हिमालय बचाओ अर्थात् जय तिब्बत! जय भारत! जय जगत!
प्रो आनंद कुमार
हिमालय पर्वतमाला भारत, चीन और तिब्बत के बीच आध्यात्मिक, व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंधों की आधारभूमि है. इसे भारत, तिब्बत और चीन के बीच मैत्री और सहयोग का शांति क्षेत्र बनाना चाहिए. यह भारतीय चिंतन की ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ दृष्टि के अनुकूल होगा. तीनों की संस्कृति में बुद्ध की शिक्षा की सुगंध है. इससे एशिया की विश्व में भूमिका बढ़ेगी और दुनिया में शांति का युग शुरू होगा.लेकिन 1949 में तिब्बत में चीनी सेना के प्रवेश, पाकिस्तान के कब्ज़े के कश्मीरी भाग में १९६३ से चीन द्वारा सामरिक महत्त्व के निर्माण और 1962 में चीन द्वारा भारत पर हमला करने के बाद क्रमश: चीन, भारत और पाकिस्तान ने परमाणु अस्त्रों की क्षमता विकसित कर ली और आज यह दुनिया का सबसे तनावग्रस्त क्षेत्र बन गया है. दुनिया के अन्य शक्तिशाली देश इस तनाव के बढ़ने में अपना हित मान बैठे हैं.
चीन का विस्तारवाद
चीन की सैन्य शक्ति और विस्तारवाद से पैदा हिमालय की असुरक्षा के कारण तिब्बत का राष्ट्रीय अस्तित्व खत्म हो गया है. भारत की उत्तरी सरहदें बेहद असुरक्षित हैं. चीन ने हिन्द महासागर को भी भारत की घेरेबंदी के लिए इस्तेमाल कर लिया है. इसमें श्रीलंका में हम्बंतोता बंदरगाह, और पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह का बनाना और म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव्स, तंज़ानिया और सोमालिया में संसाधन लगाकर भारत के लिए समुद्री असुरक्षा पैदा करने में जुटा है.
भारत चीन के साथ अपनी कुल सीमा की लम्बाई ३,४८८ किलोमीटर से लेकर ४,०५७ किलोमीटर तक मानता है. भारत का आरोप है कि चीन ने कश्मीर में उसकी कुल ४३,१८० वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्ज़ा कर रखा है. जिसमें चीन-पाकिस्तान समझौते के अंतर्गत ली गयी ५,१८० वर्ग किलोमीटर जमीन भी है. जबकि चीन इसे सिर्फ २,००० किलोमीटर लंबा मानता है क्योंकि यह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से जुड़े क्षेत्र के बारे में भारतीय शिकायत को अनुचित समझता है. उलटे चीन का आरोप है कि अरुणाचल प्रदेश के रूप में भारत ने चीन की ९०,००० वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्ज़ा कर रखा है.. उसके लिए सिर्फ अरुणाचल प्रदेश में, न कि अक्साई चीन, कश्मीर और लद्दाख में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद है! लद्दाख, जम्मू और कश्मीर (पश्चिमी सेक्टर), हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड (केन्द्रीय सेक्टर) तथा सिक्किम व् अरुणाचल प्रदेश (पूर्वी सेक्टर) में चीनी सेना और भारतीय सेनायें आमने-सामने खड़ी हैं.
यह परिस्थिति पूरी दुनिया के लिए गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि चीन और भारत दोनों के पास परमाणु हथियारों का संग्रह और सैनिक तैयारी पर खर्च बढ़ता जा रहा है. एक अनुमान के अनुसार चीन और भारत द्वारा सेना और सुरक्षा पर खर्च का २०१० में २.५ और १ अनुपात था. यह २०१९ में बढ़कर ३.७ और १ का हो गया. २०१८ में चीन ने सुरक्षा के लिए २२५ अरब डालर की राशि खर्च की और भारत का यह खर्च ५५ अरब डालर का था.
