गांधीजी को याद करना…
गांधी और आत्मशक्ति
- शिवदयाल, पटना
यह गांधी जी की डेढ़ सौवीं जयंती का साल है. अब 02 अक्टूबर को उनकी जयंती पूरी दुनिया अहिंसा दिवस के रूप में मनाती है. दो वर्ष पहले चम्पारण सत्याग्रह के सौ वर्ष पूरे होने पर हमने गांधी जी को और भारत में उनके प्रथम सत्याग्रह को याद किया था.
चम्पारण सत्याग्रह की सफलता ने उन्हें स्वतंत्रता-आंदोलन का नेता बना दिया, साथ ही अन्याय और दमन के खिलाफ एक नई युक्ति के जनक के रूप में दुनिया ने उन्हें स्वीकार कर लिया. तब से भारतीय चेतना में गांधी जी बसे हुए हैं. उनकी वह अधनंगे फकीर वाली छवि भारतीय मन में आज भी सबसे ऊँचे आसन पर विराजमान है.
सवाल है कि हम डेढ़ सौ साल के गांधी जी को क्यों याद करें? इसलिए कि वे राष्ट्रपिता हैं, इसलिए कि वे स्वतंत्रता-आंदोलन के सबसे बड़े नेता थे या इसलिए कि यह परिपाटी है? परिपाटी है और इसे चलाते जाना है तब तो कोई बात नहीं, लेकिन सौभाग्य से भारत और दुनिया में अनेक लोग हैं, जो गांधी को याद करना किसी परिपाटी, परम्परा या कर्मकाण्ड का निर्वाह भर नहीं मानते. गांधी एक मूल्य हैं, संत्रस्तों के मुक्ति-स्वप्न हैं, दिशाहारों के ध्रुवतारा हैं. वे ऐसा मानते हैं, और हम भी उनमें शामिल हैं.
गांधी जी के आचरण तथा संदेशों-उपदेशों में ‘आत्म’ पर बहुत जोर है. आत्मशक्ति, आत्मबल, आत्मोन्नति, आत्म-हनन, आत्मज्ञान, अंतर-आत्मा इत्यादि. वे आत्म यानी स्वयं से आरंभ करके समाज और राष्ट्र को उपलब्ध होते हुए विश्वजनित मूल्यों के सृजनहार और धारक बन जाते हैं. उन्हें आत्मा की सृजन करने की अनंत शक्ति पर आस्था है. किसी भी विचार-संधान, उद्यम-पराक्रम के लिए पहले वे खुद पर से होकर गुजरते हैं. वास्तव में वे एक समाज वैज्ञानिक की तरह अपने विचारों की शक्यता का निरीक्षण-परीक्षण-सत्यापन करते हैं. उनका आत्म, जिसमें शरीर शामिल है, उनके लिए प्रयोगशाला बनता है. वे अपने से शुरू होकर अन्य तक पहुँचते हैं. यानी बदलाव की शुरुआत खुद से!
उन्हें पहले दक्षिण अफ्रीका और फिर भारत में दुनिया के सबसे दुर्दमनीय सत्ताओं से टकराना है. किसी भी हिंसक पहल को और बड़ी हिंसा से दबा दिया जाएगा. फिर क्या करें? इसी प्रश्न के समाधान के लिए वे आत्मशक्ति के संधान में जुटे. भारतीय परम्परा और शास्त्र इस काम में उनकी सहायता करते हैं, राह दिखाते हैं.
यह आत्म नियंत्रण, इन्द्रिय निग्रह, इन्द्रिय दमन आदि सब युक्तियां वास्तव में आत्मबल जगाने के ही उद्यम हैं. गांधी जी ने अपनी पूरी जीवनचर्या को इसी अनुरूप ढाला और यह प्रक्रिया दक्षिण अफ्रीका प्रवास में ही शुरू हो गई. सत्य के अन्वेषण में अपनी देह और चित्तवृति को इसी अनुरूप बनाने और विकसित करने की कोशिश में अंत तक लगे रहे. उनकी यही आत्मशक्ति कालातंर में विपुल जनशक्ति का पर्याय बन गई, उसके साथ एकरूप हो गई.
