विकास आधुनिक युग का देवता है
आजकल चारों तरफ, विकास का शोर है। हर बात पर,हर कदम पर ,हर नीति में, हर घोषणा में विकास छाया हुआ है। प्रत्येक व्यक्ति को,हर समूह और समुदाय को,हर समाज को,हर देश को सिर्फ और सिर्फ विकास चाहिए।यहाँ तक कि विकास नए -नए नारों में, नए पैक में प्रकट हो रहा है। कभी वह गरीबी हटाओ, तो कभी इंडिया शाइनिंग,फील गुड का रूप धारण कर आया था तो अब -सबका साथ सबका विकास- के जुमले में प्रकट हुआ है। विकास का हालिया धमाकेदार संस्करण, जो 25 किलो के बैग में 5 किलो अनाज के साथ छाया हुआ है। गरज यह है कि विकास आधुनिक युग का देवता बन गया है।राजा हो या प्रजा, किसी का भी काम इस देवता के बिना नहीं चल रहा है। सभी को चाहिए विकास की प्राण प्रतिष्ठा। इसके बिना जीवन अधूरा है। इसलिए हर कोई दौड़ रहा है- विकास की ओर। पर इस दौड़ का अंत क्या है, मंजिल कहाँ है?
उपभोक्तावाद विकास की उपासना पद्धति है
अगर विकास आधुनिक युग का देवता है,तो उपभोक्तावाद इसकी उपासना पद्धति। वैसे कायदे से तो इसे भोगवाद कहना चाहिए, लेकिन गांधी जयंती के अवसर पर इतने कड़े शब्दों का इस्तेमाल शायद मुफीद नहीं है,इसलिए परहेज किया गया है।
पूंजीवाद/उद्योगवाद यह सिखा रहा है कि विकास के दर्शन के लिए अधिक से अधिक उपभोग करें,क्योंकि जितना अधिक उपभोग होगा, उत्पादन की उतनी ही अधिक जरूरत होगी। उत्पादन और उपभोग के इस अनंत जुगलबंदी से बाजार कुलांचे मारेगा, चकाचौंध से भर जाएगा,जगमगा उठेगा। यह इसलिए जरूरी है कि विकास का देवता बाजार में ही निवास करता है,यही उसका मंदिर है। देवता का मंदिर तो रोशनी से सराबोर और भव्य होना चाहिए और बाजार आज वैसे ही सज रहे हैं।और अंततः विकास का देवता जब प्रसन्न होगा तो फिर जनता को,प्रजा को, भक्तों को कुछ न कुछ प्रसाद का वह जरिया भी बन सकेगा।
कितनी जमीन
लियो टॉलस्टॉय की एक कहानी है- कितनी जमीन। एक व्यक्ति किसी ऐसी जगह पर पहुंच जाता है, जहां चारों तरफ जमीन ही जमीन है।उसे लगता है कि उसकी भी कुछ जमीन होनी चाहिए।वह व्यक्ति वहां के रहने वालों से जमीन देने की गुजारिश करता है। उस समुदाय का प्रमुख उसके सामने प्रस्ताव रखता है कि सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक वह जितनी जमीन पर घूम लेगा, वह जमीन उसकी हो जाएगी। बस उसे जहां से चलना था, वहीं फिर पहुंचना होता।दूसरे दिन सुबह एक जगह से निकला और दौड़ता-भागता ही रहा। सूर्यास्त होने को आया।लेकिन उसके मन में कुछ- और, कुछ बऔर की लालसा जग गई थी। इस ‘कुछ- और’के चक्कर में वह इस तरह फंसा कि वह निर्दिष्ट स्थान पर पहुंच न सका। उसके पहले ही उसके प्राण निकल गए।
इस सभ्यता के बारे में गांधी जी ने कहा था कि इसका परम व चरम लक्ष्य अधिक से अधिक सुख बटोरना है, वह भी भौतिक साधनों के द्वारा। ये भौतिक साधन हमें आराम तो दे सकते हैं, सुख भी दे सकते हैं,पर क्या खुशी दे सकते हैं? मनुष्य की खुशी के लिए बुनियादी जरूरतों की पूर्ति तो आवश्यक है, पर अधिक से अधिक संसाधनों को बटोर लेने से खुशी मिले, यह जरूरी तो नहीं।
बहुत से देशों में मानव जीवन की बेहतरी के जो परंपरागत सूचकांक निर्धारित हैं उसमें अब खुशी -सूचकांक, हैप्पीनेस इंडेक्स को जोड़ा जा रहा हैं। यह देखा गया है कि इजराइल में यहूदी धर्म के पुरोहित -परिवार, जो अपेक्षाकृत कम संपन्न होते हैं, अन्य समूहों, वर्गों,पेशेवरों की तुलना में अधिक संतुष्ट और खुश हैं।
आजकल होड़ है – अधिक से अधिक जूते इकट्ठा करना, कपड़े इकट्ठा करना, फ्लैट खरीदते जाना,परफ्यूम का संग्रहालय बनाना,नई नई कारों का जखीरा सहेजना । हर नई चीज चाहिए। हर वह चीज चाहिए, जो बाजार में अवतरित,लांच हुआ है। इस सूची को आप पढ़ाते ही जा सकते हैं, जिसका कोई अंत नहीं है। फिर इन सरंजमों को इकट्ठा करने के लिए हम खुद को बाजार में बेचते हैं, दबाव और तनाव झेलते हैं। एक अच्छी नींद के लिए तरस जाते हैं। फिर नींद के लिए दवा चाहिए और दवा के लिए खुद को बाजार में खपाना होता है। एक दुष्चक्र।
पिछली कई सदियां भुखमरी की रही है, लेकिन अब परिदृश्य बदल रहा है। इस सदी में भूख से मरने वालों की संख्या घट रही है और मोटापे से मरने वाले की संख्या बढ़ रही है। मोटापा तो दिल मांगे मोर, कुछ और, लिप्सा,लालच का नतीजा है।
मानवीय सभ्यता के लिए यह तसल्ली की बात है कि भूख से मरने वालों की संख्या घटी है, लेकिन हमें अब यह तय करना है कि मोटापे से होने वाली मौतों को कैसे रोका जाए? मोटापा अतिरिक्त संग्रह,अनावश्यक उपभोग के सिद्धांत की उपज है। गांधी यहीं पर खड़े हैं,सादगी के सिद्धांत के साथ। क्या आप उनके साथ चलने का जोखिम ले सकेंगे?