चुनाव आयोग और PMO के बीच बैठक पर सवाल

आयोग के अधिकारियों कहना है कि चुनाव सिधार के प्रस्ताव कानून मंत्रालय और ईसी के बीच लंबे समय से लंबित थे।इस विचार-विमर्श ने लंबे समय से लंबित सुधार प्रस्तावों पर आगे बढ़ने में मदद की। उन्होंने इस पर संवैधानिक व्यवस्था के उल्लंघन के आरोपों का खंडन किया है।

मीडिया स्वराज डेस्क

चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को लेकर एक नया विवाद खड़ा हो गया है। विवाद इस बात को लेकर है कि चुनाव आयोग ने चुनावी सुधारों पर PMO यानी प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ मीटिंग क्यों की। यह मीटिंग पिछले महीने आनलाइन हुई थी और कई लोग इसे संवैधानिक दृष्टि से अनुचित बता रहे हैं।

इस मामले में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी कहते हैं, “इसे उनके उद्धरण के रूप में लें, मेरी राय में, इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग की तटस्थता और स्वतंत्रता के बीच कोई अंतर नहीं है। दोनों स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकरण हैं जिन्हें जानबूझकर कार्यपालिका से अलग किया गया है। सीईसी और ईसी को बुलाने की बात नहीं है, पीएम के पीएस बैठक के सार्वजनिक ज्ञान के बिना और इसमें क्या हुआ, ईसीआई को भी नहीं बुला सकते हैं। सभी तरह के राजनेता अपनी याचिकाओं या शिकायतों या सुझावों के साथ नियमित रूप से चुनाव आयोग के पास आते हैं, लेकिन पूरी पारदर्शिता के साथ। मैं अपने दो सहयोगियों की उपस्थिति पर जोर देते हुए, उनमें से किसी से भी अकेले नहीं मिला। पारदर्शिता यहाँ महत्वपूर्ण शब्द है और पारदर्शिता की धारणा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।”

अब, प्रोटोकॉल के बारे में बात करते हैं, हालांकि यह गौण है। सीईसी वरीयता के वारंट में बहुत अधिक है – नौवां, जबकि पीएस टू पीएम 23 वां है। ऐसे उच्च संवैधानिक पदाधिकारी को किसी अधिकारी के साथ बैठक में भाग लेने के लिए कैसे बुलाया जा सकता है, चाहे वह कितना ही उच्च और शक्तिशाली क्यों न हो? कानून मंत्रालय, जो सभी कानूनी और संवैधानिक मामलों पर सरकार को सलाह देता है, को यह बेहतर पता होना चाहिए कि पीएमओ सीईसी/ईसी के भाग लेने की “उम्मीद” करता है।”

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी ने इंडियन एक्सप्रेस में अपने लेख में कहा…

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरेशी ने इंडियन एक्सप्रेस में अपने लेख में कहा… “शुक्रवार की सुबह मैं इंडियन एक्सप्रेस की एक शॉकिंग हेडलाइन के साथ उठा, जिसमें लिखा था कि मुख्य चुनाव आयुक्त और दो अन्य चुनाव आयुक्तों को पीएमओ की ओर से प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव के साथ बैठक के लिये बुलाया गया।

शुक्रवार की सुबह मैं इंडियन एक्सप्रेस की एक शॉकिंग हेडलाइन के साथ उठा, जिसमें लिखा था कि मुख्य चुनाव आयुक्त और दो अन्य चुनाव आयुक्तों को पीएमओ की ओर से प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव के साथ बैठक के लिये बुलाया गया।

मुझे 27 जून 2006 की वो घटना याद आ गई, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मुख्य सचिव पुलक चटर्जी ने मुझे यह खबर दी थी कि मुझे चुनाव आयुक्त के रूप में नियुक्त करने को लेकर विचार किया जा रहा था और साथ ही यह सवाल भी किया था कि क्या आप यह स्वीकार करेंगे?

सरकार में पोस्टिंग वैकल्पिक नहीं है; आप अभी नियुक्त हैं। फिर यह सवाल क्यों? इसका कारण चटर्जी ने साफ कर दिया। मुझे आईएएस के अपने पद से इस्तीफा देना पड़ेगा। चुनाव आयुक्त बनने के लिये मुझे आईएएस के अपने पद से इस्तीफा क्यों देना पड़ेगा? ईसी के रूप में नियुक्ति सशर्त क्यों थी? इसमें कार्यपालिका/सरकार से दूरी बनाने का महत्वपूर्ण संवैधानिक सिद्धांत निहित है। महत्वपूर्ण बात यह है कि मेरे और मुझे नियुक्त करने वाले प्रधानमंत्री के बीच एक दीवार खड़ी कर दी गई थी।