यहाँ इस तथ्य को अलग से रेखांकित करने की जरूरत है कि गांधी जी ने चरम हिंसा के दौर में अहिंसा, अहिंसक प्रतिरोध की सैद्धान्तिकी और रणनीति औपनिवेशिक दमन में पिसते एक परतंत्र देश में गढ़ी, जिसे दुनिया भर में कहीं भी आजमाया जा सकता था. इसी क्रम में उन्होंने इतिहास में पहली बार राजनीतिक लड़ाई के लिए सत्य, अहिंसा, अस्तेय अपरिग्रह जैसे संज्ञा-विशेषणों का सच्ची निष्ठा से प्रयोग किया. वे इन शब्दों को धर्मशास्त्रों की परिधि से बाहर खींच लाए और एक प्रकार से राजनीति को धर्मकाज बना दिया.
सत्य और न्याय को प्रतिष्ठापित करने की राजनीति
उनकी राजनीति सत्य और न्याय को प्रतिष्ठापित करने की राजनीति थी और इसका विश्वव्यापी असर हुआ. एशिया और अफ्रीका के परतंत्र देशों ने भारतीय स्वतंत्रता-आंदोलन से प्रेरणा ली और औपनिवेशिक शासन से मुक्ति पाई. तब भी अनेक विचारक गांधी जी के राजनीतिक कर्म के ऊपर उनकी धार्मिक-आध्यात्मिक प्रेरणाओं और उपलब्धियों को रखते हैं.
गांधी जी ने स्वयं भी माना है कि उनकी राजनीतिक संलग्नता वास्तव में सत्य और ईश्वरोपलब्धि के मार्ग का एक पड़ाव मात्र है, उनका जीवनोद्देश्य नहीं. वे कहते हैं कि मेरे राजनीतिक अनुभवों का मेरे लिए कोई विशेष मूल्य नहीं है, परंतु आध्यात्मिक जगत में सत्य के प्रयोगों ने ही मेरा वास्तविक जीवन बनाया है. वे स्वीकार करते हैं, सत्य का पुजारी होने के कारण मुझे राजनीति में आना पड़ा है; और मैं बिना तनिक भी संकोच के तथा पूर्ण नम्रता से कह सकता हूँ कि जो लोग यह कहते हैं कि धर्म का राजनीति से कुछ संबंध नहीं, वे नहीं जानते कि धर्म का अर्थ क्या है. इसीलिए गांधी जी किसी भी स्थिति में किसी भी कीमत पर सत्य-अहिंसा से डिग नहीं सकते, उससे विरत नहीं हो सकते.
हर विचार के मूल में सत्य और अहिंसा
गांधी जी के हर विचार के मूल में सत्य और अहिंसा है. उनका छोटा-से-छोटा सरोकार और बड़ी से बड़ी चिंता इन्हीं के साथ जुड़ी है, बद्धमूल है. सत्य और अहिंसा साध्य भी है, साधन भी. सत्य और अहिंसा की स्थापना के लिए सत्य और अहिंसा को अपनाना है, आजमाना है. यहाँ साधन और साध्य का अंतर मिट जाता है. राजनीति के क्षेत्र में इस सिद्धांत को आजमाने का अर्थ हुआ कि गांधी जी की कल्पना और आग्रह राजनीतिक सत्ता को भी अहिंसक बनाने का है.