भारत – तिब्बत – चीन के संबंधों का इतिहास
चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे के पहले मध्य एशिया में इसके तीन प्रधान मार्ग थे – बामियान और बैक्ट्रिया; कशगार के रास्ते तारिम घाटी से; और कश्मीर, गिलगित और यासीन के जरिये पामीर पठार से. बाद के दिनों में तिब्बत के जरिये भी एक मार्ग विकसित हुआ जो इस्लाम के विस्तार से मध्य एशिया के रास्तों के बाधित होने के बाद भी उपयोगी बना रहा. भारत और चीन के बीच प्रशांत महासागर के जलमार्गों से भी संपर्क रहा जिससे दक्षिण चीन और दक्षिण भारत के प्रमुख व्यापार केन्द्रों के बीच चोला साम्राज्य (कांचीपुरम) से लेकर श्रीविजय साम्राज्य के ७०० बरसों तक आदान-प्रदान हुआ करता था. इस सम्बन्ध ने मलाया, सुमात्रा और जावा समेत हिन्द महासागर और प्रशांत महासागर की संस्कृतियों को विकसित होने में मदद की. जापान, कोरिया और मंगोलिया भी इस प्रक्रिया से प्रभावित हुए.
लेकिन १४९८ में पुर्तगालियों के गोवा पर कब्जे के बाद के ४०० बरसों में भारत और चीन के बीच के समुद्री संपर्क सिर्फ यूरोपीय शक्तियों के माध्यम से बनाए गए.
ईसापूर्व ५०० से शुरू सहअस्तित्व का सिलसिला २,५०० बरसों तक निर्बाध बना रहा. इसमें भारत से बौद्धधर्म के प्रचार-प्रसार की प्रमुख भूमिका थी. चौथी और पांचवी शताब्दी में भारत से बौद्ध आचार्यों और भिक्षुओं की दूसरी लहर के चीन पहुँचने के ऐतिहासिक विवरण इसके साक्ष्य हैं. भारत से कुमारजीव और बोधिधर्म और चीन से फा ह्यान और हुयेन चुवांग इस दौर के विख्यात नाम हैं जिन्होंने इन दोनों महान संस्कृतियों के परस्पर परिचय को गहरा किया. चीन में बौद्ध धर्म की महायान परम्परा के प्रचार का २,००० बरसों का इतिहास उपलब्ध है. इसमें भारतीय प्रभाव और बौद्ध धर्म के खिलाफ प्रतिक्रियाओं के ४४६, ५७४, ८४५ और ९५५ ईस्वी के चार दौर भी शामिल हैं. दसवीं शताब्दी के बाद भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव घटने लगा. उसके आगे की दो शताब्दियों में दोनों देशों के बीच के व्यापारिक संबंधों में भी कमी आ गयी. भारत में इस्लाम के प्रवेश और १२ वीं शताब्दी से बढ़ते राजनीतिक प्रभुत्व का भी प्रतिकूल असर रहा. लेकिन १८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के १५० बरस के पश्चिमी देशों के साम्राज्यवाद के हस्तक्षेप से इस क्षेत्र में विवाद और तनाव का बीजारोपण हुआ.
तिब्बत की कहानी
तिब्बत में बौद्ध धर्म का सातवीं शताब्दी में भारत से आगमन हुआ. इस धार्मिक संपर्क को सांस्कृतिक और व्यापारिक बल मिला. यही भारत-तिब्बत संबंधों की आधारशिला बना और आज भी दलाई लामा समेत तिब्बती समुदाय के स्त्री-पुरुष को अपने तिब्बती होने और बौद्ध होने पर समान गर्व है. तिब्बत की अस्मिता बौद्ध धर्म की ‘नालंदा परम्परा’ पर आधारित है. चीन-तिब्बत संबंधों में इसकी तुलना लायक कोई तथ्य नहीं है. तेरहवीं शताब्दी में चीन और तिब्बत दोनों पर मंगोलों का कब्ज़ा था. १४वीन शताब्दी में मिंग सम्राट मंगोल के उत्तराधिकारी बने और उन्होंने तिब्बत के साथ कोई छेडछाड नहीं की और दलाई लामा को सम्मान दिया. पांचवे दलाई लामा नवांग लोबसांग ग्यात्सो (१६१७-१६८२) के शासन काल से तिब्बत और चीन परस्पर सम्मान के साथ सहस्तित्व को निभाते रहे. १८वीं शताब्दी में क्यिंग साम्राज्य के दौरान चीन का तिब्बत के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और रक्षा पर नियंत्रण हो गया लेकिन आतंरिक मामलों में कोई भूमिका नहीं थी. १९ वीं शताब्दी में क्यिंग साम्राज्य खुद ही बिखराव का शिकार हो गया इसलिए तिब्बत से उसका सम्बन्ध कागजों में ही सीमित रहा. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी तिब्बत के विशेष दर्जे, दलाई लामा के अधिकारों और तिब्बती की राजनीतिक व्यवस्था के शुरूआती दौर में कोई छेड़छाड़ नहीं की थी. इसका प्रमाण मई १९५१ का १७ सूत्रीय समझौता था.
