सूरज की पहली किरन का बीता हुआ दिन
सात पलों में सिमटी जिन्दगी
1.
पकौड़े
वो थोड़ी चौंकी। आज वो इतना पहले आ गया था । कभी-कभी ही वो नौ बजे रात से पहले आता था । वो भी अधिकांश कुछ खाकर और थोड़े सरूर में । पर यही चौकने की बात नहीं थी । वो पकौड़े भी साथ लेकर आया था, पनीर के ।
और उसने धीरे से उसकी उंगलियों को छुआ। स्पर्श कभी-कभी ही उम्र की और यादों की लम्बी यात्रा में इतने जीवन्त होते है कि अनायास कौंध जाए । वो इस स्पर्श और पकौडों को पहचानती थी ।
लगभग 25 वर्ष पहले वो उसे इन पकौडों की दुकान पर ले गया था, शादी के तुरन्त बाद दिल्ली पहुँचने के तीसरे दिन । दुकान वाले ने पकौड़े के चार टुकड़े किये और फिर से तल दिया था । उसे खाने में संकोच हो रहा था । पर वो पकोड़े का एक टुकड़ा धनिये की चटनी में डुबोकर उसे खिलाना चाहता था । वो उसे मना करना चाह रही थी। उसने उस समय उसकी अगुंलियों को छुआ था । यह वही स्पर्श था । पकौड़े और चटनी के साथ नयी नवेली झिझकती दुल्हन का स्पर्श ।
उसकी आँखों मे शरारत झलक रही थी । वो करीने से मेज़ पर प्लेटों में पकोड़े के छोटे-छोटे टुकडों को सजा रहा था । और उसका इन्तजार कर रहा था शायद वो आज फिर उसे चटनी के साथ खिलाना चाहता था । वो जानबूझ कर रसोई में चली गयी । उसे ऐसा लग रहा था कि उसकी उम्र 20 साल कम हो गयी है ।
वो कई बार उस पकौड़े की दुकान पर बाद में भी गयी।पर कभी भी वो स्वाद नहीं आया।दरअसल पकोड़े में कभी स्वाद था ही नहीं. किसी भी चीज में जिन्दगी को जोड़ने से ही स्वाद आता है।पकोड़े चटनी, उम्र और स्पर्श मिलकर एक ऐसा स्वाद बनाते हैं, जो कभी भी दुहराया नहीं जा सकता।
वो जिंदगी की टाइम मशीन में 20 साल पीछे आ गयी थी।वो उस पल को फिर से उसी तन्मयता से जीना चाहती थी । उसने झांक कर देखा वो मेज पर पकोड़े सजाये उसका बेसब्री से इन्तजार कर रहा था ।
2.
रेगिस्तान में सावन
आज वो फिर पहले आ गया था । अक्सर शनिवार को वो रात दस बजे से पहले नहीं आता था । आज उसके पास सिनेमा की टिकटें थी । उसका मन नहीं था, पर इतने दिनों बाद और उसका उतावलापन, वो मना नही कर पायी और न चाहते हुए भी उसने उससे पूछा ।
“ इतने दिनों बाद सिनेमा ले जा रहे हो तो बताओ क्या पहनूँ ?”
वो वार्डरोब से साड़ियाँ छाँटने लगा । उसमें गाढ़े लाल रंग की साड़ी चुनी । वो चौकी, वो वही साड़ी थी, बीस वर्ष पुरानी जो उसने तब पहनी थी जब वो पहली बार सिनेमा गये थे ।“ तुम समझते हो मेरा शरीर अब भी बीस वर्ष पुराना है इसकी ब्लाउज अब आयेगी मुझे ?”