गांधी जी के यहाँ यदि स्वल्पता, यानी थोड़े में गुजारा और त्याग से अर्जित आत्मबल है तो सत्य-आचरण और अभ्यास से लब्ध पारदर्शिता भी है. अन्तर और बाह्य के बीच कोई पर्दादारी नहीं, पूर्ण पारदर्शिता! सत्य खुला और अनावृत है. गांधी जी को गोपनीयता से घृणा है, क्योंकि उसमें सत्य को छुपाया गया है, असत्य की प्रतिष्ठा की गई है. उनके लिखने-कहने में भी यह पारदर्शिता कायम रहती है. उन्होंने अपने लिए एक भाषा को साध लिया है, जो संवाद के सबसे लोकतांत्रिक तरीके को संभव बनाती है.
आडम्बरहीन भाषा जिसमें कहनेवाला नहीं, कहा जानेवाला (कथ्य, विषय) महत्वपूर्ण है. हमारे संत कवियों ने इसी भाषा को साधा है. उनके लिए विषय महत्वपूर्ण है. वे भाषा को वर्चस्व का माध्यम नहीं बनने देना चाहते हैं, वे भाषा को वर्चस्व तोड़ने में इस्तेमाल करना चाहते हैं. उनकी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा संबंधी संकल्पनाएँ इसी आशय से जुड़ी हैं.
गांधी जी का संवाद अनोखा
गांधी जी का संवाद अनोखा है. वे व्यक्ति को नहीं, उसकी अंतरात्मा को सम्बोधित करते हैं. उसके अंदर की मनुष्यता, सद्गुणों, उसकी न्यायबुद्धि को ललकारते हैं. वे कहते हैं, मेरी नहीं, अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनो. वे जिस ओर कदम बढ़ाते हैं, कोटि-कोटि पग उसी ओर बढ़े चले आते हैं. यह साधारण मनुष्य से सच्चा मनुष्य बनने की यात्रा है.
प्रकृति को संसाधन के रूप में नहीं, माता के रूप में
गांधी जी प्रकृति को संसाधन के रूप में नहीं, माता के रूप में देखते हैं. उसे विजित बनाने, उसके शोषण-दोहन की कल्पना तक उनके मन में नहीं है. वे प्राचीन ऋषियों की तरह उसके प्रति कृतज्ञता से भरे हुए हैं. वे मानते हैं कि प्रकृति से विरत होकर सत्यनिष्ठ जीवन संभव नहीं, बल्कि एक सीमा के बाद साधारण जीवन भी संभव नहीं. प्राकृतिक संसाधनों और उपादानों पर इस ग्रह के हर जीव-जंतु का अधिकार है. इस अधिकार का अतिक्रमण और हरण वर्तमान सभ्यता की एक साधारण विशेषता है.
गांधी जी उत्पादन और उपभोग की इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं, जो लोभ-लालच और हिंसा पर टिकी हुई है, जिसने मनुष्य को यंत्र का दास बना दिया है, जिसमें अबाध गति से प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हो रहा है, वह भी कुछ मुट्ठी भर लोगों के ऐशोआराम के लिए. इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिए ही मानो आधुनिक विज्ञान और तकनीक का उपयोग किया जा रहा है.
वे ऐसा विज्ञान चाहते हैं जो मनुष्य की लोभवृत्ति को तुष्ट करने के लिए नहीं हो, बल्कि जिसमें प्रकृति और जीवन के रहस्यों के प्रति वास्तविक जिज्ञासा उद्घटित होती हो, जो ऐसे यंत्रों और तकनीक का ईजाद करे, जो मनुष्य समाज में आपसी सहयोग के साथ ही पर्यावरण और प्रकृति के संरक्षण-संवर्द्धन को बढ़ावा दे, जिससे साधनहीन मनुष्य भी अपना कल्याण कर सकने में सक्षम बने. विज्ञान से जुड़े लोगों को विज्ञान को इस दिशा में आगे बढ़ाने की चुनौती स्वीकार करनी है.
