योंही जल बहता जाता है…
योंही जल बहता जाता है...
हिमांशु जगतनिवासी
योंही जल बहता जाता है
सूखते हलक को तर कर जाता है,
मुरझाए पौधों को खिला जाता है,
योंही जल बहता जाता है.
शांत सा दिखने वाला ये नीर होली के रंगों में मिल कई रंग दिखा जाता है,
नृत्य करती नदियों से निरंतर बहता अंत में समुद्र का हो जाता है,
प्रकृति विनाशकों के सारे पाप खुद में समेट बस बहता जाता है.
शूल बनकर उसमें चुभता जब इंसानी कृत्य है अपनी यशोधरा पर प्रहार वो सह नहीं पाता है,
कभी आफ़त बनकर बरसता है तो कभी रौद्र रूप ले जल लावन हो जाता है.
किनारे नदी का नहीं खुद नदी अपना रास्ता तय करती है,
अपनी छाती पर बने इस कंक्रीट के जाल से हर वक्त जूझती जाती है,
खुद में बहा दी गई तेज़ाब को फिर वापस उड़ेलने बेताब नज़र आती है.
बहने दो अविरल इसे, तभी जल सही अक्स तुम्हारा दिखाता है.
योंही जल बहता जाता है.