कश्मीर चुनाव परिसीमन और इसके बाद के समीकरण
चंद्र प्रकाश झा *
सत्रहवीं लोकसभा के 2019 के बरस में हुए चुनाव की रिपोर्टिंग के लिए जम्मू-कश्मीर भी गए थे। हमने वहाँ का चप्पा-चप्पा छान मारा था। बहुचर्चित पुलवामा कांड के बाद फैली सैन्य राष्ट्रवाद की लहर पर ही सवार होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने उस चुनाव में देश भर में प्रचंड जीत दर्ज कर उन्हें फिर एक बार इस शासन की बागडोर सौंपी थी। लेकिन उस पुलवामा कांड के बाद से पूरे कश्मीर में एक वाचाल मौन विद्यमान है जिसकी झलक श्रीनगर के डल लेक की हमारी क्लिक एक तस्वीर में दिख सकती है।हम पुलवामा कांड के तुरंत बाद कश्मीर पहुँचने वाले पहले गैर-कश्मीरी पत्रकार थे. वहाँ से लौट कर जब हमने ये तस्वीर सोशल मीडिया पर इसी कैप्शन से शेयर की थी कि कश्मीर में मौन वाचाल है। तब प्रसिद्ध साहित्यकार और हमारे आदि संपादक सुरेश सलिल ने पूछा था क्या मौन भी वाचाल होता है।हमने निवेदन किया था कि हम मौन की निःशब्द मनोदैहिक अवस्था ही देखते हैं.
भारत में परिसीमन
भारत में निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन जटिल कार्य है। आम तौर पर प्रत्येक दशकीय जनगणना के बाद संसदीय एवं विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का परिसीमन किया जाता रहा है। इसका उद्देश्य है हर निर्वाचन क्षेत में वोटरों के वोट का वैल्यू कमोबेश एक जैसा रहे। यह कार्य भारतीय संविधान की धारा 82 के तहत 1952 में लागू परिसीमन अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार किया जाता है। इसके लिए समय-समय पर एक परिसीमन आयोग का गठन किया जाता है। इस आयोग के आदेश बाध्यकारी हैं और उन्हें अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। आयोग के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के कोई मौजूदा या रिटायर न्यायाधीश होते हैं। इसके सदस्यों में निर्वाचन आयोग के प्रतिनिधि के अलावा सम्बंधित राज्य के पांच सांसद और विधायक भी होते हैं। पहला परिसीमन आयोग 1952 में बना था। नई सहस्त्राब्दी में 2002 तक हर दशक में ऐसे आयोग गठित किये जाते रहे। लेकिन 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भारत के संविधान में संशोधन कर परिसीमन कार्य पर 2026 तक रोक लगा दी। कारण यह बताया गया कि तबतक सभी राज्यों में आबादी की वृद्धि में एकरूपता आ जाएगी और उनके वोट का वैल्यू भी एक जैसा रखने में भारी मदद मिलेगी। इस रोक के परिणामस्वरूप तब से लोकसभा की सीटों में किसी राज्य में वृद्धि नहीं हुई है।देश के विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से सभी सांसदों की सकल संख्या अभी तक जस की तस ही है।
जम्मू-कश्मीर में खुरपेंच
जम्मू-कश्मीर के भारत से अलग संविधान में संशोधन लाये बिना वहां परिसीमन करने के लिए केंद्र सरकार अधिकृत नहीं है। 1934 में जम्मू-कश्मीर रियासत के महाराजा हरि सिंह के राज में विधायी निकाय, प्रजा सभा के प्रथम चुनाव से पहले वहाँ संविधान सभा बनी थी। इस रियासत का बाद में भारत में विलय हो गया। 1957 में भारत के संविधान से अलग और कश्मीर के 1934 के ही संविधान पर आधारित राज्य के नए संविधान के तहत कायम विधानसभा के चुनाव छह बरस पर कराये जाते रहे हैं.