प्रयागराज जनपद के यमुनापार की संस्कृति –दो
डा चंद्र्विजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज
यमुनापार के पूर्व -दक्षिण में स्थित बेलनघाटी और देवघाट पुरापाषण काल ,मध्य पाषाण कालतथा नव पाषण काल की सभ्यता संस्कृति का साक्षी रहा है |बेलनघाटी के लोहदा नाला क्षेत्र में उस युग के कई साक्ष्य मिले हैं |बेलनघाटी के कोल डिहवा स्थान को चावल की खेती का प्राचीनतम स्थान माना जाता है |रामायण और महाभारत काल में यमुनापार का क्षेत्र् गंगाघाटी की सभ्यता संस्कृति को समेटे आरण्यक क्षेत्र रहा |विन्ध्य पर्वत के वनों में ऋषियों मुनियों के आश्रम थे ,उत्तर वैदिक काल के बहुत से ग्रंथों की रचना गंगा घाटी में ही हुई |
प्रयागराज से 60किमी की दूरी पर स्थित मांडा ग्राम से एक किमी दूर मांडवी देवी का सिद्धपीठ है ,इसी के समीप मुर्तिया दह के पास मांडव्य ऋषि का आश्रम बताया जाता है ,मांडव्य ऋषि की एक प्रतिमा भी यहाँ स्थित है |मांडव्य ऋषि का उल्लेख ,पुराणों,आरण्यक ,ब्राह्मण ग्रंथों के साथ साथ महाभारत में भी आता है |शतपथ ब्राह्मण –10-6-5-9में मांडव्य को एक आचार्य बताया गया है जो कौत्स ऋषि के शिष्य थे |स्कन्द पुराण और महाभारत आदिपर्व के अनुसार इन्हें निरपराध होने पर भी एक राजा द्वारा सूली पर लटकाया गया था |इन्होने प्राण न त्यागकर शूल के अग्रभाग पर शिव की तपस्या की ,शिव ने धर्मराज से दंड का कारण पूछा |ज्ञात हुआ की बचपन में ये पतिंगा पकड़ कर उसके बदन में सींक चुभोते थे जिसके कारण इनको सूली चुभाये जाने का दंड मिला है ये निरपराध है|भगवान शिव ने धर्म से नियम बनवाया की बारह वर्ष तक के बालकों को उनके नादानी पर किये गए कार्यों का कर्मफल नहीं भोगना होगा |मांडव्य ऋषि ऋग्वेद संहिता के तात्विक अर्थ प्रतिपादित करने वालों में से रहे हैं ,वृहत्संहिता में भी मंडव्य ऋषि का उल्लेख मिलता है |वर्तमान में मांडव्य ऋषि का आश्रम उपेक्षित है ,खनन और वन की कटाईकी सभ्यता संस्कृति में विस्मृति के गर्भ में कहीं खो जाएगा |
लाक्षागृह से बचकर कुंती के साथ पांडवों ने गंगा पार कर यमुनापर के अरण्य में ही शरण ली थी |हिडिम्बा का निवास भी इसी अरण्य में था |तमसा तट पर स्थित कोहडार घाट के समीप पथरा गाँव एक बोलन शंकर मंदिर है ,जिसके सामने एक विशाल तालाब है जिसे बाणगंगा भी कहा जाता है |प्रचलित जनश्रुति है की हिडिम्बा से भीम के परिणय से पूर्व हिडिम्बा के शुद्धिकरण के लिए ,अर्जुन ने गंगा की धारा इस स्थल पर अपने बाण से फोड़ दी थी |यह तालाब कमल के फूलों से भरा रहता था |
रामायण महाभारत काल के उपरांत प्रयागराज का यमुनापार बौद्धकाल ,शुंग काल ,भारशिवनागों का काल ,गुप्तकाल ,कलचुरी शासन तथा कन्नोज शासन के कार्यकलापों का साक्षी रहा है ,उनकी संस्कृति और परम्पराओं को आत्मसात करता रहा है |भारशिवनागवंशियों ने कुषाण के विरुद्ध विन्ध्य क्षेत्र में यमुनापार से लेकर अष्टभुजी तक सामरिक तैयारी कर काशी में कुषाणों को पराजित किया और कंतित– कन्तिपुरी में अपनी राजधानी बनाई |कंतित क्षेत्र यमुनापार से सटा हुआ है |यमुनापार के मेजा तहसील के पर्वतीय क्षेत्र में किले भी बनाए |मांडा और विजयपुर राज्य ,भारशिवनागवंशियों से जुड़े बताये जाते है |गहरवार ठाकुर अपने को भारशिवनागवंशी कहते हैं |भारशिवनागवंशियों नेअनेक स्थानों पर शिव मंदिरों की स्थापना की ,जिसमे जिगना के पास बदेवरानाथ,भदोही जनपद