उत्तर प्रदेश कैबिनेट विस्तार के कारण : क्या मोदी-योगी का डगमगाया आत्मविश्वास!
लेख- सुषमाश्री
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जीत को लेकर इस बार बीजेपी को कई बातें परेशान कर रही हैं। जानिए, कौन-कौन से हैं ये कारण?
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बात जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की हो तो मुद्दा सिर्फ एक कैसे हो सकता है भला! जितना बड़ा यह राज्य है, उससे कहीं बड़ी यहां की राजनीतिक उठापटक की कहानी है. यहां सिर्फ काम से आप चुनाव जीत लें, आसान नहीं. इसका यह अर्थ भी नहीं कि सिर्फ नाम से आप यहां चुनावी बाजी मार ले जाएंगे. यहां तो साहब चुनावी त्रिशूल की नोंक पर जमने के लिए कितने ही लोगों के साथ और सहारे के अलावा ऊपरी हवा भी बहुत असर करती है. समझना मुश्किल हो रहा हो तो हम साफ-साफ बता दें कि यहां केवल काम करके न तो अखिलेश सरकार बच पाई और न उससे पहले माया और मुलायम की सरकार.
पिछले 30 वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ जब उत्तर प्रदेश में एक ही पार्टी की सरकार लगातार दूसरी बार सत्ता में आई हो. यही चिंता इस बार बीजेपी का आत्मबल भी हिलाए हुए है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जिन्हें उनके काम के लिए कई बार अन्य राज्यों के लोगों से भी तारीफ मिलती रही, अब जैसे-जैसे चुनाव पास आ रहे हैं, उन्हें और उनकी लगातार हर राज्य में विजय पताका लहराती हुई आगे बढ़ रही पार्टी बीजेपी को भी अपनी जीत निशंक नहीं महसूस हो रही.
आत्मविश्वास और अंधविश्वास ने पार्टी के कदम पहले ही हिलाकर रखे हुए थे. उस पर मुख्य विपक्षी पार्टी सपा का किसान आंदोलन को मुद्दा बनाना और पार्टी से नाराज चल रही पिछड़ी जातियों को अपने साथ शामिल करने की कोशिश ने बीजेपी के लिए खतरे की घंटी और भी तेज कर दी. इसी का नतीजा रविवार को राज्य में हुआ कैबिनेट विस्तार के रूप में देखने को मिला.
वरना इसी साल आठ जुलाई को भी यूपी चुनावों को ध्यान में रखकर केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार किया गया था, जिसमें यूपी को खास तवज्जो दी गई थी. मोदी सरकार के इस विस्तार में भी यूपी चुनावों के हार का डर दूर करने के प्रयास साफ नजर आए थे. इस सेंट्रल कैबिनेट विस्तार में भी प्रदेश के जातीय गणित साधने के प्रयास किये गये थे. इसमें यूपी से सात नए मंत्री बनाए गए थे, जिनमें चार ओबीसी, दो दलित और एक ब्राह्मण समाज के थे. मोदी के कैबिनेट में यूपी का मजबूत प्रतिनिधित्व दिखाया गया था.
केंद्रीय कैबिनेट का इतिहास देखा जाए तो यह साफ हो जाता है कि पहली बार यूपी से रिकॉर्ड 15 मंत्रियों को इसमें जगह दी गई. इसे देखकर यह साफ हो जाता है कि यूपी चुनाव इस बार न तो महज मोदी जी के चेहरे की बात रह गई है और न ही योगी जी के काम की. इस पर किसान आंदोलन की काली छाया ने कुछ इस कदर घेराबंदी कर ली है कि असर प्रदेश के पिछड़े समुदायों या कहें कि छोटी जातियों से जुडे प्रेशर गुटों पर भी देखने को मिलने लगा है. कह सकते हैं कि इसी मजबूरी ने बीजेपी को चुनाव के ठीक चार महीने पहले कैबिनेट विस्तार का यह नया रास्ता चुनने के लिए मजबूर कर दिया. ताकि किले की इस घेराबंदी को तोड़ा जा सके.
रविवार को हुए इस कैबिनेट विस्तार में कांग्रेस पार्टी से भाजपा में शामिल हुए जितिन प्रसाद को कैबिनेट मंत्री का पद दिया गया, जो कि ब्राह्मण समुदाय से हैं और प्रदेश में ब्राह्मण समुदाय के बड़े नेता के रूप में पहचान बनाने की कोशिश कर रहे हैं. जितिन प्रसाद के जरिये खुद से दूर जा रहे ब्राह्मणों को एक बार फिर से अपने साथ जोड़ने की यह पार्टी की आखिरी कोशिश कही जाए तो शायद गलत न हो!
