कोरोना काल में ऑनलाइन पढ़ाई का बच्चों पर असर
अनुपम तिवारी, लखनऊ
शत प्रतिशत साक्षरता वाले राज्य, केरल से आई एक दुखद खबर ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है. मलप्पुरम जिले के मनकरी गांव की रहने वाली दसवीं कक्षा की छात्रा, बी. देविका ने गत सोमवार को आग लगा कर आत्महत्या कर ली. आत्महत्या का कारण था, उसके पास ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेने के लिए उपयुक्त संसाधनों का अभाव. इसी अभाव और कक्षा में पिछड़ जाने डर ने उसे मानसिक अवसाद की ओर धकेल दिया. लॉकडाउन के चलते केरल सरकार ने गत 1 जून से 12वीं तक कि सभी कक्षाओं के लिए स्मार्टफोन और टेलीविजन के माध्यम ऑनलाइन क्लासेज अनिवार्य कर दी है. देविका गरीब दलित वर्ग से आती थी. वह एक होनहार विद्यार्थी थी. पिता बालकृष्ण दिहाड़ी मजदूर हैं. घर की माली हालत ऐसी नहीं थी कि वह स्मार्ट फ़ोन का इस्तेमाल कर सकते. घर मे एक टीवी है जो खराब पड़ा है. खुद का स्वास्थ्य ख़राब होने और तालाबंदी के कारण वह 2 महीनों से काम पर नहीं जा पा रहे थे. ऐसे किसी भी परिवार की तरह, बच्ची की पढ़ाई के लिए टीवी दुरुस्त कराना उनकी प्राथमिकता में, स्वास्थ्य के बाद ही आता है.
अपनी उम्मीदों को सिर्फ स्मार्टफोन और टीवी के न होने की वजह से टूटते देखना इस बच्ची को इतना नागवार गुजरा कि उसने आत्महत्या जैसा बेहद गलत कदम उठा लिया. इस संदर्भ में केरल के शिक्षा मंत्री सी रवीन्द्रनाथ कहते हैं, “जब हम इतिहास में पहली बार कोई चीज कर रहे होते हैं तो वह परफेक्ट नहीं होती शुरू में वह ट्रायल ही होता है. हमको नहीं पता था कि यह ट्रायल एक होनहार बच्ची की जान ले लेगा”.
सत्र खराब न हो, इस कारण स्कूलों ने तमाम मोबाइल और कंप्यूटर एप्पलीकेशन का सहारा ले कर कक्षाएं चालू कर दीं. यह शर्तिया तौर पर नही कहा जा सकता कि इसके पीछे धारणा सिर्फ सकारात्मक ही होगी, क्योंकि इसी बहाने कई विद्यालयों ने फीस चुकाने के लिए अभिभावकों पर दबाव भी बनाना शुरू कर दिया है.
भारत जैसे देश मे जहां इंटरनेट डेटा की स्पीड दुनिया मे सबसे निचले स्तरों पर है, ऑनलाइन कक्षाएं महज एक ढोंग बन कर रह जाती है. बहुत कम घर ऐसे हैं जहाँ ऑप्टिकल फाइबर जैसी तकनीकि से तीव्र इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है। मध्यमवर्गीय और उससे नीचे का वर्ग सिर्फ ‘जिओ’ द्वारा उपलब्ध कराए गए डेटा पर निर्भर है, जिसकी दरें अन्य प्रदाताओं से सस्ती पड़ती हैं। सस्ते डेटा के कारण इंटरनेट की कम स्पीड से लोग समझौता कर लेने को बाध्य हैं।
बच्चों की समस्याएं भी वाजिब हैं. आर्मी पब्लिक स्कूल लखनऊ में कक्षा 8 का विद्यार्थी रुचिर इस बाबत अपनी पीड़ा खुल कर बताता है. “डिजिटल अध्यापन सामग्री कभी भी असल किताबों की जगह नही ले सकती”. वास्तविक कक्षा का माहौल, चुहलबाजी, शैतानियां, अध्यापकों के स्नेह आदि की कमी उसको बहुत खलती है.
रुचिर इससे बहुत क्षुब्ध दिखता है। “हमारे ज्यादातर टीचर यू ट्यूब पर वीडियो बना कर अपलोड कर देते हैं, उनको यह तो समझ आना चाहिए कि जिओ के सिम से यू ट्यूब चलाना कितना दर्दनाक अनुभव होता है” अपनी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए वह कहता है, “लगभग आधा घंटे का एक वीडियो नेट की कम स्पीड के चलते 1 घंटे से ज्यादा समय ले लेता है. आगे की क्लास छूट जाने का डर हमेशा बना रहता है”. हँसते हुए वह अपनी बात पूरी करता है, “टीचर को क्या पता, जब वीडियो के बीच में वो बफरिंग वाला गोला घूमने लगता है तो मन करता है फ़ोन पटक दें”. आप इस वक्तव्य को हसी में टाल सकते हैं परंतु इस बात को गंभीरता से लेने की जरूरत है, कि नाहक ही हमारे बच्चे इन छोटी-छोटी वजहों से मानसिक अवसाद की ओर बढ़ रहे हैं।
लगातार मोबाइल और कंप्यूटर पर आंख गड़ाए बच्चे, नैसर्गिक विकास से वंचित हो रहे हैं. दिल्ली पब्लिक स्कूल, लखनऊ के सातवीं कक्षा के छात्र अभ्युदय के पिता राजीव सिंह, जो खुद एक व्यवसायी हैं, इस मामले में अभिभावकों का पक्ष स्पष्ट करते हैं. “मार्च के महीने से ही स्कूलों ने ऑनलाइन क्लास शुरु करवा दी थीं, शुरू में बच्चों को इससे तारतम्य बिठाने में बड़ी दिक्कतें आयीं”. लगातार फ़ोन और इयरफोन के इस्तेमाल से वह अपने बच्चे के स्वास्थ्य को ले कर भी चिंतित हैं. वह बताते हैं कि “शहरों में घरों के दायरे सीमित होते हैं, कक्षाओं की वजह से लगभग सारे दिन बच्चे को एक कमरे में बंद रहना पड़ता है. जिससे वह एकाकीपन के शिकार भी हो सकते हैं”.
