सुबह जंगल की सैर में रिस्क के साथ जीने की कला
सुबह जंगल की सैर भी रिस्क वाला काम हो गया है। कल शाम न जाने क्या सूझा कि मोबाइल, आधार कार्ड और पैसे बिना जंगल की तरफ निकल गया ।कहीं जाता हूं तो मोबाइल के अतिरिक्त जेब में परिचय पत्र स्वरूप अपना आधार कार्ड और कुछ पैसे डालकर ही जाता हूं । यह एक सुरक्षा का बोध है।
इस तरह ख़ाली हाथ सुबह जंगल की सैर के लिए निकलना एक भारी रिस्क था । आप सब जानते हैं कि हमारी सरकार और म्यूनिसिपैलिटीज दिन रात प्रगति के काम करती हैं और सडकों पर प्रगतिशील कार्यों के प्रमाण स्थाई रूप से छोड़ती जाती हैं ।
सड़कों पर आर-पार नालियां खोदकर छोड़ी गयी थीं, पटरियों पर अनेक जगह गड्ढे खोदकर छोड़े गये थे, कूड़े के ढेर तो हमारे जीवन के या कहिये म्यूनिसिपल सफलता के स्तम्भ लेख है ,उनसे टकराते, बचते जंगल तक गया।
सुबह निकला था घूमने , जंगल की हवा खाने, बगल में कुकरैल जंगल है सरकारी और प्राइवेट पगडण्डियाँ से होता वन विभाग की पतली सड़क पहुंच कर गहरी सांस भी न खींच पाया कि एक गति सीमा तोड़ती सफारी गाड़ी ने , जिसपर वीवीआईपी वाले सेपरेट हार्न लगे थे , अपनी स्पीड और कर्कश हार्न ने श्वास -प्रश्वास की सुध भुला दी । बहरहाल जंगल अपरिचित, फलरहित पेडों का निकला और जंगल में प्रविष्ट होने का आनन्द नहीं मिला। फिर भी वहां साफ हवा थी तो जाने लगा ।
गाड़ियों की दहशत भरी स्पीड देखी और सडक की मोटी धूल का चश्मदीदार कर कुछ हृदयंगम भी किया । धूल में खेलते तो हमारा बचपन बीता है, जवानी की शुरुआत भी कार्तिक मास में जोते खेत में बदी नामक दम-खम का खेल खेलकर हुई , सो धूल तो अपनी महबूबा है ।
परिचित से परिचित सडक भी एक अनजानी दुनिया की तरह है और इसीलिए घर से बाहर निकल कर उस पर आना एक रिस्क भरा काम है । घर के अन्दर हम सब को न्यूनतम रिस्क होता है , न्यूनतम रिस्क इन्फेक्शन का , गिरने -पड़ने का , पर घर से बाहर यह रिस्क अगणित रूप से बढ़ जाता है ।
घर के अन्दर हम सब नंगे पैर भी रह लेते हैं पर बाहर तो जूते ,चप्पल चढ़ाकर ही जाते होते है ,क्योंकि सबसे बड़ा रिस्क पैरों को या पैरों की तरफ से होता है । बाहर सड़क हमेशा अनुमान से परे अच्छी या खराब हो सकती है , मसलन कल जो सड़क साफ थी आज उसपर किसी ने कीलें गिरा दी हों और हम असावधानी से पैरों में चोट लगवा बैठें। सड़क एक अनजानी दुनिया जैसी है, कब कोई मुसीबत किस स्पीड से आ जाए अनुमान नहीं लगा सकते ।
सडक पर जब हम आते हैं तो सडकें मुगलकालीन हाथी, घोड़े, बैलगाड़ी चलने लायक ही होती है । हमारी परंपरा है संकरी, टेढ़ी- मेढ़ी , ऊबड़ -खाबड़ सडक जिन पर नमाज, पूजा-पाठ, नाच गाना, विवाह संस्कार और भोज, हड़ताल , झगड़ा , हिंसा , पंचायत, परोपकारी कार्य जैसे पानी पिलाना, फूड पैकेट बांटना, मेला -बाजार लगाना , पटरी दूकानदारी ही नहीं पशु-पालन, स्ट्रीट डॉग की बस्ती , घरेलू पालतू कुत्तों का मल विसर्जन आदि सामाजिक जीवन के कार्य बड़े उत्साह और ऊर्जा से होते पाये जाते हैं ।
अब इतने सामाजिक बोझ को उठाने वाली सड़कों पर भारत की सम्पन्नता और इक्कीसवीं सदी की नवीनता ने नये नये बोझ डालने शुरू किये हैं ।
सरकार और विकास प्राधिकरण के हमारे अपने अंग्रेज जब कालोनियों और नगर की सडकों का निर्माण कराते हैं तो यह मानकर बनवाते हैं कि गरीब लोग हैं, साइकिल से चलेंगे , एक दोतरफा पतली पगडण्डी काफी है इन लोगों के लिए। पर पता यह चलता है कि पगडंडियों पर 1800 वर्गफुट के मकान में जो गरीब रहने आया है वह 40 लाख की कार , 6 लाख की मोटरसाइकिल अपने दुलरवे के लिए लेकर आया है। कालोनी का पूरा फुटपाथ भरा पड़ा है लोअर मिडिल क्लास ,लोअर क्लास की 40 लाख वाली “छोटी कारों” से। कारों के अलावा भैंसें, गाएं, कुत्ते, साण्ड , पटरी दुकानें सब पतली पगडण्डी पर ही आधारित हैं , इसलिए ऐसी सड़कों पर चलना रिस्क ही रिस्क है।
फिर भी हम भारतीय स्वभाव से रिस्क लेने वाले होते हैं , संविधान और कानून तक से रिस्क लेते है ,तो सड़क का रिस्क , महंगी गाड़ियों के कान-फोडू हार्न और स्पीड के रिस्क तो उठा ही लेते हैं , मैंने भी उठाए।
सुबह पूरे घंटे भर जंगल में रिस्क भरे भ्रमण के बाद जब मैं घर लौटा तो लगा कि मैंने कुछ पा लिया है । रिस्क के साथ जीवन जीने की कला पा ली है ।