कानून को बुलडोज़ कर के लागू नहीं किया जा सकता


-विजय शंकर सिंह

बुलडोजर कानून का प्रतीक नहीं है। यह विधिक शासन के ध्वस्त हो जाने और सिस्टम की विफलता से उपजे फ्रस्ट्रेशन का प्रतीक है। सरकार विधिसम्मत राज्य की स्थापना के लिए गठित तंत्र है, न कि आतंकित करके राज करने के लिए बनी कोई व्यवस्था। कानून की स्थापना, कानूनी तरीके से ही होनी चाहिए न कि डरा धमका कर या भय दिखा कर। वह कानून का नहीं, फिर डर का शासन होगा, जो एक सभ्य समाज की अवधारणा के सर्वथा विपरीत है। बुलडोजर का भी गवर्नेंस में प्रयोग हो सकता है, होता भी है, पर वह भी किसी न किसी कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत पारित आदेश के न्यायपूर्ण पालन के अंग के रूप में होता है, न कि एक्जीक्यूटिव के किसी अफसर की सनक और ज़िद से उपजे मध्यकालीन फरमान के रूप में। यदि कानून और निर्धारित विधिक प्रक्रियाओं को दरकिनार करके बुलडोजर ब्रांड ‘न्याय’ की परंपरा डाली गयी, तो यह एक प्रकार से राज्य प्रायोजित अराजकता ही होगी।

लम्बे समय से देश के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम या आपराधिक न्याय प्रणाली की विफलता, खामियों और जन अपेक्षाओं के अनुरूप उसे लागू न करने को लेकर सवाल उठते रहे हैं. ये सवाल जनता और भुक्तभोगी ही नहीं, बल्कि वे भी उठाते रहे हैं जो इस तंत्र के प्रमुख अंग हैं। क्या यह हैरानी की बात नहीं लगती कि जिन्हें इस तंत्र को संचालित करने का अधिकार प्राप्त है, वे ही इस तंत्र की विफलता का स्यापा कर रहे हैं? लेकिन यहीं पर एक सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसी स्थिति आई कैसे और क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के संचालक उसे ठीक से संचालित क्यों नही कर सके? एक बात तो तय है कि जब न्याय दिलाने के कानूनी रास्ते लम्बे, महंगे, समयसाध्य और जटिल हो जाते हैं, तो त्वरित न्याय दिलाने वाले विधिविरुद्ध समूह की ओर लोग अनायास ही मुड़ने लगते हैं। क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की विफलता न केवल माफिया गिरोहों को पनपने के लिए एक अवसर प्रदान करती है, बल्कि वह पुलिस को भी विधिविरुद्ध दिशा में जाने को प्रेरित करती है और तब जो गैरकानूनी रूप से एक नया न्याय प्रदाता तंत्र या जस्टिस डिलीवरी सिस्टम विकसित होता है, वह अपराध को एक प्रकार से मान्यता देकर उसे संस्थाकृत ही करता है। यह कानून के राज के लिए न केवल घातक है, बल्कि लोगों के मन में कानून के प्रति एक गहरा उपेक्षा भाव भर देता है। कानून के प्रति अवज्ञा या उपेक्षा का यह भाव कानून लागू करने वाली मशीनरी को धीरे धीरे अप्रासंगिक कर देता है। 
हाल ही में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में एक अजीबोगरीब मुद्दा उठ गया था बुलडोजर का। यह मुद्दा उठाया था भारतीय जनता पार्टी ने और उनके अनुसार यह मुद्दा, यानी बुलडोजर प्रतीक बन गया है गवर्नेंस का, यानी शासन करने की कला के नए उपकरण का। अब कानून, संसद द्वारा पारित कानूनी प्रावधानों और अदालती प्रक्रिया के द्वारा नहीं, बल्कि ठोंक दो, तोड़ दो, फोड़ दो के प्रतीक बुलडोजर से लागू किये जायेंगे। बुलडोजर, मूलतः ध्वस्त करने