में गंगा के किनारे सेमाराध्नाथ ,मेजा तहसील में महुआंव कोटार ,कोहड़ार घाट के समीप पथरा गाँव में बोलन शंकर ,मेजा तहसील के लपरी नदी के किनारे जमुआ गाँव के शिव का मंदिर ,रींवा जिले के त्यौन्थर गाँव का मदम्पेश्वर्नाथ का मंदिर प्रसिद्द है |इन सभी मंदिरों की एक विशेषता है की पूस मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को विशाल मेला लगता है |ऐसा प्रतीत होता है की पुसी तेरस कुषाणों पर भारशिव्नागवंशियों की विजय की तिथि है |
भारशिवनागवंश के राज्य के पूर्व यमुनापार के विन्ध्य क्षेत्र के अरण्य में शक्ति की उपासना का प्रचलन था |महाकवि वाण के हर्षचरित तथा कादम्बरी जैसे ग्रंथों में इस तथ्य का उल्लेख मिलता है की विन्ध्य के पर्वतीय आरण्यक क्षेत्र में वृक्ष के कोटरों में माँ दुर्गा की मूर्ति स्थापित कर उनकी उपासना और साधना की जाती थी |ये पेड़ बरगद ,पीपल और महुआ के विशेष रूप से होते थे |यमुनापार के उल्लेखनीय शक्ति के प्राचीन मंदिर –मांडा की मांडवी देवी ,उंचडीहके समीप दिघिया की वाराही माता तथा रामनगर की दुर्गा माता हैं |
चौथी सदी में समुद्रगुप्त के पराक्रम को भी यमुनापार ने देखा जो उसके पराक्रम का समरभूमि रही ,उसकी विजयगाथा प्रयागराज के अशोक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है |गुप्त वंश के बाद ,दसवीं ग्यारहवीं सदी में कलचुरी राजवंश ने मध्यभारत पर राज्य किया जिसके राज्य की सीमा प्रयागराज के यमुनापार तक फैली हुई थी |आज भी कलचुरी राजवंश के स्मृति स्वरूप बहुत से खंडहरों के अवशेष मेजा करछना तहसील में विराजमान हैं जो धीरे धीरे समाप्तप्राय हो रहे हैं |
चौदहवीं सदी तक यमुनापार का क्षेत्र शिव और शक्ति की उपासना और आराधना का स्थल था |पंद्रहवीं सदी में यमुनापार के करछना तहसील में स्थित -अरैल जिसका प्राचीन नाम अलर्कपुरी कहा जता है में महाप्रभु वल्लभाचार्य ने अपनी गद्दी स्थापित की तब से वैष्णव आचार और संस्कृति का प्रभाव यमुनापार के गाँव गाँव में होने लगी |भागवत पुराण का श्रवण ,सन्यासियों की सेवा ग्रहस्थ आश्रम का एक धर्म ही बन गया |
यमुनापार की लोक संस्कृति के सम्बन्ध में बोली और लोकगीत का बहुत महत्त्व रहा है ,इस क्षेत्र की बोली अवधी के साथ मिर्जापुरी और बघेलखंडी का मिश्रण है ,प्रयागराज के गंगापार की अवधी से भिन्न कारक विभक्तियों और क्रियायों का भेद देखा जा सकता है |मांडा के राजा रुद्रप्रताप द्वारा रचित रामायण में इसी भाषा का प्रयोग किया गया है जिनका कार्यकाल सन १८४० के आसपास रहा |लोकगीतों में मिर्जापुर की भाँती ही मांडा की कजली भी बहुत विख्यात रही है |मांडा के राजा रामप्रताप खुदकजली के कवि और गवैया थे ,उनके कार्यकाल में भादों मास के कृष्णपक्ष तृतीया के दिन मांडा के पहाड़ी पर विशाल मेला लगता था और रात में राजभवन में कजली का दंगल होता था और गुणीजनों को यथायोग्य पुरस्कृत किया जाता था |राजा रामप्रताप के कजली गीतों के दो संग्रह प्रकाशित हुए थे जिसकी भाषा शैली मिर्जापुरी शैली से भिन्न थी ,भाषा के दृष्टिकोण से |
पुराण इतिहास ,संस्कृति ,धर्मिक्मान्यता तथा परंपरा ,भौगोलिक प्रकृति तथा भाषा की दृष्टि से यमुनापार एक अलग ही जनपद है अन्यान्य संभावनो को समेटे अपने उद्धार की प्रतीक्षा में |उल्लेखनीय है की इस माटी में जन्मे देश के एक महापुरुष राजा मांडा विश्वनाथ प्रताप सिंह भारत के प्रधानमंत्री रह चुके हैं |