यूपी विधानसभा चुनाव : नजरिया पुराना, हकीकत नयी

उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों के बारे में अभी जो भी आंकलन किये जा रहे हैं, वह अधकचरे और बेमानी हैं सही स्थिति चुनाव से 15 दिन पूर्व आगामी फ़रवरी माह में ही स्पष्ट होगी। इस बीच तमाम बड़े मुद्दे हैं, जो मतदाता के निर्णय को प्रभावित करेंगे और इनके बारे में कुछ कहना अभी बहुत कठिन है।

उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों के बारे में अभी जो भी आंकलन किये जा रहे हैं, वह अधकचरे और बेमानी हैं सही स्थिति चुनाव से 15 दिन पूर्व आगामी फ़रवरी माह में ही स्पष्ट होगी। इस बीच तमाम बड़े मुद्दे हैं, जो मतदाता के निर्णय को प्रभावित करेंगे और इनके बारे में कुछ कहना अभी बहुत कठिन है। लखीमपुर कांड या पुलवामा जैसी आकस्मिक घटनायें भी अंतिम समय में मतदाता के निर्णय को प्रभावित कर सकती हैं। इस समय किसी भी राजनैतिक दल और उसके नेताओं के लिये ‘अभी दिल्ली दूर है’, का पुराना मुहावरा ही उपयुक्त है।

प्रदीप माथुर

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ही राजनैतिक दलों को सत्ता में लाते हैं और चुनाव ही उन्हें सत्ता से बाहर करते हैं। इसलिये चुनावों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। पर लगता है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सदैव चुनाव के दौर में ही रहती है। एक चुनाव समाप्त हुये नहीं कि दूसरे की बात शुरू हो जाती है। इसलिये विगत मई के प्रथम सप्ताह में जैसे ही पश्चिम बंगाल विधान सभा के परिणाम आये, नौ–दस महीने आगे आने वाले उत्तर प्रदेश और चार अन्य राज्यों के चुनाव की बात होने लगी। अभी भी चुनाव दो–तीन महीने दूर है पर चुनाव का माहौल इतना गर्म है कि हर दिन सुबह उठकर लगता है कि शायद आज ही चुनाव की तिथि है।

चा​हे नेताओं के भाषण और वक्तव्य हों, चाहे मीडिया की रिपोर्ट हो या फिर चुनाव समीक्षकों की बहस, सब लोग एक ही तरह की घिसी पिटी बातें कर रहे हैं और सुबह शाम उनको दोहरा रहे हैं। इसी कारण चुनावों को देखने का एक निश्चित नजरिया बन गया है और हम लोग उससे अलग हट कर सोच ही नहीं रहे है। पर वास्तविकता यह नहीं है। स्पष्ट है कि मतदान राजनैतिक परिदृश्य की वास्तविकता के आधार पर होगा न कि हमारे उस नजरिये के अनुरूप, जो हमारी निश्चित मान्यताओं और पूर्वाग्रहों पर आधारित है।

ललितपुर: चुनावी दंगल में अखिलेश यादव ने योगी सरकार को खूब सुनाई खरी-खोटी
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष व पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने ललितपुर में आज अपनी चुनावी सभा के दौरान यूपी की मौजूदा योगी सरकार और खुद योगी आदित्यनाथ पर जमकर जुबानी हमले किये।

संक्षेप में यह पूर्वाग्रह निम्न है—

  • पूरा चुनाव जातीय समीकरण पर आधारित है और हम अगर यह समझ लें कि कौन सी जाति किस पार्टी के साथ है तो चुनाव परिणामों का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
  • बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के लिये धार्मिक धुर्वीकरण जातीय समीकरण पर भारी पड़ता है।
  • महंगाई, बेरोजगारी और लचर अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों का चुनावों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।
  • नेहरू गांधी परिवार ने कांग्रेस को अपने शिकंजे में जकड़ रखा है और जब तक कांग्रेस इससे मुक्त नहीं होगी, कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं है।
  • मुसलमानों की राष्ट्रभक्ति संदिग्ध है। वे पाकिस्तान से प्रेम करते हैं।
  • भारत से सच्चा और वास्तविक प्रेम केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस ) पृष्ठभूमि के लोग और भाजपा के कार्यकर्ता ही करते हैं।
  • मुसलमानों से कौमी भाव रखने वाले और गंगा-जमुनी संस्कृति से प्रेम करने वाले बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय का देशप्रेम समर्पण के भाव से रहित है।
  • अमेरिका हमारा साझा मित्र है और चीन तथा पाकिस्तान हमारे जानी दुश्मन, जो हमें बर्बाद करने के लिए कटिबद्ध हैं।