लेकिन १९५९ के विद्रोह के बाद ‘तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र’ (तिब्बत ऑटोनोमस रीजन/ टार) का गठन किया गया. भारत इस नए स्वरुप को इस आशा से मान्यता देता आया है कि इससे तिब्बत की स्वायत्तता का वैधानिक आधार बचाया जा सकेगा.
दलाई लामा ने भी ‘मध्यम मार्ग’ का सूत्र प्रतिपादित किया है जिसमें तिब्बत की स्वतंत्रता की मांग नहीं है. सिर्फ ‘वास्तविक स्वायत्तता’ का आग्रह है. इस सूत्र के आधार पर १९७९ और २००२ के बीच दलाई लामा के प्रतिनिधियों और चीन सरकार के बीच अनेकों मुलाकातें हुईं. क्योंकि माओ के देहांत और सांस्कृतिक क्रान्ति की वफलता के बाद सत्तासीन हुए देंग सिओपिंग और हु याओबांग चीन की तिब्बत नीति में सुधार चाहते थे. इसके फलस्वरूप दलाई लामा के एक प्रतिनिधि ने के बीच तिब्बती प्रतिनिधियों और चीनी शासन के बीच दस बार २००२ में तिब्बत की यात्रा भी की. इससे आगे २००३ और २०१० संवाद हुआ. लेकिन २००८ आर २०१० के बीच तिब्बत में आत्मदाह और प्रतिरोध की घटनाओं की बारंबारता के कारण बात रुक गयी. एक स्त्रोत के अनुसार दलाईलामा ने २०१४ में चीन के सर्वोच्च नेता शी जिनपिंग की भारत यात्रा के दौरान मुलाकात करके बात करने की कोशिश की. लेकिन भारत सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी (देखें: सोनिया सिंह (२०१९) डीफाईनिंग इण्डिया थ्रू देएर आईज (गुडगाँव, पेंगुइन इण्डिया)? इस प्रक्रिया को २०१५ में चीन के नए नायक शी जिनपिंग के निर्देश पर एक ‘श्वेतपत्र’ प्रकाशित करके दलाई लामा पर चीन को तोड़ने की साज़िश में शामिल होने का आरोप लगाकर समाप्त कर दिया गया.
वैसे भारत ने १९५९ से आजतक तिब्बती प्रवासियों के पुनर्वास प्रक्रिया में प्रशंसनीय सहयोग किया है. इसीलिए आज तिब्बती साधकों ने भारत में धर्मशाला को एक वैकल्पिक प्रशासन केंद्र के रूप में बना लिया है. इसके चारो प्रमुख सम्प्रदायों – गेलुप, कर्ग्यु, निग्मा और साक्या के प्रमुख भारत में ही हैं. दलाई लामा के प्रशासन ने २२५ मठ और ३०,००० तिब्बती भिक्षुओं की मदद से भारत को तिब्बती बौद्ध धारा का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र बनाने में सफलता पायी है. फलस्वरूप आज भी सभी तिब्बती सहज ही भारत को अपना ‘गुरु’ और चीन को आततायी मानते हैं. वैसे भी चीन को लगातार दो बड़े भय सताते हैं: एक, दलाई लामा का ‘मध्यम मार्ग’ सूत्र वस्तुत: चीन से तिब्बत को अलग करने के सपने को मजबूत करेगा. दूसरे, पाकिस्तान से अलग हुए बांग्लादेश की तरह भारत रूस और अमरीका की मदद से तिब्बत को चीन के कब्ज़े से निकलकर एक स्वतंत्र देश बनने में सहायता कर सकता है (देखें: जॉन डब्ल्यू. गर्वर (२०१६) चाइना’ज क्वेस्ट: द हिस्ट्री ऑफ़ फोरें रिलेशंस ऑफ़ द पीपुल्स रिपुब्लिक ऑफ़ चाइना (न्यूयार्क, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस), पृष्ठ ३१३-१४.