वैसे, जितिन प्रसाद के अलावा इस कैबिनेट विस्तार में राज्य मंत्री पद की शपथ लेने वालों में छह अन्य नाम भी शामिल हैं. इनमें गाजीपुर जिले के सदर सीट से पहली बार एमएलए बनीं संगीता बलवंत बिंद (पिछड़ी जाति), पश्चिमी यूपी से ओबीसी के नेता माने जाने वाले धर्मवीर प्रजापति (जनवरी 2021 में एमएलसी का चुनाव जीता था), बरेली जिले के बहेरी विधायक छत्रपाल सिंह गंगवार (ओबीसी के कुर्मी जाति से हैं), मेरठ के हस्तिनापुर सीट से दलित विधायक दिनेश खटिक, बलरामपुर सदर (रिजर्व) से विधायक पलटुराम (सोनकर बिरादरी से हैं) और सोनभद्र जिले के ओबरा सीट से पहली बार विधायक बने संजीव कुमार गोंड (अनुसूचित जनजाति के गोंड समुदाय से) हैं.
बीबीसी के पूर्व वरिष्ठ पत्रकार और उत्तर प्रदेश राजनीति में अपनी गहरी पैठ रखने वाले रामदत्त त्रिपाठी की मानें तो यूपी ही नहीं, भारत देश की खासियत है जाति. यहां जाति का रोजमर्रा की जिंदगी पर इतना ज्यादा प्रभाव देखने को मिलता है कि चाहें या न चाहें चुनावी वोट बैंक की राजनीति को प्रभावित करने में यह काफी हद तक सफल हो ही जाती है. यूपी में योगी रह-रहकर अपने चिर-परिचित अंदाज में हिंदुओं को अपनी ओर बनाए रखने के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते हैं. इसके बावजूद पार्टी ने नाराज बैकवर्ड क्लास को साधने के लिए यह नया दांव खेला है. हालांकि, कैबिनेट में जगह फिर भी केवल ब्राह्मण समुदाय के जितिन प्रसाद को ही मिल पाई है. बाकियों को केवल राज्यमंत्री बनाया गया है, जो असल में अपने लोगों के बीच जाकर केवल पार्टी के प्रति अपनी एकजुटता और विश्वसनीयता कायम रखने के लिए तैयार किए गए हैं.
इस बारे में वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार राजकुमार सिंह कहते हैं, किसान आंदोलन के कारण उत्तर प्रदेश चुनाव पर कोई खास प्रभाव न देखने को मिले, इसलिए चुनाव के ठीक चार महीने पहले यह मंत्रिमंडल विस्तार किया गया है. इसमें ध्यान रखा गया है कि सभी मंत्री युवा हैं और अलग-अलग राजनीतिक प्रेशर पार्टी ग्रुप्स से हैं. इस विस्तार का मुख्य उद्देश्य है कि अपने लोगों के बीच पहुंचें और सरकारी संदेश और जुमले उन तक पहुंचाकर उनसे वोट बैंक वाली राजनीति कर पार्टी का हित साध सकें. इस मंत्रिमंडल विस्तार से उत्तर प्रदेश के विकास का कोई लेना देना नहीं. इस विस्तार का उद्देश्य राजनीतिक संदेश देना है. इसमें ज्यादातर पिछड़ी जाति के लोगों को जगह दी गई है. खासकर उनका, जिनका उठना-बैठना बिंद, प्रजापति, राजबर, निषाद जैसे छोटे-छोटे दलों के बीच है. वहीं, ब्राह्मण चेहरे के नाम पर जितिन प्रसाद का चेहरा आगे किया गया है.
बात टोने-टोटके की करें तो बीजेपी उसमें भी कहीं पीछे नहीं रहना चाहती. यह भी एक वजह मानी जा रही है कि मेरठ के हस्तिनापुर सीट से दलित विधायक दिनेश खटिक को कैबिनेट विस्तार में रविवार को जगह दी गई है. असल में, ऐसी मान्यता है कि हस्तिनापुर से जिस पार्टी का विधायक जीतता है, उसी की सरकार यूपी में बनती है. इस वजह से इस बार कैबिनेट में उन्हें भी शामिल किया गया है.
बहरहाल, अन्य राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो रविवार को हुए इस कैबिनेट विस्तार और गन्ना की कीमतों में महज 25 रुपये के इजाफे पर सरकार की मुहर महज चुनावी दबाव का नतीजा हैं, इस बात से कतई भी इनकार नहीं किया जा सकता. हालांकि, रविवार के इस विस्तार के बावजूद सोमवार को देशभर से किसानों के सफल भारत बंद की तस्वीरें बीजेपी के लिए पहले से कहीं ज्यादा तनाव भरी स्थिति पैदा करने वाली हो सकती है. इसके बावजूद इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी कभी हार न मानने वालों की पार्टी है. इसमें न तो मोदी आसानी से हथियार डालने वालों में हैं और न ही योगी. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि इस विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अंत तक अपने तरकश से आखिर ये कौन-कौन से तीर निकालते हैं!!!