जम्मू-कश्मीर के 20वें संविधान संशोधन से 1988 में विधानसभा की सीटों की संख्या 111 कर दी गयीं। इनमें 24 सीट पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर यानि पीओके में हैं जहां राज्य के संविधान की धारा 48 के तहत चुनाव कराने की अनिवार्यता नहीं है। इसलिए सदन की प्रभावी सीटें 89 ही रही जिनमें 46 सीटें कश्मीर घाटी में, 37 जम्मू में और चार लद्दाख में डाली गई। शेख अब्दुल्ला सरकार के कार्यकाल में विधानसभा की 43 सीटें कश्मीर घाटी को और 30 सीटें जम्मू संभाग के लिए आवंटित की गई।
बाद में कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में चार सीटें कर दी गईं। इसमें मुस्लिम समुदाय के लिए आरक्षित 21 सीटों में से 14 मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ने जीती थी। रियासत का 1947 में भारत में विलय हो जाने के बाद राज्य के अलग संविधान के तहत 1957 में कराये गए चुनाव के बाद ही शेख अब्दुल्ला कश्मीर के वजीरे-ए-आजम के पदनाम के बजाय वजीरे -ए -आला यानि मुख्यमंत्री बने। वह जम्मू-कश्मीर के लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित पहले मुख्यमंत्री थे।
पूर्व मुख्यमंत्री और श्रीनगर से लोकसभा के मौजूदा सदस्य डा. फारूख अब्दुला की अम्मां बेगम अकबर जहां अब्दुल्ला (1907-2000) को भी लोकसभा में इस सीट का दो बार प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला था। 2014 के लोकसभा चुनाव में श्रीनगर सीट से पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती की पीडीपी के तारीक अहमद कारा निर्वाचित हुए थे। किन्ही कारणों से कारा ने जब अक्टूबर 2016 में इस्तीफा दे दिया तो अप्रैल 2017 के उपचुनाव में नेशनल कांफ्रेंस के नेता और राज्य के तीन बार मुख्यमंत्री रहे फारूख अब्दुला जीते। वह पहले भी यहां से तीन बार सांसद रह चुके हैं। उनके पुत्र और पूर्व मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला भी यहाँ से तीन बार लगातार सांसद रहे हैं।
अनुमानित 10 लाख की आबादी का श्रीनगर शहर बहुत खूबसूरत है और जम्मू-कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी है। यह कश्मीर घाटी और झेलम नदी के तट पर बसा है। शहर का उल्लेख 12वीं शताब्दि में कल्हण रचित ग्रन्थ राजतरंगिणी में मिलता है। श्रीनगर , भाषाशास्त्रीय रूप से सूर्यनगर का स्थानिकीकरण माना जाता है। कश्मीर घाटी में 14वीं सदी तक हिन्दू और बौद्ध शासकों का राज रहा। मुग़ल बादशाह अकबर ने 1586 में इसे जीत कर काबुल सूबा में मिला लिया। शाहजहां ने मुगल बादशाहत में एक अलग कश्मीर सूबा कायम कर श्रीनगर को ही उसकी राजधानी बनाया।
मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद घाटी में कई दशक तक अफगान कबीलों और जम्मू के डोगरा शासकों का राज रहा। पंजाब के सिख शासक महाराजा रणजीत सिंह ने 1814 में कश्मीर घाटी के ज्यादातर हिस्सों और श्रीनगर को भी फतह कर अपने राज में मिला लिया। सिख शासकों और ब्रिटिश राज के बीच 1846 में लाहौर संधि हुई जिसकी बदौलत कश्मीर घाटी पर ब्रिटिश राज का अधिपत्य हो गया और जम्मू क्षेत्र के डोगरा शासक महाराजा गुलाब सिंह को जम्मू-कश्मीर राज्य का अर्ध स्वतंत्र शासक का दर्जा दे दिया गया.