दूसरी तरफ, तिब्बत – चीन संबंधों में कुबलाई खान (१२७१), मिंग साम्राज्य (१४वीं शताब्दी का उत्तरार्ध), अल्तन खान (१५७८), क्विंग साम्राज्य (१६४४) और सम्राट कांग्सी (१७२०) के हस्तक्षेपों की भूमिका का महत्व है. नौवें दलाई लामा का १७२० में चीनी सम्राट की मदद से तिब्बत का राजनीतिक प्रमुख तिब्बत और चीन के संबंधों की कथा में बनना एक निर्णायक मोड़ रहा क्योंकि इसके बाद के सभी दलाई लामा के पदारोहण में चीन के शासक की सहमति की परम्परा बन गयी. तिब्बत पर चीन के स्वामित्व के दावे के समर्थक बताते हैं कि ब्रिटेन ने चीन के साथ १८९० के एक समझौते में और ब्रिटेन और रूस ने १९०७ में एक दस्तावेज पर दस्तखत करके तिब्बत पर चीन की ‘संप्रभुता’ (सूज़ेरेंटी) को मान्यता दी थी. ब्रिटिश राज से मुक्ति के बावजूद भारत की तिब्बत नीति या हिमालय नीति में कोई बदलाव नहीं आया. कांग्रेस की सरकार की जगह जनता पार्टी की सरकार बनी. १९९९ में भारतीय जनता पार्टी के नेत्रित्व में श्री अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार आयी. २०१४ से राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार का दूसरा दौर चल रहा है. लेकिन भारत की तिब्बत नीति १९५४ से अब तक हमेशा चीन के वर्चस्व को स्वीकारती आयी है. कभी ‘पंचशील’, कभी ‘कैलाश मानसरोवर यात्रा’ और कभी ‘सिक्किम का भारत में विलय’! सिर्फ १९६६ में भारत ने तिब्बत के सवाल पर संयुक्त राष्ट्रसंघ में चर्चा के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया. अन्यथा हम तटस्थ रहते आये हैं. चीनी दावेदारों के अनुसार ‘सूज़ेरेंटी’ का अर्थ चीनी संप्रभुता के अंतर्गत तिब्बती स्वायत्तता’ है. इसलिए तिब्बत की आज़ादी का सवाल ही नहीं उठता है. फिर भारत की हिमालय नीति और तिब्बत नीति के बारे में इन दावेदारों की तरफ से दो प्रश्न किये जाते हैं – १) क्या इतिहास में तिब्बत कभी स्वतंत्र देश था? और २) क्या तिब्बत निकट भविष्य में एक टिकाऊ स्वतंत्र राष्ट्र बन सकता है? (देखें: सुब्रह्मण्यम स्वामी (२०२०) हिमालयन चैलेन्ज (नयी दिल्ली, रूपा) पृष्ठ २३)
पहले तिब्बत की आज़ादी का सवाल देखा जाए. १९११ में तेरहवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा की थी. तबसे १९४९ में चीनी सेना के हस्तक्षेप तक ४० बरस तिब्बत एक स्वतंत्र राष्ट्र था. तिब्बत की अपनी मुद्रा, डाक टिकट और यात्रा-प्रवेश के लिए वीसा की व्यवस्था चीन में कम्युनिस्ट क्रान्ति होने तक अस्तित्व में थे. लेकिन १९५० से तिब्बत की आज़ादी चीनी राष्ट्रवाद के निशाने पर आ गयी. चीन में कम्युनिष्ट क्रांति के बाद चेयरमैन माओ ने जनवरी, १९५० में तिब्बत से पत्र लिखकर धमकानेवाली भाषा में मांग की कि ‘तिब्बत को अपनी मातृभूमि से पुन: एकजुट होने’ का निर्णय करना चाहिए. इसके १० महीने बाद माओ ने अक्तूबर, १९५० में चीनी सेना को तिब्बत पर चढ़ाई के लिए आदेश दिया और चीन की सेना ने ल्हासा के पूर्वी इलाके में चामदो पर कब्ज़ा कर लिया.
