) क्या नाराज़गी है ?’ इस पर अशनीर ने जवाब दिया :’ तीन-चार साल से सुन रहा हूँ कि इंदौर सबसे साफ़ शहर है। तुम सबने सर्वे को ख़रीदा है। क्लीनेस्ट में सिर्फ़ चिप्स के पैकेट्स को ही नहीं मलबे को भी गिनते हैं।’ अशनीर के इतना बोलते ही शहर में बवाल मच गया। नगर निगम के कर्मचारियों ने अशनीर का पुतला फूंक दिया। खाने-पीने के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध स्थान ‘छप्पन दुकान’ के व्यापारियों ने अशनीर को बाज़ार में घुसने नहीं देने की घोषणा कर दी।

अशनीर ग्रोवर के ख़िलाफ़ नगर निगम और प्रदेश में सत्तारूढ़ दल के मेयर के निर्देश पर पुलिस थाने में अफ़वाह फैलाने तथा मानहानि करने संबंधी धाराओं के तहत एफ़आइआर दर्ज करा दी गई। बताया गया कि जिस संस्था ने अशनीर को आमंत्रित किया था उसने भी अपराध दर्ज करवाने के लिए आवेदन दे दिया। प्रदेश के गृह मंत्री ने भी कड़ी करवाई करने की चेतावनी दे डाली। एक पद्मश्री समाजसेवी ने प्रतिक्रिया दी कि ‘किसी बाहरी व्यक्ति को ऐसी टिप्पणी करने का अधिकार नहीं है।अशनीर का बयान शहर की शान के ख़िलाफ़ है।’ एक पूर्व मेयर ने कहा ‘अशनीर ने इंदौर का अपमान किया है जो ख़ुद एक फ्रॉड व्यक्ति है।’

अशनीर ने जो कुछ कहा उन्हें निश्चित ही नहीं कहना चाहिए था। शहर की स्वच्छता और उसके लिए प्राप्त अखिल भारतीय सम्मान पर अंगुली उठाकर उन्होंने नगर निगम के हज़ारों कर्मचारियों की वर्षों की मेहनत को संदेह के कठघरे में खड़ा कर दिया। विभिन्न राज्यों से ही नहीं बल्कि दुनियाभर से लोग स्वच्छता का प्रयोग को देखने इंदौर की यात्रा करते हैं।

यहाँ मुद्दा इंदौर की उपलब्धि पर अशनीर द्वारा कहे का समर्थन करने का नहीं है ! उनके कहे की निश्चित ही आलोचना की जाना चाहिए। यहाँ सवाल अशनीर के कहे को शहर के चालीस लाख लोगों की मानहानि बताते हुए उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई करने और इस तरह की पहल को शहर की हस्तियों द्वारा समर्थन प्रदान करने का है ।

अशनीर के आरोप का विनम्र तरीक़े से तर्कों के ज़रिए जवाब दिया जा सकता था जैसा कि प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में होता है। अशनीर देश की राजधानी में उस दुनिया को ही देखने के अभ्यस्त भी हो सकते हैं जहां बड़े-बड़े पुरस्कार ख़रीदे या सिफ़ारिशों से प्राप्त किए जाते हैं। उनके कहे पर इतनी आक्रामक प्रतिक्रिया की ज़रूरत ही नहीं थी।सिफ़ारिशों के आधार पर राष्ट्रीय पुरस्कारों के वितरण को लेकर लगने वाले आरोप तो सर्वव्यापी हैं। शहर की ही कुछ विभूतियाँ इस तरह के आरोप से अछूती नहीं रही हैं ?

शहर(और प्रदेश में भी )जिस तरह का घटनाक्रम निर्मित हो रहा है,अशनीर के बहाने नागरिकों के लिए भी चेतावनी हो सकता है कि असहमति की कोई भी आवाज़ बर्दाश्त नहीं की जाएगी। याद किया जा सकता है कि सत्तारूढ़ दल के एक प्रभावशाली नेता के बेटे की शिकायत के बाद जनवरी 2021 में गुजरात के प्रसिद्ध स्टैंड-अप कॉमेडियन मुनव्वर फ़ारूक़ी को चार अन्य लोगों के साथ (अपने कार्यक्रम में हिंदू देवी-देवताओं और एक केंद्रीय मंत्री के बारे में कथित तौर पर अशोभनीय टिप्पणी करने के आरोप में) गिरफ़्तार कर लिया गया था। मामला बाद में सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा था जहां से उन्हें उसी साल फ़रवरी में अंतरिम ज़मानत और अप्रैल में पूरी ज़मानत प्राप्त हुई थी।