“ब्लाउज कोई भी पहन लो पर साड़ी यही पहनो “ उसने जिद की थी ।
वो नीचे उतरे । उसने उसके लिये दरवाजा खोला । वो फिर चौकी उसे चुटकुला याद आया कि यदि कोई पति पत्नी के लिये गाड़ी का दरवाजा खोले तो, या तो पत्नी नयी है या फिर गाड़ी। वो सोचने लगी नया क्या है ? फिर उसने सिर झटका अब जब सावन आया है तो झीनी-झीनी फुहारों का मजा लेना चाहिये । वह क्यों सोचे कि सावन क्यों आया या कब आया ।
वो मल्टीप्लेक्स पहुँच गये।बेसमेन्ट में गाड़ी खड़ी थी और लिफ्ट की ओर बढ़ गये।हाल चौथी मंजिल पर था।लिफ्ट में वो दोनों अकेले थे।
उसने आतुरता से उसे अपनी ओर खींचा।वो उससे चिपक गयी।किशोर प्रेमियों की तरह वो यही सोचती र ही कि काश चौथी मंजिल कभी न आये।
ओर सच में चौथी मंजिल कभी नही आयी।उसे पता ही नहीं लगा कि कब वो हाल में पहुँचे, कैसी थी फिल्म और कैसा था डिनर।वो लिफ्ट में फंसी रह गयी।सावन बरसता रहा।आसमान से गिरती बूँदे उसके पौर- पौर में समाती रही।उसकी आत्मिक आँखें बन्द थी । वो एक-एक बूंद के गिरने को महसूस कर रही थी। उसके आघात को पहचान रही थी ,समय थम गया था, कजरी के सुर उसके कानों में गूँज रहे थे । उसका पिया कलकतिया वापस आ गया था । वो सावन की बूँदे थी । वर्षों बाद आया था सावन उसके रेगिस्तान में।
3.
अभिनय
आज लगातार तीसरा दिन था । वो समय से पहले आ गया था । वो भी आज पहले आ गयी थी। वो सीधा रसोईघर में पहुँचा । वो उसका इरादा समझ गयी। वो हँसी
“पचास के पार पहुँच गये हैं हम ।“
वो भी हसाँ । पर हसी में खनक नहीं थी । उसे उसकी हँसी अजीव लगी । उसकी चिर परिचित गर्वीर्ली ‘मर्द को दर्द नहीं होता‘ वाली हंसी नहीं थी । वो श्रीराम सेन्टर के दो टिकट लेकर आया था। आज नाटक देखने चलना था ।
अब वो चौकी । सब कुछ एकदम अस्वाभाविक । कही कुछ सहज नहीं था। उसने पूछा
“आफिस में सब ठीक है ?”
“ मैं अब आफिस की चिन्ता नहीं करता, कुछ साल ही बचे हैं रिटायर होने में । तुम तैयार हो जाओ, बाहर चलेंगे । नाटक तो तुम्हें पहले से पसन्द हैं ।
वो भी अभिनय में रूचि रखता था । पहले नाटकों में काम कर चुका था। यदि लगातार तीसरे दिन वो उसके पसन्द का ध्यान नहीं रखता तो उसे चिन्ता नहीं होती । पर लगातार ऐसा होना सहज नहीं था। वो चुपके से उसके कमरे में खिसक गयी । उसने उसका बैग टटोला । उसमें ढेर सारे टेस्ट की रिपोर्ट और डाक्टर की पर्चियाँ थी । एक पर्ची आज की ही थी । उसने काँपते हाथों से डाक्टर का नम्बर मिलाया ।
“ मैं मिसेज पंत बोल रही हूँ । “ वो डाक्टर को जानती थी।
“ हाँ बताइये ”
” पंत साहब को हुआ क्या है ?“
“ उन्होंने ने आपको नहीं बताया ”
“ बताया, पर मैं पूरी बात समझना चाहती हूँ “ वो झूठ बोली।
“ उन्हें कोलन कैन्सर है, अंतिम स्टेज पर, तुरन्त आपरेशन करना होगा।
“ कितना समय बचा है ?“
“ कुछ हफ्ते. यदि आपरेशन नहीं हुआ तो “ ।
उसका शरीर काँप रहा था । उसने फोन रख दिया । तो हुज़ूर , सिगरेट छोड़ना चाहते हैं और उसके लिये सारी सिगरेट एक ही दिन में पीना चाहते हैं। वो डर गयी । वो अब जीना नहीं चाहता था । उसकी उपेक्षा का वो पश्चाताप कर रहा था । उसे अपनी बची खुची जिन्दगी में सारे सुख देने के बहाने ।
उसके आँखों में आँसू आ गये । वो बीस वर्षों से, बिना थियेटर गये, सुखी नारी का अभिनय कर रही थी और वो आज तक भाँप नहीं पाया । नाटक में मझे कलाकार को जब वास्तविक जिन्दगी में अभिनय करना पड़ा तो वो तीन दिन भी नहीं कर पाया ।
उसनेआँसू पोंछे । उसे नाटक देखने जाते हुए फिर से साबित करना था कि वो बेहतर अभिनेत्री है।
4.