इस खुले ‘चीनी विस्तारवाद’ से चिंतित होकर भारत के उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल ने ७ नवम्बर १९५० को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु को एक आठ-सूत्रीय पत्र लिखा और चीन द्वारा तिब्बत पर कब्ज़े के बाद भारत-तिब्बत की सीमांकन के लिए स्वीकारी गयी ‘मैकमहोन रेखा’ सम्बन्धी नीति को भी इनकारने की आशंका प्रकट की गयी. प्रधानमंत्री श्री नेहरु ने उत्तर में १८ नवम्बर को पत्र लिखा. इसमें तीन बातें महत्वपूर्ण थीं : क) भारत तिब्बत की कोई मदद नहीं कर सकता. २) ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमरीका या कोई भी अन्य देश तिब्बत की मदद की बजाए चीन को बदनाम करने में जादा दिलचस्पी रखते हैं. और ३) ‘चीन से भारत की सीमाओं को ख़तरा एक बेबुनियाद आशंका है’. (देखें; गोपाल, एस. (सम्पादक) सरदार पटेल’स करेस्पोंदेंस, खंड ८ (१९७३)(अहमदाबाद) पृष्ठ ३३५-३४७
इसके बाद सरदार पटेल की १५ दिसम्बर १९५० को मृत्यु हो गयी और २३ मई, १९५१ को चीन की कम्युनिष्ट सरकार ने फौजी दबाव में एक १७ सूत्रीय ‘समझौते’ के जरिये तिब्बत का चीन में ‘विलय’ घोषित कर दिया. इस कदम को मजबूती देने के लिए चीनी सेना ने २६ अक्तूबर १९५१ को ल्हासा में प्रवेश करके तिब्बत को अपने अधीन कर लिया. तिब्बत की रक्षा के अपने प्रयासों के लिए विश्व-समर्थन जुटाने के लिए परमपावन दलाई लामा ने १९५९ में अपने हजारो अनुयायियों के साथ भारत में शरण लेने का साहसिक निर्णय किया. दलाई लामा और उनके अनुयायियों के ३१ मार्च १९५९ को भारत सीमा में प्रवेश करने पर सरकार और जनता ने उनका पूर्ण सम्मान के साथ स्वागत किया. तबसे आजतक दलाई लामा और सभी तिब्बती भारत के सम्मानित अतिथि हैं और तिब्बत की मुक्ति साधना जारी है (देखें; दलाई लामा (१९९८) फ्रीडम इन एक्जाईल (लन्दन, अबेकस).
भारत में तिब्बत के प्रश्न पर लोकमत
भारत की सरकारी कमजोरी के बावजूद भारत में तिब्बत पर चीनी कब्जे को हमेशा निंदनीय माना गया. समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने इसे ‘शिशुहत्या’ कहा और चीन पर तिब्बत को कम्युनिष्ट चीन का उपनिवेश बनाने और नेहरु सरकार पर इस पापपूर्ण कार्यवाही की अनदेखी का आरोप लगाया. उन्होंने भाषा, लिपि, नदियों के बहाव, तीर्थों की ऐतिहासिकता और अंतर्राष्ट्रीय संधियों के आधार पर तिब्बत की स्वतंत्रता के दावे की पुष्टि की. लोहिया ने देशभर में ‘हिमालय बचाओ सम्मेलन’ का आयोजन करके ‘हिमालय नीति’ के लिए जनमत निर्माण भी किया. डा. बाबासाहब भीमराव आम्बेडकर देश की संसद में तिब्बत की सहायता की मांग की. तिब्बत के प्रश्न को डा. राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य कृपालानी, लाल बहादुर शास्त्री, मुहम्मद करीम छागला, डा. रघुवीर से लेकर चौधरी चरण सिंह, रबि राय, मधु लिमये, निर्मला देशपांडे और जार्ज फर्नांडीज का समर्थन मिला. तिब्बत की आज़ादी और दलाई लामा की मदद के लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने १९५९ में कलकत्ता में एक अफ़्रीकी- एशियाई सम्मेलन आयोजन करके दलाई लामा की मदद का अंतरराष्ट्रीय अभियान शुरू किया और जे. पी. की प्रेरणा से अनेकों संगठन और मंच ‘तिब्बत बचाओ’ के प्रयासों से जुड़े. डा. आंबेडकर के अनुयायियों में भी तिब्बत के प्रति प्रबल समर्थन है. सरकार से जुड़े होने के बावजूद राष्ट्रवादी संगठनों की भी तिब्बत के साथ हुए अन्याय को लेकर स्पष्ट सहानुभूति है.