वाली एक बड़ी मशीन है, जो तोड़फोड़ करती है। दरअसल भाजपा के राज में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए जिस आक्रामक नीति की घोषणा 2017 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के द्वारा की गयी थी, वह थी ठोंक दो नीति। यह अपराधियों और कानून व्यवस्था को बिगाड़ने वालों के प्रति अपनाई जाने वाली एक आक्रामक नीति है, जो लोगों में लोकप्रियता और सरकार की छवि को एक सख्त प्रशासक के रूप में दिखाने के लिए लाई गई थी। ठोंक दो की नीति का हालांकि कोई कानूनी आधार नहीं है और न ही कानून में ऐसे किसी कदम का प्रावधान है, लेकिन इसे लागू करने से अपराधियों पर इसका असर भी पड़ा है और जनता ने इसकी सराहना भी की है। 
कुछ हद तक यह बात सही भी है कि इस आक्रामक ठोंक दो नीति के अनुसार भूमाफिया और संगठित आपराधिक गिरोह के लोगों के खिलाफ कार्यवाही करने से न केवल कुछ संगठित आपराधिक गिरोहों का मनोबल गिरा, बल्कि जनता को भी उनके आतंक से कुछ हद तक राहत मिली, पर इसी नीति और बुलडोजर पर पक्षपात के आरोप भी लगे। एक धर्म विशेष के माफिया सरगनाओं के खिलाफ जानबूझकर कार्यवाही करने के, तो एक जाति विशेष के कुछ माफियाओं पर कार्यवाही न करने के आरोप भी सरकार पर लगे। कार्यवाही का आधार प्रतिशोध है, यह भी आरोपों में कहा गया और अब भी कहा जा रहा है। यहीं यह  सवाल भी उठता है कि क्या कानून व्यवस्था को लागू और अपराध को नियंत्रित करने के लिए कानूनी प्रावधानों को बाईपास कर के ऐसे रास्तों को अपनाया जा सकता है, जो कानून की नज़र में खुद ही आपराधिक हों? 
यह सवाल उन सबके मन में उठता है, जो कानून के राज के पक्षधर हैं और समाज में अमन, चैन कानूनी रास्ते से ही बनाये रखना चाहते हैं। इसलिए विधि के अनुरूप शासन व्यवस्था में रहने के इच्छुक अधिकांश लोग, चाहे बुलडोजर हो या ठोंक दो की नीति के अंतर्गत की जाने वाली एनकाउंटर की कार्यवाहियां हों, इन्हें लेकर अक्सर पुलिस पर सवाल उठाते रहे हैं और ऐसे एनकाउंटर्स की सरकार, जो खुद भी भले ही ठोंक दो नीति की समर्थक और प्रतिपादक हो, न केवल जांच कराती है, बल्कि दोषी पाए जाने पर दंडित भी करती है। 
एमनेस्टी इंटरनेशनल से लेकर जिले स्तर तक गठित सरकारी और गैर सरकारी मानवाधिकार संगठन इस बात पर सतर्क निगाह रखते हैं कि कहीं सरकार की जबर नीति के कारण व्यक्ति को प्राप्त उसके संवैधानिक और नागरिक अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है। फिर बुलडोजर और ठोंक दो नीति की बात करने वालों के निशाने पर पुलिस और कानून लागू करने वाली एजेंसियों के वे अफसर ही रहते हैं, जो सरकार की इन्हीं नीतियों के अंतर्गत कानून और कानूनी प्रक्रियाओं को दरकिनार कर के कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए खुद ही एक गैर कानूनी रास्ता चुनते हैं, जिसे कानून खुद अपने प्रावधानों में अपराध की संज्ञा देता है। 
