ओलंपिक खिलाड़ी और समाज
ओलंपिक में भारत, मुट्ठीभर उपलब्धियाँ
ओलंपिक खिलाड़ी और समाज – यह एक अहम बिन्दु हैं किन्तु इस पर भारत में समय पर और पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता . ओलंपिक के पहले ही दिन भारत की गुमनाम सी वेट लिफ्टर मीराबाई चानू ने रजत पदक जीत समूचे देश को गर्व का पल दे दिया. इस अद्भुत जीत के बाद चानू को बधाई, पुरस्कार और सम्मान देने की होड़ सी मच गयी. वह इस सम्मान की हकदार भी हैं. किंतु यह प्रश्न भी बनता है कि आज उनके साथ जश्न मनाने वाला हमारा समाज उस कठिन प्रक्रिया का हिस्सा क्यों नहीं था, जिसको चानू ने अकेले अपने दम पर पार किया.
पिछले दिनों फेसबुक पेज को स्क्रोल करते समय एक सुखद एहसास हुआ. सेना से रिटायर्ड एक वरिष्ठ मित्र ने ओलंपिक में फाइनल में जगह बनाने वाली भारतीय नौकायन टीम की प्रशंसा करते हुए, उनकी सफ़लता की कामना की थी. हम में से कितने यह बात दावे के साथ कह सकते हैं कि इस नौकायन टीम के खिलाड़ियों का हम नाम जानते हैं? हाँ, अगर वह फाइनल में पदक हासिल कर लेते तो जरूर हम उनको सिर आंखों पर बैठा लेते. दुर्भाग्य से, अपना सर्वोच्च प्रदर्शन करने के बाद भी वह पदक जीत नही पाए, और गुमनामी की उसी अंधेरी राह पर चले गए, जहाँ से वह आये थे.
कोरोना काल मे ओलंपिक
खेलों के सबसे बड़े महाकुंभ यानी ओलंपिक को शुरू हुए एक सप्ताह से अधिक हो चुका है. दुनिया भर के खिलाड़ी टोक्यो में एक दूसरे की शारीरिक और मानसिक परीक्षा लेने में कोइ कसर नहीं छोड़ रहे. कोरोना महामारी के इस आपदा काल मे यह खेल न सिर्फ खिलाड़ियो, बल्कि उनको देख रहे करोड़ों लोगों को सुख-दुख, हर्ष-विषाद जैसे तमाम मानवीय गुणों को महसूस करने का एक मौका दे रहे हैं जो बेहद आवश्यक था.
ओलंपिक में भारत, मुट्ठीभर उपलब्धियाँ
भारत का ओलंपिक में इतिहास ऐसा नही रहा है जिसके कारण हम बहुत आशावान हों. मुट्ठीभर ही सही, कई खिलाड़ियों ने 130 करोड़ की इस बड़ी आबादी को ओलंपिक के माध्यम से गर्व के क्षण उपलब्ध कराए हैं. आजादी के पहले से लेकर आगे कई वर्षों तक हॉकी में जीते गए मेडल, हमारी पीढ़ी के लिए अतीत का सुनहरा पन्ना भर बन कर रह गये है. हम उसको जी नही पाए.
इसे संयोग कहें या प्रयोग, किंतु 90 के दशक में जब भारत नई आर्थिक नीतियों के कारण विश्व भर में अपनी छाप छोड़ने लगा था. भारतीय खेलों की मर चुकी जिजीविषा को जगाने का काम कुछ खिलाड़ियों ने शुरू कर दिया. 96 में लीएंडर पेस ने ओलंपिक पदक जीतने का जो सिलसिला शुरू किया, वह मल्लेश्वरी, राज्यवर्द्धन राठौर से होता हुआ 2008 में अभिनव बिंद्रा के स्वर्ण पदक तक जा पहुचा. बिंद्रा का वह स्वर्ण भारत पर लगे उस कलंक को धोने में सफल रहा जिसके बारे में कहा जाने लगा था कि अतीत में सोने की चिड़िया कहा जाने वाला यह देश ओलंपिक में सोने के तमगे के लिए तरसता है.
नई सदी में नए नायकों का आगाज़
मगर अफसोस, वह कलंक इतनी आसानी से मिटने वाला नही था. क्योंकि बिंद्रा का वह स्वर्ण आज तक इकलौता ही है. सुशील कुमार ने उम्मीदें जरूर जगायी थी, किंतु स्वर्ण तक पहुचते पहुचते उनके हाथ भी फिसल गए. हालांकि सुशील एक नई इबारत लिख गए, वह थी एक भारतीय के पास दो ओलंपिक पदक.