अभी भी एक स्वाधीन अथवा स्वायत्त राष्ट्र के रूप में तिब्बत के पुन: स्थापित होने की संभावना के बारे में शंका के तीन कारण हैं : १) तिब्बत पर सैनिक कब्जे के बाद चीन ने इसका अंग-भंग करके मूल तिब्बत देश के सीमावर्ती हिस्सों को पडोसी प्रदेशों में मिला दिया है. तिब्बती भाषा की जगह चीनी भाषा लादी जा चुकी है. चीन से बड़ी तायदाद में आबादी का स्थानान्तरण करके तिब्बत में तिब्बती अल्पसंख्यक बनाए जा चुके हैं. इसलिए तिब्बत देश का अब अस्तित्व ही नहीं बचा है. २) क्या चीन इसके लिए तैयार होगा? फिर वह सिंझियंग (‘नया प्रदेश’) अर्थात पूर्वी तुर्किस्तान के मुस्लिम बहुल उघ्युर स्त्री-पुरुषों को कैसे रख पायेगा? मंगोलिया के बड़े हिस्से पर कायम कब्जे को भी छोड़ना पडेगा. वस्तुत: मौजूदा चीन का दो तिहाई भौगोलिक क्षेत्र (तिब्बत, शिनजियांग और आतंरिक मंगोलिया) चीनी कम्युनिष्ट क्रांति के विस्तारवाद का परिणाम है. और ३) चीन और भारत जैसे दो महादेशों के बीच तिब्बत अंतरराष्ट्रीय ताकतों के दांवपेंच का हमेशा के लिए शिकार बन जाएगा. उसकी स्वायत्तता चीन के लिए असुविधाजानक रहेगी और भारत भी लद्दाख से लेकर सिक्किम, भूटान, नेपाल और अरुणाचल में रहनेवाले बौद्धों के बीच तिब्बत से सांस्कृतिक निकटता को लेकर सशंकित रहेगा. अमरीका, ब्रिटेन और यूरोपीय महासंघ भी तिब्बत की मजबूरियों का फायदा उठाएंगे.
तिब्बत पर चीनी सेनाओं के १९४९-’५९ के बीच कब्जे से ‘हिमालय बचाओ’ की पुकार शुरू हुई. तिब्बत में १९५९ में विद्रोह और परम पावन दलाई लामा द्वारा अपने ६०,००० से अधिक अनुयायी स्त्री-पुरुषों द्वारा भारत में शरण लेने से कम्युनिष्ट क्रांति से पैदा हुए चीनी राष्ट्रवाद का खूंखार चेहरा बेपर्दा हुआ. फिर १९६२ में चीन द्वारा भारत के हिमालय क्षेत्र में हमले से सारी दुनिया में चीनी विस्तारवाद का खतरनाक सच सामने आया. यूरोप और अमरीका ने इसे कम्युनिस्ट शक्ति का विस्तार माना. एशिया-अफ्रीका के नव-स्वाधीन देशों में चिंता हुई. सोवियत संघ तक इससे अचंभित हुआ.
भारत की तिब्बत-चीन नीति की असफलता
फिर भी हमारी हिमालय – तिब्बत – चीन नीति नेहरु से लेकर नरेंद्र मोदी तक लगातार असफल रही है. इसके तीन कारण हैं: एक, भारत और चीन के बीच संवाद में तिब्बत की अनुपस्थिति है. जबकि हिमालय की रक्षा का रास्ता तिब्बत की मदद से ही बनाया जा सकता है. तिब्बत की आज़ादी ही भारत की सुरक्षा की सबसे टिकाऊ बुनियाद है. बिना तिब्बत के प्रश्न को केंद्र में रखे भारत और चीन के बीच परस्पर अविश्वास बना रहेगा.
दूसरे, भारत चीन के सामने आत्म-समर्पण की मुद्रा में रहा करता है. नेहरु-राज में पंचशील का बेढंगा समझौता इसका उदाहरण था जिसमें तिब्बत में फ़ैल रहे चीनी साम्राज्य का कोई जिक्र नहीं था और सिर्फ ८ बरस की अवधि रखी गयी थी. इंदिरा गांधी ने अपने लम्बे कार्यकाल में पाकिस्तान, बांगलादेश, असम और खालिस्तान के प्रश्नों के मुकाबले तिब्बत के प्रश्न को जस-का-तस रखा. १९८८ में श्री राजीव गांधी प्रधानमन्त्री के रूप में चीनी नेताओं से जाकर मिले और ‘सीमा विवाद’ और तिब्बत प्रश्न पर चीनी नेताओं के दृष्टिकोण के प्रवक्ता बनकर लौटे. चंद्रशेखर के संक्षिप्त प्रधानमंत्रित्व काल में वाणिज्य मंत्री सुब्रमनियन स्वामी ने १९९१ में भारत – चीन व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करके आर्थिक सहयोग में बड़ी बढ़ोतरी को संभव बनाया. पी. वी. नरसिम्हा राव का कार्यकाल १९९३ और १९९६ के दो समझौतों के कारण विशेष सफलता का दौर रहा.