इस तरह की तमाम आधी अधूरी मान्यताएं हैं, जिनके आधार पर हम चुनाव परिणामों का प्राकलन करना चाहते हैं। पर ये समस्याएं हमारे सामने आती हैं। एक तो हम इन मान्यताओं के आधार पर मतदाता के मन पर सम्पूर्ण प्रभाव का आकलन नहीं कर पाते हैं।दूसरी ओर हम इस परिवर्तन की प्रकिया को भी नहीं समझ पाते, जो एक समाज के जीवन की वास्तविकता है।

{इस वैचारिक सन्दर्भ में यदि हम आने वाले चुनावों को, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के चुनाव देखें तो हमें पता लगेगा कि पिछले वर्षों में कई ऐसी बातें हुई हैं, जिनका हम संज्ञान नहीं ले रहे हैं और यह चुनाव परिणामों को अवश्य ही प्रभावित करेगी।

ये बातें हैं…

अखिलेश यादव के प्रति विश्वास बढ़ा है और वह स्वतंत्र रूप से निर्णय भी ले रहे हैं। उनकी अभिव्यक्ति में भी पैनापन आया है और वह प्रेस से बात करते समय एक परिपक्व नेता लगते हैं।
  • अखिलेश यादव के प्रति विश्वास बढ़ा है और वह स्वतंत्र रूप से निर्णय भी ले रहे हैं। उनकी अभिव्यक्ति में भी पैनापन आया है और वह प्रेस से बात करते समय एक परिपक्व नेता लगते हैं।
  • बाहर के लोग चाहे जो भी कहें-समझें, 90 प्रतिशत कांग्रेसी अभी भी नेहरू-गांधी परिवार के नेतृत्व में आस्था रखते हैं और सोनिया राहुल और प्रियंका को ही अपना नेता मानते हैं।
  • उत्तर प्रदेश की राजनीति भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस के चार कोणों में बंटी थी, जो तीन कोणों में सिमट गयी है, जिसमें भाजपा, सपा और कांग्रेस है।
  • योगी की भाजपा सरकार, जो भी उपलब्धियां गिना रही है और जो भी नयी परियोजनाएं चला रही हैं, वह मूलतः मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के लिये विकासपरक है। वह आर्थिक ढांचे में आधारभूत परिवर्तन कर वंचित वर्ग के दूरगामी विकास के लिये उपयुक्त नहीं है।
  • उत्तर प्रदेश के जनमानस की मूल प्रवृत्ति सांस्कृतिक सद्भाव की है। धार्मिक अलगाव उस पर थोपी हुई एक संवेदनशील और भावना प्रतिरेक प्रवृत्ति है, जो प्रदेश के समाज की परिभाषा नहीं है। इसलिये ध्रुवीकरण एक रणनीति तो हो सकती है पर वह उत्तर प्रदेश के आम आदमी की चेतना का स्थायीभाव नहीं है।
  • इसके विपरीत जातिगत सचेतना उत्तर प्रदेश के आम आदमी की मूल प्रवृत्ति का स्थायी भाव है। इसलिये चुनाव के जातीय समीकरण की बात होती है।
  • शहरीकरण, आर्थिक विकास और मीडिया के बढ़ते प्रसार, विशेषत: सोशल मीडिया ने चुनावों के जातीय आधार को बहुत कमजोर किया है। वर्ष 2014 के बाद वर्ष 2017 और वर्ष 2019 के चुनावों में भाजपा की सफलता ने दिखाया कि मतदाता जातीय समीकरण का गुलाम नहीं है।
पिछले चुनावों में भाजपा की सफलता का कारण राम मन्दिर मुद्दा उतना नहीं था, जितना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का 15 लाख रुपये, 2 करोड़ रोजगार और सूचना तकनीकी की नयी संस्कृति लाने के लुभावने वायदे थे।

आर्थिक मुद्दे निश्चित रूप से युवा मतदाता को बहुत प्रभावित कर रहे हैं। पिछले चुनावों में भाजपा की सफलता का कारण राम मन्दिर मुद्दा उतना नहीं था, जितना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का 15 लाख रुपये, 2 करोड़ रोजगार और सूचना तकनीकी की नयी संस्कृति लाने के लुभावने वायदे थे। इसलिये यह कहना कि आर्थिक मुद्दे चुनावों में कोई बड़ी भूमिका में नहीं होंगे, कहना गलत है।