वे दोनों
वो सोचती रही डाक्टर ने कहा था उसके बचने की सम्भावना कम है । शायद 10 प्रतिशत । ओर बच भी गया तो जीवन भर दवाइयों पर निर्भरता, कई अतिरिक्त सावधानियां, कई आपरेशन और कभी भी कुछ हो जाने का भय। वो भी जानती थी । दोनों, बिना एक दूसरे को बताये, डर गये थे। जितना समय बचा था उसे गवाँना नहीं चाहते थे । उसने जो-जो सोचा था और वो उसे नहीं दे पाया था, वो सब देना चाहता था । वो भी ऐसा ही कर रही थी, सारे गिले शिकवे भूल कर । काल चक्र एक हो गया था । वो एकात्म हो गये थे । ऐसे ही जैसे एक दूसरे के लिये ही जी रहे हो । उनकी निजता विलीन हो रही थी । उनको अब एक दूसरे को कुछ भी बताने के लिये कुछ भी कहना नहीं पड़ता । सब कुछ असहज होते हुए , सहज हो गया था ।
वो सोचती रही.उसके मन की सारी कड़वाहट कहां चली गयी. क्या उसे उस पर तरस आ रहा था. उसकी प्रबल इच्छा थी कि वो भी उसे वैसे ही तड़पाये जैसे इतने दिनों तक वो उसे तड़पाता रहा.
इतने दिनों तक चाहे अनचाहे साथ-साथ चलने से वो उसकी आदतों में शामिल हो गया था । उसका मन नही मान रहा था कि वो इस तरह जुदा हो । एक अबूझ सा बंधन था उनके बीच जो उसे अब महसूस हो रहा था, जब वो शायद टूटने वाला था । उसने पतवार नदी मे छोड़ दी, वो भी तो देखे की पागल नाव हवाओं के साथ किनारों से कैसे टकराती हैं ।
समर्पित प्रेमियों का पल बेहद मोहक एवं मादक होता है।गूँगे के स्वाद तरह, स्वाती के बूँदों की तरह, फागुन की हवाओं की तरह । जीवन की क्षण भंगुरता से बहुत दूर, क्षितिज की सीमाओं से परे, शायद कविताओं तरह बहुआयामी । वो टुकडों – टुकडों में बटी जिंदगी को संपूर्ण करने की शाश्वत प्रक्रिया में तल्लीन थे । शायद पति-पत्नी, शायद रूठे हुए दोस्त या सिर्फ वो दोनों।
5
बंधन
वो आपरेशन के लिये बिल्कुल तैयार नहीं था । डाक्टरों ने चेतावनी दे रखी थी कि बिना आपरेशन के अधिकतम एक महीना । उसके बाद कैन्सर इतना फैल जायेगा कि आपरेशन के बाद भी बचने की सम्भावना बहुत कम हो जायेगी।
वो सोच रही थी ऐसे में क्या किया जाये।ऐसा व्यक्ति जो जीना ही नहीं चाहता कैसे ओर क्यों जीना चाहेगा।आखिर लोग जीना क्यों चाहते है? कुछ पाने के लिये–पर जो सब कुछ पा चुका है? कुछ खोने के लिये–पर जिसके पास कुछ खोने को ही न हो तो।पर वो क्यों जीना चाहती है।बच्चे बड़े हो गये, पति जीना नहीं चाहता।पर वो जीना चाहती है, पति के लिये, पुराने दोस्त के लिये।