ब्रिटिश हुकूमत से भारत और पाकिस्तान को 1947 में आज़ादी मिलने पर कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने रियासत का इन दोनों में से किसी देश में विलय करने से इंकार कर दिया।पाकिस्तान समर्थित कबीलाई जब श्रीनगर तक पहुँचे तो हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी। इसके लिए उन्होंने जम्मू-कश्मीर के अन्य देशी रियासतों की तरह ही भारत में विलय के करार पर 26 अक्टूबर 1947 को हस्ताक्षर कर दिए। भारत सरकार ने तत्काल सैन्य कार्रवाई कर अपनी सेना को विमान से श्रीनगर भेज उन घुसपैठिए कबीलाइयों का सक्षत्र हमला विफल कर दिया। उसके बाद से ही कश्मीर घाटी के कुछ भाग पाकिस्तान अधिकृत हैं जिसे वहाँ की सरकार ने आज़ाद कश्मीर के रूप में स्वतंत्र देश की मान्यता दे रखी है।
कांग्रेस राज
कांग्रेस के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आज़ाद की सरकार के कार्यकाल में तीनों भौगौलिक क्षेत्रों में विधानसभा की सीटें 25 प्रतिशत बढ़ाने का प्रस्ताव था जिससे सदन में 22 सीटों की वृद्धि हो सकती थी। पर संविधान में संशोधन लाने के वास्ते उस सरकार को विधानसभा में दो-तिहाई बहुमत हासिल नहीं था और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने उसके प्रस्ताव का विरोध किया। परिसीमन वहीं अटक गया।
राज्य में 1993 में तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन के कार्यकाल में तदर्थ परिसीमन हुआ था।1995 में रिटायर जस्टिस के के गुप्ता कमीशन द्वारा पूर्ण परिसीमन तब किया जब वहाँ राष्ट्रपति शासन था. अगला परिसीमन 2005 में होना था। 2002 में फारूक अब्दुल्ला सरकार ने 1957 के जम्मू-कश्मीर संविधान के तहत लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 47(3 ) में संशोधन लाकर परिसीमन पर 2026 तक रोक लगा दी। जम्मू-कश्मीर संविधान के तहत राज्यपाल को धारा 47 (3) में संशोधन करने का अधिकार है।
जनगणना
2011 की जनगणना के मुताबिक राज्य के 25.93 प्रतिशत क्षेत्रफल में फैले जम्मू संभाग की आबादी राज्य की 42.89 फीसद है. कश्मीर संभाग राज्य के 15.73 प्रतिशत क्षेत्रफल में फैला है और उसकी आबादी का हिस्सा 54.93 प्रतिशत हैं। शेष क्षेत्रफल और आबादी लद्दाख की है। जम्मू की आबादी में 62.55 प्रतिशत वाले डोगरा समुदाय तथा कश्मीर की आबादी में 96 प्रतिशत वाले मुस्लिम समुदाय का प्रभुत्व है। अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सभी सात निर्वाचन क्षेत्र जम्मू संभाग में थी. अनुसूचित जनजातियों के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं रखी गई थी जबकि वे कश्मीर संभाग में मौजूद हैं।
हिमालय की वादियों में पसरे जम्मू, कश्मीर और लद्दाख की कुल करीब एक करोड़ आबादी का 67 प्रतिशत मुस्लिम, 30 फीसदी हिन्दू और एक प्रतिशत बौद्ध है. राज्य का 78114 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पाकिस्तान अधिकृत है जिसमें से उसने 5180 वर्ग किलोमीटर चीन को दे रखा है। चीन ने भी लेह (लद्दाख) का 37555 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर कब्जा कर रखा है।
समीकरण
जम्मू -कश्मीर की भंग विधान सभा में पीडीपी 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी। ओमार अब्दुल्ला कह चुके हैं कि उनकी पार्टी पीडीपी के साथ चुनावी गठबंधन के लिए उत्सुक नहीं है। वह खुद 2008 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार में जनवरी 2009 से 1914 के पिछले विधानसभा चुनाव तक मुख्यमंत्री रहे थे। वह 2002 में अपने पिता की नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष बने है।
विगत में जम्मू-कश्मीर में नई गठबंधन सरकार बनाने के लिए पीडीपी, कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के बीच बातचीत की भनक मिलने पर भाजपा के राज्य प्रभारी महासचिव राम माधव ने सज्जाद लोन को समर्थन देकर तत्काल उनकी सरकार बनवाने की कोशिश की। मगर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का आंकलन था कि विधायकों की यह जोड़तोड़ अंततः विफल हो जाएगी। ऐसे में अंतिम निर्णय यही हुआ वहाँ पहले से निलंबित विधानसभा भंग कर उचित समय पर नए चुनाव कराये जाए। भाजपा ने विपक्षी गठबंधन को आतंक-अनुकूल पार्टियों की संज्ञा दी है। राम माधव ने महबूबा मुफ़्ती सरकार के गिर जाने के बाद नई सरकार बनाने के लिए विधायकों की खरीद बिक्री की संभावनाओं से इंकार कर कहा था कि जम्मू-कश्मीर को कुछ समय के लिए राज्यपाल शासन की जरूरत है.
