पूंजीवादी प्रजातंत्र की जगह, समाजवादी जनतंत्र चाहिए
श्रमिकों का शोषण और अर्थव्यवस्था में उनका योगदान
“जो सिद्धांत पूंजीवादी प्रजातंत्र के बदले समाजवादी जनतंत्र की स्थापना चाहता है या करता है वह क्रांतिकारी होता है।”
क्रांतिकारी व स्वतंत्रता सेनानी विश्वनाथ राय
पूंजीवादी प्रजातंत्र के बदले समाजवादी जनतंत्र – ये विचार बीसवीं शताब्दी में रामप्रसाद बिस्मिल और चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों द्वारा स्थापित हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन के सदस्यों द्वारा प्रमोट किया जाता था।
यदि हम इन विचारों के शब्दों को ध्यान पूर्वक पढ़ें तो पाएंगे “पूंजीवादी प्रजातंत्र” की जगह “समाजवादी जनतंत्र की कामना इन क्रांतिकारियों द्वारा किया जाता था, क्योंकि इन्हें ज्ञात था की दबे कुचले शोषित श्रमिकों के साथ पूंजीवादी व्यवस्था सिर्फ छलावा कर सकती है और इन्हें उनके हक के लिए निरंतर संघर्ष करना होगा।
आज के परिवेश में हम किसी भी सेक्टर को देखें, चाहे वो कृषि हो, निर्माण हो, उत्पादन हो, परिवहन हो, ईंधन हो, हाथ से श्रम करने वाले ही उस सेक्टर को जिंदा रखे हैं पर इन सेक्टरों से होने वाली आय का बहुत ही छोटा हिस्सा ही इन कामगारों में बांटा जाता है।
इस आय का बहुत ही बड़ा हिस्सा चंद कॉरपोरेट घरानों द्वारा ले लिया जाता है।इस व्यवस्था ने नए नए नाम अपने लिए रख लिए हैं, जैसे कंपनी, कॉरपोरेट, एंटरप्रेन्योर, इत्यादि।सारी सहूलियतें श्रमिकों की जगह इन कॉरपोरेट जगत के पूंजीपतियों को कानूनी तौर पर दी जाती है।
बैंकों द्वारा जनता के कई लाख करोड़ रुपयों को कॉरपोरेट जगत में “लोन” के रूप में बांट दिया जाता है। मजे की बात ये है की यदि ये पैसा डूबता भी है तो कानूनी तौर पर इसे एन पी ए का नाम दे के लोन माफ कर दिया जाता है।वहीं कोई श्रमिक फसल, बकरी, छोटी गाड़ी या छोटी दुकान इत्यादि के लिए चालीस पचास हजार के लोन के लिए बैंक जाता है तो उसे लोन के लिए मशक्कत करनी होगी और यदि मिल भी जाता है और किसी कारण से उसका व्यवसाय नही चला तो उस श्रमिक पर इतना दबाव डाला जायेगा की कभी कभी वो आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए बाध्य हो जाता है।
आज की व्यवस्था में नीचे से धन उठा कर ऊपर वाली व्यवस्था में पहुंचाया जाता है। तथाकथित विकास का पैमाना सकल घरेलू उत्पाद को भी इस तरह तोड़ मरोड़ दिया गया है कि श्रमिकों के रोल और उसके श्रम को बहुत ही कम करके आंका जाता है, जिससे किसी भी सेक्टर में होने वाली आय का कम से कम हिस्सा श्रमिकों को देना पड़े।
देश की लगभग सत्तर प्रतिशत वेल्थ चंद लोगों के हाथों में सिमट के रह गई है।राष्ट्र के अर्थशास्त्रियों और सोशल सेक्टर में काम करने वालों को एक बार पुनः विकास को परिभाषित करना होगा जिससे अर्थ व्यवस्था समावेशी होने के साथ साथ प्रकृति द्वारा वहन करने योग्य बन सके।
हमें पूंजीवादी प्रजातंत्र की जगह, समाजवादी जनतंत्र चाहिए।
भारत का गणतंत्र अमर रहे.
कर्नल प्रमोद शर्मा आईआईटी मद्रास के छात्र रहे हैं और फिलहाल कृषि,श्रमिकों और पर्यावरण पर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तराई इलाके में अपने संगठन के साथ सक्रिय हैं।