खादी, गांधी और मैं
कालेज के दौर में गांधी विचार को जाना. कुछ साहित्य पढ़ा और उसके नज़दीक आया. फिर कुछ-कुछ बातें गांधी की मानने लगा, जिसमें खादी अपनाना भी शामिल रहा. अस्सी के दशक में स्कूल और कालेज के जीवन में हिंदी आंदोलन के बाद मैं खादी के उत्पादन से तो नहीं, हां ग्रामोद्योग से जुड़ गया था. इसी बीच ऐसा भी दौर आया जब खादी के कपड़े खरीदने या बनाने के लिए पैसे नहीं होते थे, ऐसे दिनों में मैंने पावरलूम और मिल की सस्ती खादी के कपड़ों से काम चलाया. वैसे तब ग्लानि भी होती थी, लेकिन मजबूरी जो न कराए. हां, अगर मैं ग्रामोद्योग की जगह खादी उत्पादन से जुड़ा होता तो शायद यह नौबत नहीं आती.
अस्सी के दशक में ही खादी का कुर्ता पायजामा पहनने की वजह से एक अंग्रेजी दां प्रोफेसर ने मुझे यूनिवर्सिटी के कोर्स में दाखिले के इंटरव्यू में फेल कर दिया था, जिसका मुझे कोई अफसोस नहीं रहा. इसी दौरान कालेज के कार्यक्रम में यूनिवर्सिटी के कुलपति ने मुझे हिंदी विषय में सर्वाधिक अंक लाने पर जो सर्टिफिकेट दिया, उसका मेरा फोटो भी कुर्ते पायजामे में है. बीए की डिग्री की फोटो भी कुर्ते पायजामे में ली थी.
हालांकि खादी के अलावा भी और तरह का कुर्ता पायजामा मैंने पहना लेकिन सफर में ज्यादातर खादी के कपड़े पहनते रहा. बाद में अख़बारनवीसी और एक्टीविज्म के दौर में कई बार ऐसा भी रहा कि मैं सूट टाई वालों के कार्यक्रम में खादी का कुर्ता पायजामा पहन कर शामिल हुआ और खादी पहनने वालों के कार्यक्रम में सूट पहनकर शामिल हुआ. लेकिन जिंदगी में सबसे ज्यादा साथ इसी कुर्ते पायजामे ने दिया.
यही खादी के कपड़े मेरे लिए सहयात्रियों से संवाद और विवाद का कारण रहे. खादी का कुर्ता पायजामा पहने देखकर कुछ सहयात्रियों ने खादी और फिर गांधी को जानने की इच्छा दिखाई तो कुछ सहयात्रियों को इस खादी के कुर्ते पायजामें में मुझसे ईर्ष्या और चिढ़ भी हुई. लेकिन बातचीत में न तो कोई खादी को ख़ारिज कर सका और ना गांधी को.
खादी को लेकर लोगों में जो नकारात्मकता हुई, वो दरअसल खादी पहनने वाले उन नकली नेताओं के कर्मों के कारण हुई, जो दिखते और कहते तो कुछ और हैं और करते कुछ और हैं.
ऐसी स्थिति में मैंने वर्तमान दलगत राजनीति को अलग करके खादी व गांधी दर्शन प्रस्तुत किया तो लोग संतुष्ट भी हुए. हां, द्वेष रखने वाले एक विशेष विचारधारा के लोग खादी और गांधी का उपहास करते हुए भी मिले, जिनकी मैंने कभी परवाह नहीं की. सच कहूं तो उनको समझाने में मैंने प्रयास तो किए (और अभी भी करता हूं) लेकिन जब हठधर्मिता देखी तो ज़्यादा वक़्त न लगाया और न गंवाया. क्योंकि उनके मन मस्तिष्क को इतना दूषित किया गया होता है कि मेरे अल्पकालिक सम्पर्क में वह साफ हो ही नहीं सकता था. यह बात अब और भी सिद्ध होती जा रही है.