वो उसके दुखों को बाँटना चाहती है। पर क्या दुखों का बाँटने के लिये जिया जा सकता है ? पीड़ा का अपना अलग स्वाद होता हैं । जब दूसरे की पीड़ा अपनी पीड़ा हो जाए तो उसका स्वाद और बढ जाता हैं । क्या वो उसकी पीड़ा समझ पायेगा ? या उससे अपनी पीड़ा और कष्ट बांटना चाहेगा ? प्रश्न बड़े थे, पर जैसा की हमेशा होता है, बड़े प्रश्नों के उत्तर हमेशा आसान होते है।
जीना एक बंधन है, मोह पाश ।प्यार की रस्सियों की पकड़ बहुत मजबूत होती है।जीना एक कमजोरी है।उसे सिर्फ उसके जीने की कमजोरी टूटनी हैं।उसमें सोचा वो रातों की कहीं भी रहे पर सुबह तो हमेशा उसके पास ही रहा है।अंधेरा हमेशा छंट जाता है, महत्वपूर्ण है उजाला, ।उजाले की प्रतीक्षा चाहे कितनी भी लम्बी हो उजाला होने पर वह अप्रासंगिक हो जाती है और फिर बेटे से भी तो लम्बी लम्बी बातें कर रहा था वो इन दिनों।
उसने निर्णय ले लिया।बेटेसे बात करेगी।वह उसे दो दिनों से लाल साड़ी पहना रहा है।वो भी तो देखें लाल साड़ी में कितना जादू बचा है।उसने वो साड़ी निकाली जो उसको सबसे प्रिय थी।वो आईने के सामने खड़ी हो गयी अब तक की सबसे बड़ी परीक्षा की तैयारी करने।
6
प्रेम
उसका आपरेशन हो चुका था । कैन्सर से प्रभावित आंत के हिस्से निकाले जा चुके थे । वो आई सी यू में था । वो आई तो नर्स ने बताया कि डाक्टर उससे मिलना चाहते हैं । वो सीधे डाक्टर के कमरे में भागी । डाक्टर थोड़ा निराश था। उसने बताया कि दवायें असर नहीं कर रही है। पेशेंट का शरीर सहयोग नहीं कर रहा है । अब वो ही उनकी अंतिम आशा थी । उसे उन्होंने मरीज से बात करने की सलाह दी ।
वो आईसीयू में गयी।वो मशीनों के जाल में उलझा था।पर वो जग रहा था।वो उसके पास बैठ गयी।उसने उसका हाथ धीरे से छुआ और अपने हाथों में ले लिया।वो धीरे से बोला।
‘ यार अब में जीना नहीं चाहता”
‘क्यों “
“ मैं अपनी पुरानी जिन्दगी में कभी वापस नहीं लौट सकता । हमेशा थैली लटकी रहेगी । शरीर से दुर्गन्ध आती रहेगी ।“
“ पहली बात कि तुम्हें दुर्गन्ध की आदत पड़ जायेगी । और मुझे सुगन्ध या दुर्गन्ध से कोई फर्क नहीं पड़ता । मुझे तो सिर्फ तुम चाहिये, कैसे भी किसी भी हालत मे ।“
“दूसरी बात” उसने पूछा । वो इस परेशानी में भी मुस्कराई । “तुम्हारा मरना भी मेरे लिये घाटे का सौदा नहीं है । मुझे मोटी पेंशन मिलेगी । तुम्हारे सारे बैंक बैलेन्स, सम्पत्ति और अधिकार मेरे होगे, बिना तुम्हारे नियन्त्रण के । पर एक बात पूछना चाहती हूँ ?”