चीन से वाजपेयी समझौता
श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी २००३ में चीन के साथ एक समझौता किया. इस समझौते में भारत ने तिब्बत को चीन का ‘अभिन्न अंग’ माना और बदले में चीन ने सिक्किम के १९७६ में हुए विलय को मान्यता दी. लेकिन इस समझौते के बारे में भारतीय जनता पार्टी के संसद सदस्य डा. सुब्रमनियन स्वामी का कहना है कि इससे भारत के आत्मसम्मान को गहरी ठेस लगी और चीन को तिब्बत के चार टुकड़े करने की छूट मिल गयी (देखें: सुब्रमनियन स्वामी (२०२०), पृष्ठ ११६). वह इस सन्दर्भ में प्रधानमंत्री वाजपेयी द्वारा भारत द्वारा परमाणु विस्फोट के बाद १२ मई १९९८ को अमरीका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को लिखे एक गोपनीय पत्र को भी भारत और चीन के रिश्तों में नयी समस्याओं के लिए जिम्मेदार मानते हैं. इस पत्र ने नरसिम्हा राव के कार्यकाल में १९९३ और १९९६ में हुए महत्वपूर्ण समझौतों को निरर्थक बना दिया. (देखें: वही, पृष्ठ ११०-११४)
मोदी की अनदेखी
इधर नरेंद्र मोदी राज में सीमा विवाद और भारत की भूमि पर कश्मीर से लेकर लद्दाख और अरुणाचल तक चीनी कब्ज़े की अनदेखी करते हुए भारतीय बाजार को खोलकर आर्थिक समर्पण किया गया. चीन आज भारत का सबसे बड़ा व्यापारी सहयोगी है और ‘ब्रिक्स’ जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों में रूस, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका के साथ परस्पर सहयोगी हैं. लेकिन भारत ने चीन की ‘एक बेल्ट, एक सड़क’ (‘वन बेल्ट, वन रोड’) योजना से अपने को अलग रखा है क्योंकि चीन इस योजना में पाकिस्तान के कब्जे के कश्मीरी क्षेत्र को भी शामिल करना चाहता है. इससे चीन नाखुश हुआ है. यह नाखुशी २०२० के मध्य में लद्दाख में सैनिक टकराहट के रूप में और नुकसानदेह हो चुकी है.
क्या हमारे नीति निर्माता इतिहास से कोई भी सबक सीखने में अक्षम हैं? नेहरु राज ने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा लगाया. चीन के प्रधान मंत्री चाऊ एन लाई का तीन बार दौरा कराया गया – १९५४, १९५६ और १९६० में. इसके बदले में चीन ने हमें युद्धभूमि में घसीटते हुए पराजित किया और लद्दाख के अक्साई चिन क्षेत्र पर दिन-दहाड़े कब्ज़ा बनाये रखा. इधर नरेंद्र मोदी राज में २०१४ और २०२० के ६ बरस में १८ बार गले लगाने का प्रयास हुआ. लेकिन चीन सरकार की तरफ से १९९३, १९९६, २००५, २०१२ और २०१३ में किये गए समझौतों का उल्लंघन किया गया है. भूटान के दोक्लाम से लेकर लद्दाख के ९०० किलोमीटर लम्बी सीमा के पांच क्षेत्रों – देप्संग, गलवान, पांगोंग त्सो, कुगरांग घाटी और चर्डिंग नाला (देमचोक) में ५०,००० चीनी सैनिकों की तैनाती से सैनिक दबाव बनाया गया. लद्दाख क्षेत्र को अक्साई चिन से अलग करने वाले १,००० वर्ग किलोमीटर भूमि पर नया कब्ज़ा कर लिया है (देखें: विजयिता सिंह – ‘चाइना कंट्रोल्स १,००० वर्ग किलोमीटर ऑफ़ एरिया इन लद्दाख’, द हिन्दू ३१ अगस्त २०२०). अब १५ जून २०२० से ही भारत चीन, पाकिस्तान और नेपाल की साझी रणनीति से परेशान है.
तीसरे, किन्ही रहस्यमय कारणों से हमारी सैनिक शक्ति चीन के सामने कागज़ी शेर बना दी जाती है. सिर्फ १९८६ में हमने इससे अलग कार्यवाही की थी जिससे चीन पीछे हटा भी था. जबकि चीन द्वारा वियतनाम में विस्तार करने की कोशिश का कम सैनिक बल के बावजूद भरपूर जवाब मिला. नेहरु काल में २१ अक्तूबर १९५९ को लद्दाख के कोंग्का ला में भारतीय सेना की टुकड़ी पर घात लगाकर चीनियों ने हमारे १० सैनिकों की ह्त्या की और १० को बंदी बनाया. तीन साल बाद १९६२ में हमला करके भारत को ‘कडा सबक’ भी सिखाया. ६३ साल बाद १५ जून २०२० को उसी क्षेत्र में गलवान नदी के निकट फिर वैसी ही वारदात की गयी है. इसमें भारतीय कमांडिंग अफसर समेत २० भारतीय सैनिक शहीद हो गए. चीन के ४ सैनिक मरे.
