कुली बेगार
14 जनवरी 1921 में पंडित बद्री दत्त पांडेय के नेतृत्व में लगभग चालीस हजार लोगों ने अंग्रेजों के काले कानून कुली बेगार का अंत कर दिया। अंग्रेज अफ़सर डायबल अपने सशस्त्र सैनिकों के साथ खड़ा देखता रह गया और क्रांतिकारियों ने बेगारी के सारे बही खाते सरयू नदी में बहा दिये।महात्मा गाँधी ने इसे इतिहास की सबसे बड़ी रक्तहीन क्रांति कहा था। इसके बाद बद्री दत्त पाण्डेय कुमाऊं केसरी के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
बागेश्वर में कुली बेगार प्रथा के ख़िलाफ़ 1921 में एक बहुत बड़ी रक्तहीन क्रांति हुई थी उस पर लिखी प्रशॉंत कुमार पॉंडेय की कविता
कुली बेगार
दरिया सा कुछ सबकी रगों में उस दिन धधकता बह रहा था,
हो गयी बस इम्तेहां अब ज़ुल्म की वो कह रहा था।
एक आग थी सदियों से जिसमें सीने सभी के जल रहे थे,
जानिबे मंजिल कदम सब इंकलाबी चल रहे थे।
जज़्बा दिलों में था महज़ हाथों में ना हथियार था।
वो बन गया तारीख़ जो पहले कुली बेगार था
सहना ज़बर भी है ग़लत उतना ही जितना जुल्म करना,
मर मर के जीने से भला है जी कर भला एक बार मरना।
हर सिम्त से आवाज़ ये उस रोज एक बस आ रही थी,
और वही आवाज़ एक तहरीक बनती जा रही थी।
देखने को हक़ की ताक़त वक़्त भी तैयार था,
वो बन गया तारीख जो पहले कुली बेगार था।
बद्री दत्त जी रहनुमां थे उस बग़ावत के असल,
आज़ाद होने को हवायें जैसे उठी हों तब मचल।
लाठी कोई गोली चली ना खून का क़तरा बहा,
ख़त्म लेकिन हो गया जो पीढ़ियों ने ग़म सहा।
शेरे कुमाऊं के तख़ल्लुस, का एक अब हक़दार था।
वो बन गया तारीख जो पहले कुली बेगार था।
आसीश व्याघ्रेश्वर से ले संकल्प सरयू नीर से,
कर लिया आज़ाद खुद को बेगारी कुली की पीर से।
डायबल का बल खड़ा बस देखता ही रह गया,
बेगारी का खाता बही सब गंगा जल में बह गया।
अपनी उड़ानों पे परिंदों, का हो गया अधिकार था,
वो बन गया तारीख जो पहले कुली बेगार था।
जिंदगी के मायने जुम्बिश नहीं बस दिल की है,
रास्तों की मौज है ये, नहीं आरज़ू मंजिल की है।
हकपरस्ती के लिये लड़ना सभी पर लाजमी है,
ज़ुल्म सह कर चुप रहे जो क्या भला वो आदमी है।
मुस्कुराती सी जमीं पर आसमाँ बलिहार था।
वो बन गया तारीख——-
प्रशॉंत कुमार पॉंडेय, बागे़श्वर , उत्तराखंड