1984 में ही लिखी जा चुकी थी कारगिल युद्ध की पटकथा

अनुपम तिवारी , लखनऊ
अनुपम तिवारी , लखनऊ

1984 में ही लिखी जा चुकी थी कारगिल युद्ध की पटकथा . 22 साल पहले भारतीय सैनिकों ने अपने खून और पसीने से दुनिया के सबसे दुर्गम युद्ध भूमि में वीरता, साहस और पराक्रम की ऐसी इबारत लिखी थी जिसकी कोई दूसरी मिसाल नही मिलती. देश सदा ही उन 527 वीर जवानों का कर्जदार रहेगा जिन्होंने धोखे से किये गए पाकिस्तानी हमले को अपनी शहादत दे कर नाकाम किया था.

1984 में ‘आपरेशन मेघदूत’ के माध्यम से भारत ने अपनी फौजों को सियाचिन ग्लेशियर में स्थापित कर दिया. पाकिस्तान के अलावा चीन भी सामरिक रूप से महत्वपूर्ण इस क्षेत्र पर नजर गड़ाए बैठा था. भारत ने कामयाबी पाई और सियाचिन पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली. बाद के वर्षों में पाकिस्तानी खतरे को देखते हुए भारतीय सेना ने कारगिल समेत पूरे इलाके की सुरक्षा के लिए एक नई डिवीजन खड़ी कर दी.

उधर भारत की कारगिल डिवीजन के जवाब में पाकिस्तान ने नॉर्दर्न इन्फेंट्री बनाई, जिसमे ज्यादातर सिपाही उसके उत्तरी प्रान्तों के थे. जो कि भौगोलिक रूप से कारगिल के निकट है. ये सिपाही समूचे इलाके से अच्छी तरह से वाकिफ थे. 

पाकिस्तान की कुटिल चाल

कारगिल, और उसके माध्यम से सियाचिन को भारत से अलग करने के लिए पाकिस्तान ने बड़ी ही होशियारी से तैयारी की थी, यह तैयारी दो स्तरों पर 90 के दशक की शुरुआत से ही की जा रही थी. एक ओर तो उस क्षेत्र में तैनात सैनिकों के सामान्य रोटेशन की आड़ में नॉर्थर्न इन्फैंट्री के जवान तैनात किए जा रहे थे. दूसरी तरफ जम्मू कश्मीर में आतंकी घुसपैठ अप्रत्याशित रूप से बढ़ा दी गयी. जबरदस्त गोपनीयता बरती गई थी. जवानों का साथ देने के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित किये हुए आतंकी तत्व और अफ़ग़ान लड़ाके भी यहीं तैनात कर दिए गए.

जैसा कि पाकिस्तानी रणनीतिकारों ने अंदाज़ा लगाया गया था, भारतीय फौज घुसपैठियों से लड़ने और उनको बाहर निकालने में अपनी सारी ऊर्जा खपा रही थी. चौंकाने वाली बात यह रही कि कारगिल डिवीजन को भी आतंक के सफाए की अतिरिक्त जिम्मेदारी दे दी गयी, जिससे सीमा की सुरक्षा शिथिल पड़ गयी.

‘ऑपरेशन बद्र’ के द्वारा कारगिल पर कब्जे की कोशिश

अपने बहुप्रतीक्षित प्लान को अमली जामा पहनाने की गरज से 1998 के नवंबर के महीने से ही पाकिस्तान ने तैयारियां शुरू कर दीं. सर्दियों में इस समूचे इलाके में असहनीय ठंड पड़ती है, इसलिए दशकों से चली आ रही परम्परा के अनुरूप दोनों तरफ की सेनाएं फारवर्ड पोस्टों को छोड़ कर निचले इलाकों में चली जाया करती थीं. इसी समय को पाकिस्तान ने कारगिल पर हमला करने के लिए चुना जिसे ऑपरेशन बद्र नाम दिया गया.

सबसे पहले पाकिस्तान ने अपने एक ब्रिगेडियर रैंक के अधिकारी को इलाके की रेकी करने को भेजा. जिसकी रिपोर्ट के आधार पर आगे की कार्रवाइयां होनी थीं. जनवरी में पाक अधिकृत कश्मीर के स्कार्दू और गिलगित डिवीजन के सैनिकों की छुट्टियां रद्द करने का आदेश दे दिया गया. पाकिस्तान को अंदेशा था कि उसके कारगिल प्लान से बौखलाकर भारत गिलगित और स्कार्दू की ऊंची चोटियों पर हमला कर सकता है. उसकी सुरक्षा के बंदोबस्त कर दिए गए.

योजना के अनुसार सबसे पहले कुछ चुनिंदा सैनिक कारगिल और आसपास की महत्वपूर्ण चोटियों पर भेजे गए, जब वहां से यह सूचना मिल गयी कि भारत की ओर की सारी पोस्टें खाली हैं, तभी जाकर तमाम सिपाहियों को मूव कराया गया. अप्रैल के महीने तक 200 से 300 वर्ग किलोमीटर का भारतीय इलाका पाकिस्तानी सैनिकों ने कब्जा कर लिया.