लेकिन सबसे अलग अनुभव मुझे मुसलमानों के साथ सम्पर्क में हुआ. सफ़र या और किसी तरह के सम्पर्क के दौरान मुस्लिम मेरी खादी के पहनावे और गांधीवादी होने पर आश्चर्य करते और कहते कि कैसे गांधीवादी मुसलमान हैं? तो मुझे उनकी बातचीत से जल्दी ही पता चल जाता कि वो गांधीजी के बारे में या तो कुछ नहीं जानते या फिर बंटवारे के वक्त की कुछ एकतरफा बातें जानते हैं. ऐसे में जब मैं उन्हें गांधीजी के जीवन के आखिरी छह महीने की कुछ घटनाओं के बारे में बताता हूं तो वह भौंचक्के हो जाते हैं.
बंटवारे के लिए और बंटवारे के वक्त के बुरे हालात के लिए कौन जिम्मेदार है, इस अनन्त बहस के बीच यह मुद्दा गुम हो जाता है कि बंटवारे के घोर साम्प्रदायिक माहौल में इस देश को सर्वधर्म समभाव की गारंटी देने वाले गांधीजी के अहम काम क्या क्या रहे. बहुत से लोग इन बातों से अनजान हैं, जबकि गांधीजी की जिंदगी के आखिरी कुछ दिन इसी जद्दोजहद में गुजरे थे. चाहे वह नोआखाली में शांति स्थापना की बात हो या फिर मेवात के मेव मुस्लिमों को भारत में बराबरी के हक़ के साथ रहने की गारंटी हो.
भारत का संविधान आजादी के वक्त नहीं था, जिसमें सभी धर्मों को बराबरी का हक दिया गया है. उस समय गांधीजी की ज़ुबान थी, जिसपर सभी लोगों ने भरोसा किया इसीलिए मेव मुस्लिमों के लिए 19 दिसम्बर 1947 का दिन आजादी के दिन से कम नहीं है, जब गांधी जी ने उन्हें भारत में रुकने की गारंटी दी थी. इसी तरह गांधी जी के 13 जनवरी 1948 के अंतिम अनशन के उस प्रभाव को लोग भूल जाते हैं जिसके कारण देश की राजधानी दिल्ली और उत्तर भारत में साम्प्रदायिक सद्भाव की नींव पड़ी थी. इस अनशन का समापन सभी पक्षों के इस आश्वासन के बाद हुआ था कि अब वह सद्भाव से रहेंगे. तब गांधीजी ने मौलाना आजाद के हाथों रस पीकर यह अनशन खत्म किया था.
आज के मुस्लिमों को इस बात का अंदाजा नहीं लग सकता कि बंटवारे के समय उनके लिए हालात किस क़दर दुश्वार थे और वह गांधी जी थे, जिनके कारण हालात उनके हक में बदले. गांधी जी की शहादत के पीछे अन्य कारणों के साथ-साथ यह भी बड़ा कारण था.
असल में आजादी के आन्दोलन में मुसलमानों का बड़ा तबका पाकिस्तान के समर्थन में नहीं, गांधी विचार के साथ था. देवबंद मसलक से जुड़े अधिकतर मुसलमान पाकिस्तान के साथ नहीं थे. उन्होंने 1857 से ही जंगे आजादी में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. बाद में खुदाई खिदमतगार मूवमेंट के जनक विख्यात गांधीवादी खान अब्दुल गफ्फार खान व मुस्लिम अहरार मूवमेंट के लीडर, जिसमें अताउल्लाह शाह बुखारी का नाम अहम है, पाकिस्तान बनने के खिलाफ थे. लेकिन आजादी के बाद यह बात अगली पीढ़ी को बताई ही नहीं गई. मुसलमानों के बरेली मसलक की बात छोड़िए. देवबंद मसलक के मुसलमानों की अगली पीढ़ी भी इससे बेखबर रही. इसमें बड़ा कारण मुसलमानों में औपचारिक शिक्षा की कमी भी है. यही कारण है कि मुझ जैसा कोई मुसलमान जब खादी पहने गांधीजी की बात करता है तो लोग आश्चर्य करते हैं.