अब कुछ आंकड़ों की बात करते हैं। मानवाधिकार संगठनों की मानें तो उत्तर प्रदेश पिछले कुछ वर्षों से न्यायेतर हत्याओं यानी एक्स्ट्रा ज्यूडीशियल किलिंग यानी बुलडोजर या ठोंक दो की नीति की एक प्रयोगशाला जैसा रहा है। मार्च, 2017 के बाद से जब से भारतीय जनता पार्टी राज्य में सत्ता में आई है, तब से एक्स्ट्रा ज्यूडीशियल हत्याओं की संख्या में वृद्धि हुई है। एक आंकड़े के अनुसार 2017 से 2020 तक के कालखंड में, यूपी पुलिस ने कम से कम 3,302 कथित अपराधियों को गोली मारकर घायल किया है। मानवाधिकार आयोगों की रिपोर्ट के अनुसार पुलिस फायरिंग की घटनाओं में मरने वालों की संख्या 146 है। यूपी पुलिस का दावा है कि ये 146 मौतें जवाबी फायरिंग के दौरान हुईं और सशस्त्र अपराधियों के खिलाफ आत्मरक्षा में की गयी हैं, लेकिन नागरिक संगठनों ने इन हत्याओं पर सवाल उठाए और आरोप लगाया कि ये सुनियोजित हैं और जानबूझकर कर की गयी न्यायेतर हत्याएं हैं।
राज्य सरकार द्वारा बार-बार कहा जाता है कि यह अपराध नियंत्रण के लिए की गई पुलिस कार्यवाही है और इसे एक्स्ट्रा ज्यूडीशियल हत्या नहीं कहा जा सकता। मानवाधिकार संगठनों ने उदाहरण के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आधिकारिक ट्विटर हैंडल का उल्लेख किया है, जिसमें राज्य में की गयी 430 पुलिस मुठभेड़ों को एक उपलब्धि के रूप में बताया गया है। सरकार ने मुठभेड़ की इस नीति को सार्वजनिक रूप से अधिकारियों की मीटिंग में रखा और इसे अपराध नियंत्रण की मुख्य नीति के रूप में प्रस्तुत भी किया। मुख्यमंत्री की इस तथाकथित मुठभेड़ नीति को सार्वजनिक भाषणों और प्रेस में भी प्रचारित किया गया। राज्य सरकार के आधिकारिक प्रकाशन, जैसे कि सूचना और जनसंपर्क विभाग, नियमित रूप से पुलिस हत्याओं की संख्या को उपलब्धियों के रूप में प्रचारित करता है और इसे कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए राज्य सरकार की ‘शून्य सहनशीलता नीति’ बताता है। मीडिया रिपोर्टों से यह भी संकेत मिलता है कि जुलाई 2020 तक 74 पुलिस एनकाउंटरों की मैजिस्टीरियल जांच पूरी की गयी, जहां पुलिस फायरिंग के दौरान मौतें हुई थीं। इन सभी मामलों में क्लीन चिट दे दी गई है।  इसके अलावा लगभग 61 मामलों को अंतिम आख्या लगाकर बंद कर दिया गया। यूपी के डीजीपी रह चुके एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का मानना है कि यूपी पुलिस का रवैया लगातार योगी आदित्यनाथ सरकार की छवि को खराब कर रहा है। पुलिस हिरासत में हुई मौतों का मामला हो या फिर गोरखपुर में कानपुर के कारोबारी मनीष गुप्ता की पुलिसकर्मियों द्वारा हत्या का मामला हो, इन मामलों में विपक्ष को योगी सरकार को घेरने का मौका मिला है। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण मामला आगरा के जगदीशपुरा थाने का है। यहां पुलिस थाने के मालखाने से 25 लाख रुपए और 2 पिस्टल की चोरी पर, शक के आधार पर पुलिस ने एक सफाई कर्मचारी को हिरासत में लिया था, पर उसकी मृत्यु संदिग्ध रूप से पुलिस कस्टडी में हो गयी, उसकी मौत से पुलिस की कार्यप्रणाली पर गम्भीर सवाल उठे। 
अपराधियों के खिलाफ उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा चलाये गए ‘मिशन क्लीन’ अभियान के दौरान पुलिस ज्यादतियों की बढ़ती शिकायतों ने सरकार की छवि पर भी असर डाला है। हाल ही में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनसे सरकार की छवि खराब हुई है। एनसीआरबी के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो उत्तर प्रदेश में फर्जी मुठभेड़ों के आरोप के अतिरिक्त हिरासत में मौत के मामलों की संख्या कम नहीं है। एक नज़र इन आंकड़ों पर डालते हैं।
