पर्यावरण विनाश के मूल में कंपनी और सरकार का भ्रष्टाचार
बड़ी कंपनियों और सरकारों का मिला जुला भ्रष्टाचार दुनिया के पर्यावरण को बर्बाद करने जानलेवा बीमारियों को जन्म दे रहा है। इस खेल को कौन उजागर करेगा?
वरिष्ठ पत्रकार राम दत्त त्रिपाठी की टिप्पणी
यह सर्वमान्य वैज्ञानिक तथ्य है कि प्रकृति के पॉंच तत्व – मिट्टी , जल , अग्नि , आकाश और वायु हमारे जीवन की रचना और उसकी पुष्टि करते हैं . इसलिए सहज बुद्धिमानी की बात है कि हम इनका संरक्षण करें न कि विनाश .
आम बोलचाल की भाषा में तुलसी कहते हैं …. पंच रचित यह अधम शरीरा और कबीर अपनी झीनी झीनी बीनी चदरिया को जतन से ओढ़कर जस का तस रख देने में सबसे अधिक संतुष्टि पाते हैं .
आम आदमी को तर्क से विज्ञान समझाना मुश्किल काम है. इसलिए इनके संरक्षण के लिए हमारे पुरखों ने इनमें देवत्व का निरूपण कर दिया या अपना माई बाप मान लिया. जैसे पृथ्वी को माता और स्वयं को उसका पुत्र और आकाश को पिता . इसीलिए पीपल , बरगद , तुलसी पूज्य हैं . गंगा नदी मॉं समान है. हमारे रीति रिवाजों में भी प्रकृति के लिए यही आदर भाव देखा जाता है.
त्यागपूर्वक भोग
हमारे धार्मिक / आध्यात्मिक ग्रंथों में संग्रह के बजाय त्याग पूर्वक उपभोग की बात कही गयी है. जब – जब समाज ने प्रकृति के विरुध्द जीवन शैली अपनायी – शहरीकरण हुआ, बड़े – बड़े साम्राज्य बने और मुनाफ़े के लिए अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा दिया तब – तब पृथ्वी और हमारे जीवन पर संकट आया.
आयुर्वेद के मशहूर ग्रंथ चरक संहिता की रचना इसी पृष्ठभूमि में हुई. जब बड़े- बड़े तपस्वी और संयमित दिनचर्या वाले लोग गंभीर रोगों का शिकार होने लगे तब हिमालय की तलहटी में एक सम्मेलन हुआ . भारत के अलावा चीन और यूनान तक के विद्वान आये और गहन मंथन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भयंकर प्रदूषण महामारी और रोगों का कारण है .
तब तय हुआ कि सबसे पहले ज़रूरी औषधीय वनस्पतियों और अनाज के बीजों का संरक्षण किया जाये . सादा जीवन और सदाचार पर ज़ोर दिया जाये.
भयंकर जलवायु प्रदूषण क्यों?
मगर विद्वान इतने से संतुष्ट नहीं हुए . सम्मेलन में प्रश्न उठा कि इतना भयंकर पर्यावरण प्रदूषण होता कैसे हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण महामारी से देश के देश उजड़ जायें . तब इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जब किसी देश , प्रांत या नगर निकाय के शासक भ्रष्ट होते हैं तो उनके अधीनस्थ अफ़सर – कर्मचारी गण और व्यापारी आपस में सॉंठगॉंठ करके काम करते हैं और फिर पर्यावरण प्रदूषण या जलवायु परिवर्तन से देश के देश उजड़ जाते हैं.
ऐसे ही शासन सत्ता के सहयोग से भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी आयी और उसकी जड़ें जमी. जब इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति हुई तो टेक्नॉलॉजी के दम पर ब्रिटेन को पूरी दुनिया का शोषण करने और पर्यावरण का नाश करने की ताक़त मिल गयी.
कोयला , पेट्रोल, लकड़ी और खनिज पदार्थ धीरे – धीरे कंपनियों के साम्राज्य विस्तार का साधन बन गये .
मोहन दास करमचंद गॉंधी को यह बात बहुत जल्दी समझ में आ गयी थी कि ब्रिटेन की असली ताक़त और उद्देश्य टेक्नोलॉजी और पूँजी के बल पर दुनिया में व्यापार करके मुनाफ़ा कमाना है और इस लालच से हमारा पर्यावरण भी बर्बाद होगा.
इसलिए वह खादी, ग्रामोद्योग और ग्राम स्वराज यानि विकेंद्रीकरण की बात करते हैं . वह प्रकृति से कम से कम लेने और स्वेच्छा से ग़रीबी स्वीकार करने की बात करते हैं . साबरमती आश्रम और सेवाग्राम कुटी जीवंत उदाहरण हैं. वह अहिंसक , शोषण मुक्त और न्याय पर आधारित समाज की बात करते हैं .