एक सामान्य सा डर भी कई अभिभावकों ने साझा किया, कि उनकी नज़र बचा कर, बच्चे पढ़ाई के स्थान पर गेम खेलने लग जाते हैं. इंटरनेट के संसार मे बंदिशें बहुत कम हैं. वह सूचनाएं जो कम उम्र के बच्चों तक नही पहुचनी चाहिए, वह ब्राउज़र खोलते ही अनायास आ धमकती हैं.
ऑनलाइन कक्षाओं से एक और पीड़ा लगभग हर बच्चे को परेशान कर रही है, वह यह कि होमवर्क बहुत ज्यादा मिल रहा है. इसके पीछे का तर्क जानने के लिए जब एक बड़े स्कूल की शिक्षिका से संपर्क किया तो नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने बताया कि “यह एक तरह का प्रयोग है. ज्यादा होमवर्क बच्चों को अनावश्यक घूमने फिरने से बचाएगा. कोरोना संक्रमण से उनके बचाव का यह एक अच्छा माध्यम है.” तर्क कुछ भी दिया जाए पर असल मे स्कूल को पता है कि ऑनलाइन कक्षाएं महज खाना पूर्ति भर हैं, वर्चुअल कक्षा में बच्चों के प्रश्नों के उत्तर देने के बजाय उनको होमवर्क के जाल में उलझा देना ज्यादा आसान विकल्प है. “टीचर्स का सारा ध्यान कोर्स पूरा करवाने में रहता है. वह स्कूल खुलने से पहले ज्यादा से ज्यादा पाठ खत्म करवा देना चाहते हैं ताकि बाद में बोझ कम रहे” एक छात्र का यह तर्क अधिक सटीक बैठता है.
वर्चुअल कक्षाओं का यह अभिनव प्रयोग सफल होता नही दिख रहा. लखनऊ शहर में ही कुछ दिनों पहले एक बड़े निजी स्कूल के द्वारा कुछ बच्चों के ऊपर प्राथमिकी दर्ज कराए जाने का मामला सामने आया था. आरोप था कि ऑनलाइन वीडियो क्लास के समय ये बच्चे अवांछनीय टिप्पणियां और बेहूदा क्रियाकलाप करते थे. युवावस्था की दहलीज पर खड़े ऐसे बच्चे प्रत्यक्ष अनुशासन के आदी हो चुके होते हैं जो वर्चुअल दुनिया मे संभव नही है.
समस्याएं अलग नही हैं, मगर देहातों में वह अधिक खराब दिखती हैं. लखनऊ से 100 किलोमीटर दूर, फतेहपुर जिले के एक प्राइवेट स्कूल की शिक्षिका सीता (बदला हुआ नाम) ने फ़ोन पर अपनी व्यथा बताई. “बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाना हर अध्यापक के लिए दुःस्वप्न जैसा है. दुर्भाग्य से ग्रामीण क्षेत्रों के ज्यादातर अध्यापक ऑनलाइन माध्यमों के उपयोग में खुद को सक्षम नहीं पाते. नेटवर्क ड्राप की समस्या देहातों में सबसे अधिक है. ज्यादातर घरों में एक ही स्मार्टफोन है, कहीं कहीं तो वो भी नही है, इस कारण बच्चे एक साथ उपलब्ध नहीं हो पाते. फिर उनको कभी हमारी आवाज नही आती तो कभी वीडियो नही पहुचता. बच्चे बीच मे अगर कुछ पूछना चाहें, तो उनकी समस्या सुलझाने तक बाकी छूट जाते हैं या डिसकनेक्ट हो जाते हैं.
कोरोना के इस दौर में जब दुनिया बीमारी, भूख, बेरोजगारी जैसी अन्य बड़ी समस्याओं से लड़ रही है, उसे अपने नौनिहालों की चिंता भी करनी ही पड़ेगी. यह सोचना होगा कि ऑनलाइन कक्षाओं के नाम पर हो रही इस शैक्षणिक खाना पूर्ति से बच्चों का सर्वांगीण विकास कैसे होगा. यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चे मानसिक और शारीरिक अवसाद की ओर न मुड़ जाएं.
हम पुराने शैक्षिक कैलेंडर की ओर रुख कर सकते हैं, जब असल सत्र जुलाई अगस्त से शुरू होता था. एक सत्र के लिए गर्मी की छुट्टियोंको कुछ लम्बा खींच देना भी कतई गलत नहीं होता. शायद तब तक कोविड-19 से निजात का कोई रास्ता निकल ही आये और हमारे बच्चे वापस अपनी स्वाभाविकता के साथ स्वच्छन्द माहौल में पढ़ाई कर सकें. तब तक उनको पढ़ाया जरूर जाए, मगर बोझ की तरह नही.
वर्तमान स्थिति को देखते हुए ऑनलाइन पढ़ाई कराना विद्यालय न जाने की शर्त में अच्छा विकल्प है ,,,,रही बात परेशानियों की तो नया प्रयोग है कुछ दिक्कतें तो आएंगी ही ,,,
लाभ और हानियों को उजागर करता सारगर्भित लेख 👍