‘उत्तर प्रदेश में पिछले तीन साल में 1318 लोगों की हिरासत में मौत हुई, जो देश के कुल मामलों का करीब 23 प्रतिशत है। एनएचआरसी के अनुसार 2018-19 में पुलिस हिरासत में 12 तो 452 की मौत न्यायिक हिरासत में हुई, जबकि 2019-20 में पुलिस हिरासत में 3 तो 400 की मौत न्यायिक हिरासत में हुई। वहीं 2020-21 में पुलिस हिरासत में 8 तो न्‍यायिक हिरासत में 443 मौत हो चुकी है, श्रोत- जनचौक।
पुलिस हिरासत मे हुई मौतों को पुलिस विभाग में बेहद गम्भीरता से लिया जाता है। 1991 में जब प्रकाश सिंह उत्तर प्रदेश के डीजीपी थे, तो उन्होंने एक सर्कुलर आदेश जारी कर तीन अत्यावश्यक निर्देश दिये थे। वे तीन निर्देश थे-
* जिस भी थाने में पुलिस अभिरक्षा में मृत्यु की घटना हो, उस थाने के थाना प्रभारी को तत्काल निलंबित कर दिया जाय।
* इस संबंध में हत्या का मुकदमा दर्ज करके प्राथमिकता के आधार पर विवेचना कराई जाए।
* जिला मैजिस्ट्रेट से अनुरोध कर घटना की मैजिस्टीरियल जांच कराई जाए। 
यह सर्कुलर आज भी प्रभावी है और इसका पालन किया जाता है। लेकिन, कई बार ऐसा भी देखा गया है कि जिम्मेदार अधिकारी ही केस दबाने का प्रयास करते हैं। इसलिए पुलिस की कार्यप्रणाली, या बेहतर हो यह कहा जाय कि उंसकी मनोवृत्ति में काफी सुधार होना चाहिए। पुलिसकर्मियों को लोगों के प्रति अपना व्यवहार सुधारना चाहिए। इस विंदु की ओर भी ध्यान दिया गया है और सुप्रीम कोर्ट ने सीसीटीवी कैमरे लगाने का परामर्श भी सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को इसीलिए दिया है।
ये तो खैर पुराने आंकड़े हैं, पर बुलडोजर के यूपी मॉडल की नकल अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के खरगौन में की गयी है। रामनवमी पर खरगौन में एक शोभायात्रा निकाली गई और वह शोभायात्रा जब मुस्लिम इलाके से निकल रही थी तो कहते हैं कि उस पर पथराव हुआ और फिर साम्प्रदायिक दंगे की स्थिति उत्पन्न हो गयी। पथराव करने वाले कुछ घरों को वहां के प्रशासन ने चिह्नित किया और फिर उनके घरों को बुलडोज़र से गिरा दिया। यहीं यह कानूनी सवाल उठता है कि यदि वे पथराव के दोषी थे भी, तो क्या उनका घर गिरा दिया जाना विधिसम्मत कार्यवाही थी? कानून के अनुसार उनके खिलाफ अभियोग पंजीकृत करके उन्हें अदालत ले जाना चाहिए था और न्यायालय जो दंड देता वह मान्य करना चाहिए था। प्रशासन ही यहां शिकायतकर्ता भी है, जांचकर्ता भी, अभियोजक भी और न्यायाधीश भी। यह एक मध्यकालीन राजतंत्रीय आपराधिक न्याय प्रणाली की ओर लौटना हुआ, न कि एक सभ्य, प्रगतिशील और विधि द्वारा स्थापित क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के अनुसार न्याय सुनिश्चित करना।