भारत सरकार के सचिव के रूप में, मैं प्रधान मंत्री की दया पर था, लेकिन चुनाव आयोग के रूप में, मैं स्वतंत्र, तटस्थ और उनसे दूर था। उनसे मिलने या किसी अनुरोध के साथ मुझे बुलाने का कोई सवाल ही नहीं था, किसी निर्देश की तो बात ही छोड़िए। वह मुझे नियुक्त कर सकते थे, लेकिन मुझे आदेश नहीं दे सकते थे, या चीजों की संवैधानिक योजना के कारण मुझे हटा नहीं सकते थे। स्वतंत्र चुनाव आयोग राष्ट्र को संविधान की देन है। स्वतंत्र और निष्पक्ष और विश्वसनीय चुनाव, चुनाव आयोग की अनिवार्य शर्त है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा बताते हुए बार-बार इस बात पर जोर दिया है।

पीएमओ द्वारा न केवल सीईसी बल्कि पूर्ण पीठ को बुलाना या “आमंत्रित” करना संविधान का उल्लंघन है, भले ही यह मुद्दा कितना भी महत्वपूर्ण या जरूरी क्यों न हो! पीएम के पीएस की तो बात ही छोड़िए, यहां तक ​​कि खुद ताकतवर पीएम भी इस अस्वीकार्य कृत्य में शामिल नहीं हो सकते। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री के पीएस प्रधान न्यायाधीश को इस तरह का सम्मन जारी करते हैं, पूर्ण पीठ के साथ आते हैं और न्यायिक सुधारों पर उनके साथ बैठक में भाग लेते हैं? वह अदालत की अवमानना ​​के मामले में कवर के लिए दौड़ेंगे।

कुरैशी के इस लेख के बाद मीडिया में हो रही चर्चा को लेकर कई सवाल खड़े किये जा रहे हैं। मौजूदा मामले पर चुनाव आयोग के अधिकारियों ने सफ़ाई दी है कि आयोग (ईसी) और प्रधानमंत्री आफिस के बीच वीडियो कांफ्रेंस प्रोटोकॉल का उल्लंघन शामिल नहीं है। आयोग के अधिकारियों कहना है कि चुनाव सिधार के प्रस्ताव कानून मंत्रालय और ईसी के बीच लंबे समय से लंबित थे।इस विचार-विमर्श ने लंबे समय से लंबित सुधार प्रस्तावों पर आगे बढ़ने में मदद की। उन्होंने इस पर संवैधानिक व्यवस्था के उल्लंघन के आरोपों का खंडन किया है।

परम्परा के अनुसार चुनाव आयोग के सदस्य लोगों की निगाह में अपनी स्वतंत्रता और तटस्थता बनाए रखने के उद्देश्य से सरकार से सुरक्षित दूरी बनाए रखते हैं। हालांकि, चुनाव के लिए केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की तैनाती को लेकर गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय के साथ उनकी नियमित चर्चा होती रहती है।

वरिष्ठ पत्रकार राम दत्त त्रिपाठी का कहना है कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है और बहुदलीय लोकतंत्र में उसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता असंदिग्ध होनी चाहिए।

चुनाव आयोग के पदाधिकारी ने मीडिया से कहा कि पीएमओ द्वारा एक संक्षिप्त अनौपचारिक चर्चा के लिए अनुरोध किया गया था कि सीईसी और चुनाव आयुक्त उन मुद्दों के बारे में अपने विचार साझा करें, जिन पर चुनाव आयोग और कानून मंत्रालय के अधिकारी के बीच सहमति नहीं थी।

एक अंग्रेज़ी अख़बार ने अपने सूत्र के हवाले से लिखा है कि कानून मंत्रालय ने पूर्व में ईसी को लिखा था कि सीईसी को पीएमओ के साथ चुनावी सुधारों को लेकर आयोजित एक फॉर्मल मीटिंग में शामिल होना चाहिए।

सीईसी सुशील चंद्रा ने कहा कि उन्होंने कानून मंत्रालय के पत्र का कड़ा विरोध किया और मध्यस्थता करने वालों से कहा कि सीईसी या ईईसी से ऐसी बैठक का हिस्सा बनने की उम्मीद करना बेहद अनुचित था।

क्या है पूरा मामला

मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा और साथी आयुक्त राजीव कुमार और अनूप चंद्र पांडे ने हाल ही में चुनाव आयोग और कानून मंत्रालय के बीच प्रमुख चुनावी सुधारों की समझ में अंतर को पाटने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ एक अनौपचारिक बातचीत की थी। इस बातचीत को लेकर विपक्ष ने केंद्र पर कड़ा हमला किया है। हालांकि, चुनाव आयोग के सूत्रों ने जोर देते हुए कहा कि ऐसा करने में औचित्य का कोई सवाल नहीं उठता है।

उन्होंने बताया कि आयोग चुनाव कानूनों में सुधारों और संबद्ध मुद्दों पर जोर देता रहा है तथा नवंबर में डिजिटल माध्यम से हुई बातचीत कानून मंत्रालय एवं निर्वाचन आयोग के बीच विभिन्न बिंदुओं पर परस्पर समझ को समान बनाने के लिए की गई।