विजेंदर, मैरीकॉम, योगेश्वर दत्त, विजय कुमार, गगन नारंग और साक्षी मलिक भी विभिन्न ओलंपिक में चैंपियन बन कर उभरे. पीवी सिंधु नाम की होनहार लड़की जब ओलंपिक फाइनल में हारी तब पूरा देश उसके साथ रोया भी और उसकी मेहनत और रजत पदक पर इतराया भी. हर बार लगता इन जांबाजों के कारनामे खेलों के मामले में इस सोए हुए देश को झकझोर देंगे. किंतु नतीजा उतना उत्साहित नही करता जितना आशा थी.
खिलाड़ियों के प्रति समाज का उदासीन रवैया
हम कमियाँ ढूंढ सकते हैं. खेल संघों, कोचों, खिलाड़ियों, सरकारों, सबके रवैये पर प्रश्नचिन्ह उठा सकते हैं. किंतु क्या कभी इन सवालों के हल की तरफ हम बढ़े हैं? एक समाज के रूप में क्या हमने अपने खिलाड़ियों को वह प्रोत्साहन दिया है जिसके वह हकदार हैं? हमने कब उनको फॉलो किया? हमने कब जानने की इच्छा रखी कि मेडल की यह उम्मीदें कहाँ प्रशिक्षण ले रही हैं और कैसा. सिर्फ जीत पर गर्व करने या हार पर दुखी होने से अलग हट कर हमने सोचा ही नही.
मीराबाई चानू का नाम पहले कितने लोगों ने सुना था? जबकि वह प्रोफेशनल वेट लिफ्टिंग में नयी नहीं है. हाँ आज उसकी सफलता को स्वयं से जोड़ कर सुख की अनुभूति करने में हम पीछे नही हैं. हम में से कितने लोग उन खिलाड़ियों का नाम जानते हैं जो इस बार अलग अलग स्पर्धाओं में खेलते हुए राष्ट्रीय रिकॉर्ड से बेहतर कर चुके हैं किंतु ओलंपिक पदक तक नही पहुच पाए. गुमनामी से निकल कर वापस गुमनामी में चले जाना ही जैसे इन खिलाड़ियों की नियति बन जाती है.
मंजिल के साथ रास्ते पर भी नजर रखनी होगी
ओलंपिक में लगातार बेहतर होना एक सतत प्रक्रिया है. जरूरत है समाज को अपनी सोच बदलने की. मेडल जीतने वाले खिलाड़ियों को सम्मान देना, उनके साथ गर्व को अनुभव करना निसंदेह दूसरे खिलाड़ियों को बेहतर करने को प्रेरित करता है, किंतु उन खिलाड़ियों पर भी लगातार नज़र बनाये रखनी पड़ेगी जो इस सर्वश्रेष्ठ मंच तक पहुच कर फिसल रहे हैं.
खेल को लेकर पॉलिसी बनाना सरकारों का काम है, पर समाज अपनी जागरूकता के दम पर निकम्मी सरकारों को खेल के बेहतर प्रबंधन और इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराने के लिए बाध्य कर सकता है. खेल संगठनों में जड़ तक अपनी पैठ बना चुकी राजनीति को किनारे लगाना बेहद जरूरी है. इस दिशा में पूर्व खिलाड़ियों को आगे आना चाहिए. प्रतिभा खोजने और निखारने के काम कैसे किया जाता है इसके उदाहरण भारत मे ही मौजूद हैं. क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने पिछले कुछ सालों में इस क्षेत्र में अभूतपूर्व काम किया है. वह एक नज़ीर बन सकता है.
समाज को अपनी सोच बदलनी होगी
सरकार की ओर ताकते रहने और तमाम कमियों के रोना रोने के बजाय एक समाज के रूप में हमें अपने खिलाड़ियों के साथ खड़ा होना पड़ेगा. खेल को रोजीरोटी का साधन बनने के साथ साथ समाज मे सम्मानित स्थान दिलाना पड़ेगा. अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी बनना एक आईएएस, डॉक्टर या इंजीनियर बनने से जब तक कमतर माना जाता रहेगा, इस देश मे खेलों की दुर्दशा बनी रहेगी.
समाज को अपनी सोच बदलनी पड़ेगी. मेडल पर इतरायें जरूर, किंतु मेडल जीतने वाली प्रक्रिया का हिस्सा भी बनें. सिर्फ मेडल विनर के साथ सेल्फी लेना, उनके सम्मान में समारोह कर के अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर लेना हमको गिने चुने मेडलों से आगे नही ले जा सकता. क्योंकि जो जीत रहे हैं वह उनका स्वयं का दमखम है, समाज के रूप में हमने उन्हें क्या दिया है? यह मायने रखता है. यह सोचने का समय है. फिलहाल टोक्यो ओलंपिक में अपना पसीना बहा रहे हर भारतीय को हम सब की शुभकामनाएं.
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(लेखक सेवानिवृत्त वायु सेना अधिकारी हैं. सामरिक और सामाजिक मुद्दों के ऊपर मीडिया स्वराज सहित तमाम चैनलों पर अपनी बेबाक राय रखते रहे हैं)