सच तो यह है कि बुलडोजर कानून का प्रतीक नहीं है। यह विधिक शासन के ध्वस्त हो जाने और सिस्टम की विफलता से उपजे फ्रस्ट्रेशन का प्रतीक है। सरकार विधिसम्मत राज्य की स्थापना के लिए गठित तंत्र है, न कि आतंकित करके राज करने के लिए बनी कोई व्यवस्था। कानून की स्थापना, कानूनी तरीके से ही होनी चाहिए न कि डरा धमका कर या भय दिखा कर। वह कानून का नहीं, फिर डर का शासन होगा, जो एक सभ्य समाज की अवधारणा के सर्वथा विपरीत है। बुलडोजर का भी गवर्नेंस में प्रयोग हो सकता है, होता भी है, पर वह भी किसी न किसी कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत पारित आदेश के न्यायपूर्ण पालन के अंग के रूप में होता है, न कि एक्जीक्यूटिव के किसी अफसर की सनक और ज़िद से उपजे मध्यकालीन फरमान के रूप में। यदि कानून और निर्धारित विधिक प्रक्रियाओं को दरकिनार करके बुलडोजर ब्रांड ‘न्याय’ की परंपरा डाली गयी, तो यह एक प्रकार से राज्य प्रायोजित अराजकता ही होगी।
अराजकता यानी एक ऐसा राज्य, जिसमें राज्य व्यवस्था पंगु हो जाय। अराजकता केवल जनता द्वारा ही नहीं फैलाई जाती, ऐसा वातावरण राज्य द्वारा प्रायोजित भी हो सकता है। ऐसे राज्य को पुलिस स्टेट कहा गया है, जहां शासन पुलिस या सेना के बल पर टिका होता है, न कि किसी तार्किक न्याय व्यवस्था के बल पर। ऐसी कोशिश, राज्य द्वारा सायास की जाती है तो कभी-कभी यह अनायास भी हो जाता है। राज्य का मूल कर्तव्य और दायित्व है, जनता को निर्भीक रखना, उसे भयमुक्त रखना। अभयदान राज्य का प्रथम कर्तव्य है, इसीलिए इसे सबसे प्रमुख दान माना गया है। राज्य इस अभयदान के लिए एक कानूनी तंत्र विकसित करता है, जो विधायिका द्वारा पारित कानूनों पर आधारित होता है। इसमें पुलिस, मैजिस्ट्रेसी, ज्यूडीशियरी आदि विभिन्न अमले होते हैं। इसे समवेत रूप से क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के नाम से जाना जाता है। यह सिस्टम, एक कानून के अंतर्गत काम करता है और अपराध तथा दंड को सुनिश्चित करने के लिए एक विधिक प्रक्रिया अपनाता है। 
इस सिस्टम को भी यदि निर्धारित कानूनी प्रक्रिया के अनुसार लागू नहीं किया जाता है, तो इसका दोष सम्बंधित अधिकारी पर आता है और उसके खिलाफ कार्यवाही करके दंडित करने की प्रक्रिया भी कानून में है, जिसका पालन किया जाता है। कहने का आशय यह है कि कानून को कानूनी तरीके से ही लागू किया जाना चाहिए।

यदि कानून को, कानूनी प्रावधान दरकिनार करके, मनमर्जी से लागू किया जाएगा, तो उसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होगा कि सिस्टम, विधि केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएगा और यदि कहीं उसे लागू करने वाला व्यक्ति अयोग्य, सनकी और जिद्दी हुआ तो राज्य एक अराजक समाज में बदल जाएगा।

यदि कानून को, कानूनी प्रावधान दरकिनार करके, मनमर्जी से लागू किया जाएगा, तो उसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होगा कि सिस्टम, विधि केंद्रित न होकर व्यक्ति केंद्रित हो जाएगा और यदि कहीं उसे लागू करने वाला व्यक्ति अयोग्य, सनकी और जिद्दी हुआ तो राज्य एक अराजक समाज में बदल जाएगा।

यदि कानून को लागू करने वाले सिस्टम में कोई खामी है, तो उसका समाधान किया जाना चाहिए। नए कानून बनाये जा सकते हैं, पुराने कानून रद्द किए जा सकते हैं और विधायिकाएं ऐसा करती भी हैं। पर कानून का विकल्प, बुलडोजर या सनक या ज़िद कदापि नही हो सकते, इससे अराजकता ही बढ़ेगी।
 

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