इससे पहले भाजपा, पीडीपी के ‘ बाग़ी ‘ विधायकों के साथ मिलकर सरकार बनाने उत्सुक थी।लेकिन मुख्यमंत्री कौन बने इस पर खुरपेंच आ गया। भाजपा, केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री जितेंद्र सिंह को मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी। भाजपा और उसके मातृ संगठन, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का इस मुस्लिम बहुल राज्य में किसी हिन्दू को मुख्यमंत्री बनाने का पुराना सपना है। लेकिन सज्जाद लोन नही माने। उन्होंने भाजपा से कहा कि वह खुद मुख्यमंत्री बनने के लिए उत्सुक हैं। इसलिए अभी हिदू मुख्यमंत्री नही बनाया जाय। पीडीपी में चर्चा थी कि अगर भाजपा , विधान सभा के अगले चुनाव तक नई सरकार चलाने की ‘ गारंटी ‘ देती है तो पीडीपी के 28 विधायकों में से 21 उसमें शामिल हो सकते हैं।
सुरक्षा व्यवस्था
पुलवामा कांड के तुरंत बाद जब हमने रिपोर्टिंग के लिए जम्मू-कश्मीर का दौरा किया तो वहां चप्पे-चप्पे पर अर्ध सैनिक बल के जवान तैनात देखे थे। हाइवे पर नागरिक वाहनों का आवागमन सप्ताह में कम से कम वे दो दिन बंद दिखे जब उन पर सुरक्षा बलों के वाहनों का काफिला गुजरता था। अलगाववादियों ने मतदान के बहिष्कार का आह्वान किया था जिसका असर कश्मीर घाटी में ज्यादा और अन्यत्र लगभग नगण्य नज़र आया। कश्मीर में चुनाव के प्रति बेरुखी पहले भी रही है। मतदान की औसत दर ज्यादा नहीं रहीं। लेकिन उस बार माहौल में बेरूखी और बेचैनी का मिश्रण था।
चुनाव के ऐन पहले पूर्व आईएएस अधिकारी शाह फैसल एवं नई दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्र संघ की पूर्व उपाध्यक्ष शेहला राशिद की जिस पार्टी- जम्मू कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट के गठन की घोषणा की गई उसकी कोई खास चुनावी गतिविधि नहीं थी। संभव है यह पार्टी भी आगामी विधान सभा चुनाव में सक्रिय हो नया मोर्चा बनाए।
फ़िलहाल सबको चुनाव आयोग की घोषणा का इंतज़ार है।
*सीपी, यूनाईटेड न्यूज ऑफ इंडिया मुम्बई ब्यूरो से दिसंबर 2017 में रिटायर होने के बाद बिहार के अपने गांव में खेतीबाडी करने और स्कूल चलाने के अलावा पुस्तक लेखन और स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं. वह हाल में कश्मीर दौरे पर गए थे।