सत्य-अहिंसा और अपरिग्रह की उपलब्धि विकेन्द्रीकरण के बिना नहीं
सत्य-अहिंसा और अपरिग्रह की उपलब्धि विकेन्द्रीकरण के बिना नहीं हो सकती. गांधीजी राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण चाहते हैं. प्रत्येक गाँव उत्पादन केन्द्र के रूप में विकसित हो, अपनी जरूरत का ज्यादातर सामान खुद बनाने और उपभोग करने में समर्थ हो. हर हाथ को काम हो. व्यक्ति की स्वायत्तता की रक्षा विकेन्द्रित व्यवस्था में ही संभव है. समाज के लिए उसकी महत्तम उपयोगिता भी इसी प्रकार सुनिश्चित की जा सकती है. केन्द्रीकरण वर्चस्व लाता है और वर्चस्व अलगाव पैदा करता है, और ये सब हिंसा के स्रोत हैं.
गांधी जी सच्चा मनुष्य बनाना चाहते हैं, इसलिए वे केवल महान या महानतम राजनीतिक नेता नहीं रह जाते, अध्यात्मिक पुरुष, शिक्षक और एक नवीन, उन्नत सभ्यता के अन्वेषक बन जाते हैं. गांधी जी की आदर्श-कल्पना आश्चर्यजनक रूप से उनके यथार्थ जीवन-कर्म में, व्यवहार में फलित दिखती है इसलिए कोई उनके विचारों को कपोल-कल्पना कहने या दिखाने का साहस नहीं कर सकता. इसका अभिप्राय यह है कि उनकी वैचारिक स्थापनाएँ कर्म के स्तर पर, प्रवर्तन के स्तर पर व्यवहार्य हैं, करणीय हैं.
उनके संदेश और उपदेश अमल करने योग्य हैं. उनके आदर्शों को एक हद तक जीवन में उतारा जा सकता है. हम उस ओर जाना न चाहें, उससे आँख चुराएँ. यह हमारी मर्जी है, हमारा चुनाव है.
धरती को जर्जर बना दिया है. नदियाँ मर रही हैं
हम जिस सभ्यता में जी रहे हैं, वह अपने परिपाक पर पहुँच रही है. इसके इसी रूप में आगे बढ़ने की सीमा स्पष्ट दिख रही है, और वस्तुतः आज इससे धरती पर जीवन के लिए ही विषम चुनौती प्रस्तुत हो रही है. असीमित उपभोग की लालसा ने हमारी धरती को जर्जर बना दिया है. नदियाँ मर रही हैं, जल-स्रोत विषैले हो रहे हैं. मिट्टी की उर्वरा-शक्ति घट रही है. साँस लेने के लिए स्वच्छ हवा तक दुर्लभ हो रही है. प्रकृति कुपित है, हम जलवायु संकट से दो-चार हैं. आगे आनेवाली पीढ़ी के लिए यह संकट और बड़ा और भयावह होनेवाला है.
आज सम्पूर्ण मानव जाति के समक्ष यह सबसे बड़ी चुनौती है कि वह अपने को और अपने साथ इस ग्रह के सहवासियों, जीवजंतुओं और वनस्पतियों को अस्तित्व के इस संकट में कैसे उबारे. फिलहाल तो विकल्प गांधी जी के बताए मार्ग के अनुसरण में ही सूझता है. बापू की इस डेढ़ सौवीं जयंती पर हमें इस दृष्टि से विचार करने की जरूरत है.
हमारी नियति एक है.
क्या गांधी का पुनराविष्कार आज की परिस्थिति में करना चाहिए? क्या उनकी लाठी की टेक हमें उबार लेगी? तब तक सोच और व्यवहार के स्तर पर हम इतना तो कर ही सकते हैं कि हम अपने जीवन में सच्चाई, प्रेम, सद्भाव, सहनशीलता और भाईचारा को स्थान दें, यह मानें कि हम सभी एक ही वृक्ष की शाखाएँ हैं, हमारी नियति एक है.