इस घटनाक्रम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए विपक्ष ने केंद्र सरकार पर प्रहार किया और आरोप लगाया कि वह निर्वाचन आयोग से अपने मातहत जैसा व्यवहार कर रही है।

कांग्रेस महासचिव एवं मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने आरोप लगाया कि सरकार देश में संस्थाओं को नष्ट करने के मामले में और अधिक नीचे गिर गई है। सुरजेवाला ने कहा, ‘चीजें बेनकाब हो गई हैं। अब तक जो बातें कही जा रही थी वे सच हैं।’

कांग्रेस महासचिव एवं मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने आरोप लगाया कि सरकार देश में संस्थाओं को नष्ट करने के मामले में और अधिक नीचे गिर गई है। सुरजेवाला ने कहा, ‘चीजें बेनकाब हो गई हैं। अब तक जो बातें कही जा रही थी वे सच हैं।’ उन्होंने आरोप लगाया, ‘स्वतंत्र भारत में कभी नहीं सुना गया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा मुख्य निर्वाचन आयुक्त को तलब किया गया हो। निर्वाचन आयोग के साथ अपने मातहत के तौर पर व्यवहार करने से साफ है कि (नरेंद्र) मोदी सरकार हर संस्था को नष्ट करने के मामले में और भी नीचे गिर चुकी है।’

निवार्चन आयोग सूत्रों ने कहा कि चुनाव सुधारों पर सरकार और आयोग के बीच सिलसिलेवार पत्राचार के बीच, पीएमओ ने तीनों आयुक्तों के साथ अनौपचारिक बातचीत आयोजित करने की पहल की।

इस खबर के बारे में पूछे जाने पर कि कानून मंत्रालय ने आयोग को एक पत्र भेज कर कहा था कि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव सामान्य मतदाता सूची पर एक बैठक की अध्यक्षता करेंगे और ‘उम्मीद’ की जाती है कि सीईसी उपस्थित रहेंगे। सूत्रों ने कहा कि तीनों आयुक्त औपचारिक बैठक में शरीक नहीं हुए।

इस खबर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पूर्व मुख्य निवार्चन आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने कहा कि यह बिल्कुल ही स्तब्ध कर देने वाला है। अपनी टिप्पणी को विस्तार से बताने का आग्रह किये जाने पर उन्होंने कहा कि उनके शब्दों में हर चीज का सार है।

सूत्रों ने बताया कि कानून मंत्रालय के अधिकारयों के अलावा आयोग के वरिष्ठ अधिकारी औपचारिक बैठक में शरीक हुए।

कानून मंत्रालय में विधायी विभाग निर्वाचन आयोग से जुड़े विषयों के लिए नोडल एजेंसी है। सूत्रों ने बताया कि पीएमओ के साथ अनौपचारिक बातचीत का परिणाम केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में दिखा, जिसने विभिन्न चुनाव सुधारों को मंजूरी दी, जिस पर आयोग जोर दे रहा था। इन सुधारों में आधार को स्वैच्छिक आधार पर मतदाता सूची से जोड़ना, हर साल चार तारीखों को योग्य युवाओं को मतदाता के तौर पर अपना पंजीकरण कराने की अनुमति देना आदि शामिल हैं। सूत्रों ने इस बात का जिक्र किया कि महत्वपूर्ण चुनाव सुधार पिछले 25 वर्षों से लंबित हैं। आयोग चुनाव सुधारों के लिए जोर देते हुए सरकार को पत्र लिखता रहा है और कानून मंत्रालय स्पष्टीकरण मांगता रहा है।

सूत्रों ने बताया कि अनौपचारिक बातचीत ने मुख्य मुद्दों पर सहमति बनाने में मदद की। आयोग के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने कहा, ‘इस तरह से सुधार करने होंगे।’

सूत्रों ने कहा कि सुधारों के लिए जोर देने में कोई औचित्य नहीं है। उन्होंने याद दिलाया कि मुख्य निर्वाचन आयुक्तों ने (पूर्व कानून मंत्री) रविशंकर प्रसाद सहित मौजूदा कानून मंत्री किरेन रिजिजू को पत्र लिखे थे तथा चुनाव सुधार लागू करने में उनकी मदद मांगी थी। आमतौर पर, कानून मंत्री और विधायी सचिव निर्वाचन सदन में विभिन्न मुद्दों पर निर्वाचन आयुक्तों के साथ बैठक करते रहे हैं। आयुक्तों ने प्रोटोकॉल के तहत कभी मंत्रियों के साथ बैठक नहीं की, क्योंकि आयोग एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है।

इस बीच कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने चुनाव सुधार पर पीएमओ में एक बैठक के लिए आयोग को तलब करने के मुद्दे पर शुक्रवार को लोकसभा में कार्यस्थगन प्रस्ताव का नोटिस दिया। तिवारी ने नोटिस में निर्वाचन आयोग की स्वायत्तता पर सवाल खड़े किये थे।

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