“पूछो”
‘ क्या तुम्हे थोड़ा सा भी ऐसा लगता है कि तुमने मुझे वो सब नहीं दिया जो मुझे मिलना चाहिए था । तुम्हारा स्पर्श , तुम्हारा समय, तुम्हारा सुख-दुःख और समूचे तुम । और अब जब इस बीमारी के समय ही सही, ये सब मुझे मिल रहा है तो वो भी तुम छीन लेना चाहते हो।“
वो चुप रहा । उसने चुप चाप पलके झुका ली । पर वो बोलती रही ।
“ क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जीने के इस खेल में हम पाली बदल ले। तुम ठीक हो जाओ, घर पर रहो, मेरा दिन भर इन्तजार करो । मैं शाम को आऊं तो अपने देर से आने पर पछताऊँ । तुम्हें बेतहासा प्यार करूँ । और फिर साथ बैठे। पेडों के आगे पीछे घूमते हीरों हीरोइनों की बाते करें । चाय पीये और ऐसी ही बहुत कुछ जिसका मैं वर्षों से इंतजार कर रही हूँ ।“
उनके बीच मौन पसर गया । कभी–कभी ही ऐसे भी पल आते हैं कि दूर से आयी जिन्दगी की आवाज सुनने के लिये सारी इन्द्रियाँ कानों मे सिमट जाती है । दूर से आती आवाज धीमी होती है पर जैसे-जैसे कानों की प्यास बढ़ती है वो तेज एवं स्पष्ट होने लगती है।
बिस्तर पर लेटे लेटे उसके आँसू छलक पड़े । वो चुपचाप बैठी रही उसने आँसू पोंछने का प्रयास नहीं किया । वो महसूस कर रही थी कि उसके हाथ लुन्ज – पुन्ज नही रहे । वो उसका हाथ दबा रहा था। उसने कहा।
“तुम चिन्ता मत करो । मैंने निर्णय ले लिया है । मैं अब जिन्दा रहूँगा । सिर्फ तुम्हारे लिये । तुम्हारे साथ दूसरी पाली खेलने के लिये । तुम निश्चित होकर जाओ । इस लड़ाई में मैं तुम्हे हारने नहीं दूँगा ।“
उसने आँखें बन्द कर ली । वो बाहर निकल आई । वो रोना नही चाहती थी । पर प्रेम पर किसी का बस चला है कभी ?
7.
गान्धारी
कैन्सर के आपरेशन में छोटी आँत का एक हिस्सा निकाल दिया गया था, फिर छोटे- मोटे कई और आपरेशन। आँतों को बचाने के लिये ढेर सारा परहेज । बार-बार जीवन की डोर उससे छूटने लगती थी पर वो फिर से उसे पकड़ता और सहेजता । वो भी उसके साथ थी । उसकी पीड़ा में शामिल । शारीरिक पीड़ा से दूसरे की पीड़ा ओढ़ना अधिक कष्टकर होता है । जब पीड़ा को विभक्त करना, कौन अपनी और कौन पराई, मुश्किल हो तो पीड़ा समय और शरीर की सीमाएँ लाँघ जाती है ।
पिछले तीन महीने से उसे कोई बड़ी समस्या नहीं आयी।तो उसने कहा “ यार कही घूम आते है थोड़ा चेन्ज हो जायेगा । “ वो खुद चाहती थी कि यह बीमार-बीमार सी हवा बदलें । वो निकल पड़े पहाडों की ओर ।जगह पुरानी थी पर इस बार वो नई नई सी लग रही थी .