इंदौर में पले-बढ़े अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के पेंटर एम एफ़ हुसैन की पीड़ा को दोहराने की ज़रूरत नहीं कि उनकी पेंटिंग्स पर प्रदेश की एक पत्रिका द्वारा प्रकाशित आलेख के बाद हिंदू देवी-देवताओं के कथित अपमान को मुद्दा बनाकर इतना बड़ा विवाद छेड़ दिया गया था कि 2006 में उन्हें देश ही छोड़ना पड़ा। अपनी मृत्यु (जून 2011) तक वे लंदन में ही रहे। कोरोना महामारी के दौरान तबलीगी जमातको लेकर उठे विवाद के बाद शहर में प्रकट हुई सांप्रदायिक असहिष्णुता का ज़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है।

एम एफ़ हुसैन, मुनव्वर फ़ारूक़ी, अशनीर ग्रोवर ये नाम तो सिर्फ़ इस बात की तरफ़ इशारा करने के लिए हैं कि लता मंगेशकर, महादेवी वर्मा, अमीर खाँ साहब , नारायण श्रीधर बेंद्रे, डी डी देवलालीकर , डी जे जोशी , कर्नल सी के नायडू , महादेवी वर्मा , कैप्टन मुश्ताक़अली, सी एस नायडू , मेजर जगदाले , विष्णु चिंचालकर, राहुल बारपुते , बाबा डिके , राजेंद्र माथुर , प्रभाष जोशी, शरद जोशी , रमेश बक्षी, डॉक्टर एस के मुखर्जी, डॉक्टर नंदलाल बोर्डिया, डॉक्टर सी एस राणावत , नाना साहब तराणेकर , गोकुलोत्सव जी महाराज, जेपी चौकसे और वेदप्रताप वैदिक आदि के शानदार शहर को किस दिशा में धकेला रहा है ? इंदौर से सटे देवास को जोड़ लें तो कुमार गंधर्व और वसुंधरा कोमकली, उज्जैन के पंडित सूर्यनारायण व्यास और डॉक्टर शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ और धार के शिल्पकार रघुनाथ कृष्ण फड़के।

अपुष्ट जानकारी के आधार पर एक प्रतिष्ठित मेहमान द्वारा कही गई ‘छोटी सी बात’ को चालीस लाख लोगों की मानहानि बताते हुए उत्तेजित हो जाना ठीक वैसा ही है जैसा शहर की सड़कों पर आए दिन हो रहा है। दो वाहनों के बीच मामूली टक्कर या किसी छोटी सी बात से उपजे अहंकार का टकराव हत्याओं में बदल रहा है। क्या नेता और ‘समाजसेवी’ ही लोगों को सिखा रहे हैं कि आपा खोने का कोई भी मौक़ा हाथ से नहीं जाने देना चाहिए ? मीडिया तो है ही साथ देने के लिये ?

सत्ताओं के अधिनायकवाद की शुरुआत नागरिकों से ही होती है। नागरिकों की रगों में ही सबसे पहले तानाशाही प्रवृति के गुण भरे जाते हैं। अच्छी बात यह है कि अपने कहे को लेकर अशनीर ग्रोवर ने शहर के नागरिकों से क्षमा याचना कर ली है और ‘राजनेताओं-समाजसेवियों’ को कह दिया है कि वे उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए स्वतंत्र हैं।

और अंत में : एमएफ़ हुसैन से लगाकर मुनव्वर फ़ारूक़ी और अशनीर ग्रोवर तक तमाम लोगों के ख़िलाफ़ ,जो संविधान-प्रदत्त आज़ादी से अपने ‘मन की बात ‘ कहना चाहते हैं ,कार्रवाई की माँग करने वाले शायद इस तरह की खबरों में अपने लिए समर्थन तलाश रहे हैं कि दुनिया के कई देशों में नागरिकों का लोकतंत्र से भरोसा उठ रहा है और वे तानाशाही वाले शासन के पक्ष में खड़े हो रहे हैं ! क्या इंदौर (और प्रदेश) को उसी दिशा में ले जाया जा रहा है ?

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