विकसित देशों का खेल
विकसित देशों को यह बात जल्दी ही समझ में आ गयी थी कि रासायनिक उर्वरकों की खेती और उद्योगों से उनके देश का पर्यावरण और जलवायु ख़राब होगा . इसलिए वह पूँजी और टेक्नोलॉजी अपने हाथ में नियंत्रित करते हुए दूसरे देशों को अपनी फ़ैक्ट्री बनाने का दॉंव खेलते हैं . इससे मिट्टी, पानी , हवा और आकाश उन देशों का ख़राब होगा मुनाफ़ा विकसित देशों की कंपनियों को मिलेगा. विकसित देशों में यही बड़ी कंपनियाँ वहॉं की राजनीति को फ़ंडिंग के ज़रिए कंट्रोल करती हैं.
कंपनियों को वैसे भी लोकतंत्र पसंद नहीं , क्योंकि लोकतंत्र में संसद , अदालत या मीडिया कोई भी सवाल पूछ सकता है, जिसका जवाब सरकार को देना पड़ जाता है.
1978 में चीन पर निक्सन का दॉंव चल जाता है , भारत में तब तक गॉंधी के अनुयायी प्रभावी थे . इसलिए उदारीकरण तब नहीं हो पाया।
विकसित देशों ने विश्व बैंक , विश्व व्यापार संगठन आदि ऐसे अनेक संगठन और फ़ोरम बनाये जिनका काम विकसित देशों की सरकारों और जनता को झाँसे में लेकर कंपनियों की नयी टेक्नोलॉजी और माल बेंचना होता है . साथ ही इन देशों की प्राकृतिक सम्पदा जल , जंगल , ज़मीन, आकाश और हवा आदि की नीलामी बोली लगाकर कंपनियों के हवाले करना होता है.
इसे आर्थिक उदारीकरण का नाम दिया गया . शहरीकरण और औद्योगीकरण इनके मुख्य कार्यक्रम हैं जिसमें कंपनियों का काम आसान करने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर पर ज़ोर दिया जाता है. जैसे अंग्रेजों ने देश में रेलवे का नेटवर्क बनाया था अपने व्यापार के लिए।
इस व्यवस्था में शिक्षा और चिकित्सा भी कंपनियों के हवाले हो जाती है ताकि इस उपभोगवादी नयी इकॉनॉमी के लिए जरूरी लोग तैयार हों .
इस खेल में न केवल राजनीतिक नेता , नौकरशाही बल्कि कुछ जज भी शामिल होते हैं छोटे – मोटे फ़ायदे के लिए . परिवार वालों को मोटे वेतन पर नौकरी और दूसरे फ़ायदे मिल जाते हैं।
नॉलेज एकोनोमी का मतलब
अब चौथी औद्योगिक क्रांति के दौर में जिसे नालेज एकोनॉमी कहा जा रहा है , उसका मतलब है उत्पादन और वितरण से मनुष्य को बाहर करके सब काम रोबोटिक मशीनों से करवाना . इसमें मशीनों केवल , सड़क , पुल और इमारतें बनाने का काम अपने हाथ में नहीं लिया बल्कि डाक्टरों , पत्रकारों का काम भी रोबोट करने लगे हैं.
लोगों को झाँसे में रखने और मुँह बंद रखने के लिए न्यूनतम इनकम गारंटी या ग़रीबों को राशन , गैस , मकान , पेंशन और अन्य छोटे- मोटे फ़ायदे दिलाने की नीतियॉं बनती है.
लोगों को धोखे में रखने के लिए जलवायु परिवर्तन पर समय – समय पर सम्मेलन होते हैं . जैसा अभी हाल ही में मिस्र में हुआ. उनमें भी ज़ोर पर्यावरण की रक्षा के बजाय प्रभावित लोगों को छोटी मोटी राहत देना होता है.
चुनाव चंदे के चलते राजनीतिक दल कंपनियों के चंगुल में हैं और संसद कमजोर है . जो प्रखर सामाजिक कार्यकर्ता हैं उनकी धार कुंद करने के लिए एनजीओ को सीएसआर फंड दे दिया जाता है.,कारपोरेट मीडिया इस दुश्चक्र को उजागर करने का काम कर नहीं सकता . जाने अनजाने अदालतें भी इस खेल को रोक नहीं पा रही हैं . वैसे भी नीतियाँ बनाना अदालतों का काम नहीं।
इस व्यापक धोखाधड़ी से जनता को जागरूक और संगठित कौन करेगा? जब तक आम लोगों को यह खेल समझ में आयेगा , तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और करोड़ों लोग कोरोना , कैंसर , हार्ट , लंग्स , किडनी , लीवर और जाने कितनी जानी अनजानी महामारी या बाढ़ , सूखा सुनामी और बढ़ती गर्मी जैसी प्राकृतिक आपदा से दम तोड़ चुके होंगे . समुद्र तल बढ़ने से कई देशों का नामोनिशान भी मिट जायेगा.