शाम को भोजन के लिये साथ बैठे। उसने कहाँ “ आज मैं तुम्हारे लिये आर्डर करूँ ? “ वो मुस्कराई “करो” । उसने मैंन्यू कार्ड उठाया।
“ पहले सीक कबाब और फिर अफगानी चिकन, यहाँ बहुत अच्छा बनता है ट्राई करो ।
“ तुम क्या खाओगे। तुम्हारे लायक कुछ मिलेगा ? “
“पहले तुम ट्राई करो फिर मैं देखता हूँ “
उसने सीक कबाब, अफगानी चिकन और सादी दही का आर्डर लिया। सीक कबाब आ गया था । वो उसे बता रहा था “ देखो ये ठीक सिंका है, अंदर से जूसी एवं बाहर कुरकुरा ”सचमुच वो बड़ा स्वादिष्ट था । वो दही में हल्का सा नमक डाल कर धीरे धीरे खा रहा था । बीच-बीच में उसे बता रहा था कि सीक कबाब और चिकन कौन सा टुकड़ा स्वादिष्ट है और कौन सा अच्छा नहीं है । वो लगातार उसकी आँखों में देखती रही । उसमें कही ईर्ष्या नहीं थी । उसमें आनन्द था, वो उसके माध्यम से खाने का मजा ले रहा था । वो जानती थी उसे सीक कबाब बहुत पसन्द था।
दूसरे दिन सुबह नाश्ते पर वो फिर साथ-साथ बैठे । वेटर ने परदे हटा दिये । दूर पहाड़ की चोटियों पर सूरज लुका छिपी खेल रहा था । चिड़िया अपने घोंसले में तिनके सजा रही थी। फिर सूरज ऊपर निकल आया । सीसे से छन कर सूरज की उष्मा उसे गुदगुदाने लगी। ।
वो बोली “आज मैं तुम्हारे लिये नाश्ता आर्डर करूँ ” वो हँसा “पिछले कई महीनों से तुम्ही आर्डर कर रही हो ।“ उसने वेटर से खाना बनाने वालों को बुलवाया । उसने कुछ ऐसा बनाने को कहा जो वो खा सकता था। उसने अपनी असमर्थता व्यक्त थी । लंच में कुछ बना सकता था अभी नहीं । हार कर उसने उबले चावल, मीठी दही और फलों का आदेश दिया
“ और तुम क्या खाओगी ?”
“वही जो तुम खाओगे ।“
“ यार ऐस मत करो, मुझे पछतावा होता रहेगा । मुझे एहसास होता रहेगा कि मैं बीमार हूँ।“
“ तुम कैसे जानते हो कि उबले चावल और दही में तुम्हारे साथ, मुझे आनन्द नहीं आयेगा । स्वाद नहीं होगा, मैं अपनी पसंद से भी तो ये सब खा सकती हूँ”। उसने उसकी आँखों में झाँका । उसने आँखें बन्द कर ली । शायद वो उसका प्रवेश अपने अंदर नहीं होने देता चाहता था। पर वो अन्दर समा गयी थी । उसे लगा कि उसने आँखें इस लिये बन्द की थी कि वो उसे बाहर नहीं जाने देना चाहता था ।
इस बार फिर गान्धारी ने अपने आँखों पर पट्टी बाँधी थी । पर वो पति के लिये नहीं थी । वो दोस्त के लिये थी, मीता के लिये थी, वह प्रियतम के लिये थी । सूरज की पहली किरन आसमान का सीना चीर कर बाहर फैल रही थी।
ज्ञानेन्द्र मिश्र, लखनऊ
उत्कृष्ट कहानी।दाम्पत्य जीवन के यथार्थ और पीड़ादायक आघात के समानांतर प्रेम की परत दर परत अभिव्यक्ति करने वाली अति विरल एवं विशिष्ट रचना। कथा की शिल्प रचना भ अभूतपूर्व है।कथाकार ज्ञानेन्द्र मिश्र जी को बधाई !
Bahut hi achchhi rachna …dil ko chhu lene wali..bure dino me ek ka saath jaroori lagta hai…ek sandesh hai kahani me…
Dhara prawah lekhan ..badhai …is kahani k shilpkaar ko..
कहानी दिल को छू गयी ।