इसके बाद से अबतक परस्पर विरोधी वक्तव्यों के कारण देश में हिमालय में चीन की घुसपैठ के बारे में अस्पष्टता का माहौल बन गया है. इससे ‘हिमालय बचाओ’ को नयी प्रासंगिकता मिली है. तिब्बत की आज़ादी के बिना भारत की सुरक्षा के अधूरेपन का सच सामने आया है. इस बिंदु पर डा. सुब्रमन्यन स्वामी की तरफ से उठाये गए चार सवालों को दुहराना अप्रासंगिक नहीं होगा क्योंकि यह देश की सरहदों की सुरक्षा का मामला है. इसमें सच ही हमारी सुरक्षा का एकमात्र आधार होगा. एक, क्या चीनी सैनिकों ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पार करके हमारी ज़मीन पर कब्ज़ा किया था? यदि नहीं तो १५ जून २०२० को हमारे २० जवानों और अफसरों की चीनी सेना के जवानों के साथ झगड़े में कहाँ ह्त्या की गयी? दूसरे, क्या चीनी सेना अभी भारत की जमीन पर बने हुए हैं? तीसरे, इस समय दोनों पक्षों के बीच ‘परस्पर दूरी बनाने के लिए’ (दिसइंगेज्मेंट) चल रही वार्ता का भारतीय ज़मीन से वापस जाने से अलग क्या उद्देश्य है ? और चौथा प्रश्न यह है कि यदि चीन ने भारत की ज़मीन खाली करके पूर्ववत स्थिति नहीं बनने दी तो नयी दिल्ली इसके लिए क्या उपाय करेगी? (देखें: सुब्रमनियन स्वामी (२०२०) पृष्ठ १२२-३
जय तिब्बत, जय भारत, जय जगत
वस्तुत: यह स्वीकारने का समय आ गया है कि हिमालय की रक्षा की चुनौती के सन्दर्भ में सरदार पटेल की चीन के तिब्बत को कब्जे में लेने को लेकर १९५० में लिखी चिट्ठी का सच लगातार हमारे सामने आता जा रहा है. इसी क्रम में लोहिया की ‘तिब्बत बचाओ, हिमालय बचाओ’ की पुकार की अनसुनी करना भारत को महंगा पड़ चुका है. इसलिए जयप्रकाश द्वारा तिब्बत की मदद के लिए भारत में जनमत निर्माण और अफ्रिका और एशिया के देशों को एकजुट करना पहले से ज्यादा प्रासंगिक है.
इसलिए भारत-तिब्बत मैत्री संघ, अन्य तिब्बत समर्थक संगठनों और व्यक्तियों के लिए ‘जय तिब्बत! जय भारत! जय जगत!’ में अपनी आस्था को दुहराते हुए तिब्बत मुक्ति साधना में भरपूर सहयोग की नयी जरूरत आ गयी है.
हम भारतीयों के ऊपर हिमालय बचाने के साथ ही हिन्द महासागर बचाने का भी जिम्मा आ गया है. तिब्बत के मुक्ति साधकों ने अनेकों कठिनाइयों के बावजूद १९५९ से २०२२ के बीच की लम्बी अवधि में दुनिया के हर महाद्वीप में अपनी पीड़ा का सच फैला दिया है. इसी के समांतर दलाई लामा भारत के प्रति अपनी श्रद्धा और आभार प्रकट करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते. आइये, हम भी भारत – तिब्बत मैत्री के परचम को देश के हर जिले में फहराएं. हर देशभक्त स्त्री-पुरुष को, विशेषकर विद्यार्थियों-युवजनों-भूतपूर्व सैनिकों को इस अभियान से जोड़ें. जब देश की सुरक्षा खतरे में हो तो राजनीतिक मतभेदों को पीछे छोड़कर राष्ट्रीय एकता के बलपर आगे बढ़ना ही नागरिक धर्म है.
जय भारत! जय तिब्बत! जय जगत!