खतरे से अनजान भारत

भारत की एजेंसिया इस बड़ी घुसपैठ को भाँपने में नाकाम रहीं थीं, संसाधनों की कमी का बहाना कितना भी बनाया जाए, किंतु सुरक्षा के लिहाज से यह बिल्कुल क्षम्य नही था. मई के शुरुआती हफ्तों में स्थानीय चरवाहों की सूचना के आधार पर ही यह पता चल पाया कि हालात कितने गंभीर हो चुके थे. किंतु ढिलाई ऐसी थी कि इस सूचना की तस्दीक के लिए भी फौज ने कैप्टेन सौरभ कालिया के नेतृत्व में जो गश्ती दल भेजा था, वह हथियारबंद और ऊंचाई पर बैठे दुश्मन के समक्ष टिक ही नही सकता था. इसी वजह से कैप्टन कालिया को अपनी शहादत देने से पहले भयंकर यातना से गुजरना पड़ा.

परमवीरों ने लिखी जीत की इबारत

बहरहाल गश्ती दलों की सूचना के आधार पर युद्ध की तैयारियां करी गयीं, दुनिया की सबसे दुर्गम जगहों पर करीब 20 दिन चले इस युद्ध में एक बार फिर भारतीय सेना पाकिस्तान को धूल चटाने में कामयाब रही. परंतु इसकी बहुत बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी. 

कैप्टन विक्रम बत्रा, लेफ्टिनेंट मनोज पांडेय, कैप्टन अनुज नायर, राइफलमैन संजय कुमार, सूबेदार योगेंद्र यादव इत्यादि की वीरता के किस्से हमारी सैन्य शौर्यगाथाओं का हिस्सा अनंत काल तक के लिए बन गए. किंतु क्या ही अच्छा होता कि अगर कुछ गलतियों को नजरअंदाज न किया गया होता. ढीला और लचर रवैया रखने के बजाय यदि प्रो-एक्टिव एप्रोच रखी गयी होती तो आज तमाम शहीदों में से कई अपनी शौर्यगाथाओं को साझा करने के लिए सशरीर हमारे बीच होते.

क्या भारत ने कारगिल में मौका गंवाया?

कारगिल युध्द को लेकर भारत के राजनैतिक नेतृत्व पर उंगलियां उठीं थीं, जो शायद जांबाज युवकों की पराक्रम गाथाओं के तले दब सी गयीं. तत्कालीन थलसेनाध्यक्ष जनरल वी पी मलिक को आज भी इस बात का मलाल है कि यदि सरकार ने एलओसी पार करने का आदेश दे दिया होता तो शायद बहुत सारी राजनैतिक और भौगोलिक समस्याओं को भारतीय सेना ने हमेशा हमेशा के लिए दफन कर दिया होता.

वरिष्ठ रक्षा विशेषज्ञ मेजर जनरल (रि) अजय कुमार चतुर्वेदी के शब्दों में एलओसी को पार न करना बहुत बड़ी चूक थी, क्योंकि इस एक निर्णय ने एलओसी को भारत और पाकिस्तान के बीच डि-फैक्टो बॉर्डर का दर्जा दिला दिया. हमारे बहादुर जवानों ने अपनी अदम्य वीरता के बल पर एक ऐतिहासिक भूल को सुधारने का हमें मौका दिया था, जिसे हमने हाथ से जाने दिया.

सुधार की राह पर सेना

कारगिल युद्ध ने भारत की सेनाओं के समीकरण में स्पष्ट रूप से कई बदलाव किए, जो कि स्वागतयोग्य है. सेनाओं को प्रोफेशनल करने की दिशा में कई कदम उठाए गए. लगातार विदेशी सेनाओं के साथ होने वाले युद्धाभ्यास इसी की बानगी हैं. सबसे जरूरी बात थी सेना के तीनों अंगों का समन्वय, जिस पर काम तेजी से चालू हुआ. सैनिकों के वेतन भत्तों से लेकर उनके साजो सामान, दुर्गम और पहाड़ी इलाकों के लिए आवश्यक जूते, टेंट, कपड़ों तक पर ध्यान दिया गया और आज हम काफी बेहतर स्थिति में हैं. हालांकि वर्तमान सामरिक परिस्थितियों को देखते हुए इसमे निरंतर सुधार करने की जरूरत है.

राजनैतिक नेतृत्व के अलावा कारगिल युद्ध में खुफिया एजेंसियों की सजगता पर तमाम प्रश्न उठे. प्रश्न बड़े जनरलों और ओहदेदारों के रवैये पर भी उठे. प्रश्न यह भी उठा कि क्या वायु सेना का इस्तेमाल करने में हमने देर कर दी थी? प्रश्न बहुत हैं किंतु हकीकत यह है कि यह सब अब सिर्फ इतिहास का हिस्सा है. और इतिहास से सीखा जाता है, उसे बदला नही जा सकता.

(लेखक सेवानिवृत्त वायु सेना अधिकारी हैं, रक्षा एवं सामरिक मामलों पर मीडिया स्वराज सहित विभिन्न चैनलों पर अपने विचार रखते हैं)

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