किसान आन्दोलन, अखिलेश यादव का चुनाव प्रचार और कांग्रेस की पुनःस्थापना की रणनीति, यह स्पष्ट संकेत देती है कि अ​ब सार्वजनिक जीवन का नीति निर्धारण गहरे मंथन और विचार विनिमय से हो रहा है न कि विचार शून्यता से। स्पष्ट है कि विचार मंथन, गहन आंतरिक संवाद और तर्कपूर्ण हमारी राजनीति परम्परागत विचारशून्यता को समाप्त कर रहे हैं।

यह मात्र संयोग नहीं हो सकता कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रमुख विरोधी सपा और कांग्रेस के नेता एक दूसरे के विरोध में नहीं बोल रहे हैं। साथ ही साथ कांग्रेस और सपा एक दूसरे के परम्परागत वोट बैंक में सेंध लगाने का कोई भी ऐसा प्रयास नहीं कर रहे हैं, जो वोट विभाजन से भाजपा को लाभ पहुंचाये।

उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रमुख विरोधी सपा और कांग्रेस के नेता एक दूसरे के विरोध में नहीं बोल रहे हैं। साथ ही साथ कांग्रेस और सपा एक दूसरे के परम्परागत वोट बैंक में सेंध लगाने का कोई भी ऐसा प्रयास नहीं कर रहे हैं, जो वोट विभाजन से भाजपा को लाभ पहुंचाये।

यह एक कटु सत्य है कि किसान आन्दोलन को गांधीवादी मार्ग से विचलित करने के लिए कई घिनौने प्रयास किये गये, पर किसान नेताओं ने जिस शांति और बुध्दिमत्ता से इनको विफल किया, वह वैचारिक गम्भीरता के बिना सम्भव ही नहीं थी। इसमें किसान आन्दोलन के सहायक बुध्दिजीवी वर्ग का योगदान स्पष्ट दिखता है।

वैचारिक रूप से धनी होती राजनीति हमारे लिये एक प्रतिशुभ संकेत है। हम यह आशा कर सकते हैं कि यह हमारी राजनीति को शिक्षा, स्वास्थ्य और जीविका जैसे विकास के वास्तविक मुद्दों की ओर ले जायेगा, जिससे समाज का सर्वांगीण विकास सम्भव होगा।

मूल प्रश्न यह है कि यदि हमारे समाज की मानसिकता परिवर्तित हो रही है तो इसका चुनाव परिणामों पर क्या प्रभाव पड़ेगा | समस्या यह है कि मीडिया और मीडिया से प्रभावित जनमानस चाहता है कि वह तुरन्त पता लगा ले कि किस पार्टी को कितनी सीटें मिल रही है और कौन मुख्यमंत्री बन रहा है, यह जानना आवश्यक है लेकिन चुनाव से बहुत पहले की जाने वाली ऐसी भविष्यवाणी बेमानी होती है। सामान्यतया चुनाव परिणामों का सही आकलन मतदान से दो सप्ताह पहले करना सम्भव नहीं होता पर मीडिया और ओपिनियन पोल वाले चुनाव परिणामों का आंकलन मतदान से 150 दिन पहले ही करना शुरू कर देते हैं, जो गलत निकलता है।

विगत मार्च–अप्रैल में हुये पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनावों को देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इन विधान सभा चुनावों में भाजपा ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी।

विगत मार्च–अप्रैल में हुये पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनावों को देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इन विधान सभा चुनावों में भाजपा ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। किसी प्रधानमंत्री का एक राज्य के विधान सभा चुनावों के लिए राज्य में 17–18 बार जाना एक नया कीर्तिमान था। इससे प्रभावित होकर अपनी हकीकत को समझते हुए मीडिया ने कहना शुरू किया कि पश्चिम बंगाल में कांटे की टक्कर है। आम लोगों की भी यही धारणा बनी। लेकिन चुनाव परिणाम इसके ठीक विपरीत थे।

उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों के बारे में अभी जो भी आंकलन किये जा रहे हैं, वह अधकचरे और बेमानी हैं सही स्थिति चुनाव से 15 दिन पूर्व आगामी फ़रवरी माह में ही स्पष्ट होगी। इस बीच तमाम बड़े मुद्दे हैं, जो मतदाता के निर्णय को प्रभावित करेंगे और इनके बारे में कुछ कहना अभी बहुत कठिन है। लखीमपुर कांड या पुलवामा जैसी आकस्मिक घटनायें भी अंतिम समय में मतदाता के निर्णय को प्रभावित कर सकती हैं। इस समय किसी भी राजनैतिक दल और उसके नेताओं के लिये ‘अभी दिल्ली दूर है’, का पुराना मुहावरा ही उपयुक्त है।

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