जब सौ साल पहले स्पैनिश फ़्लू  महामारी आयी  

इलाज नहीं था, कोरेन्टाइन ही इलाज बना

दिनेश कुमार गर्ग

दिनेश कुमार गर्ग 

हमारा विश्व महामारियों के चक्र 100 साल बाद दुबारा फंसा है। आज पृथ्वी दुर्दांत कोविड 19 नामक पैनडेमिक से आक्रान्त है तो सौ वर्ष पहले यह स्पैनिश इन्फ्लूएंजा के कहर से शवों से पट गया था । तब स्पैनिश फ्लू से 5 से 10 करोड़ लोग अकाल मृत्यु के शिकार हुए थे । आज के समय में  कोविड 19 से अब तक 37 करोड़ लोग प्रभावित हैं जबकि  ढाई लाख लोग मौत के मुंह में जा चुके हैं और अभी कहर जारी है। चीन में जहां से यह शुरू हुआ वहां पूर्ण नियंत्रण की घोषणा और उत्सव के बाद अब फिर से फैलने लगा है , जिससे लगता है कि शेष विश्व में भी इसका दौर जारी रहेगा । 

यह स्पैनिश फ्ल्यू आखिर था क्या जिसने 20 वीं सदी के विश्व के प्रथम चरण में ही जब मेडिकल सेवाएं भी महामारियों से लड़ने को सचेत नहीं हो पायीं थी, 5 से 10 करोड़ लोगों को चाट लिया । फ्लू से विश्व की एक तिहाई आबादी प्रभावित हुई थी। अकेले भारत में 1.7 करोड़ लोग काल-कवलित हुए जिनमें से 60 प्रतिशत गरीब और महिलाएं थीं । 

महात्मा गंधी भी  फ्ल्यू से पीडि़त हुए और  समय लगा रिकवर होने में ।दर असल 1914 से 1918 तक विश्व युद्ध चला जिसमें यूरोपयाई देशों के गोरे सैनिकों के साथ गुलाम देशों के काले लोग भी लाखों की तादात में शामिल होने को मजबूर किये गये थे  । अमेरिकन इसमें शामिल नहीं हुए थे। यूरोप में ही युद्धरत सैनिकों को संक्रमण होना शुरू हुआ और जब फ्लू से बीमार सैनिकों को वापस भेजा जाने लगा जहां से वे आये थे , तो फ्लू विश्व व्यापी होती चली गयी । अमेरिका जो युद्ध में शामिल नहीं था , वह भी न बच सका क्योंकि पानी के जहाजों से युद्ध और अन्य सामग्री के परिवहन के जरिये फ्लू नौसैनिकों के माध्यम से वहां भी पहुंच गया । भारत में भी मुम्बई पोर्ट में तैनात सिपाहियों के माध्यम से फ्लू पहले मुम्बई और फिर रेलगाडि़यां चढ़ देश के अन्य भागों में पांव पसारता चला गया ।

इंफ्लुएंजा की वजह से  उस वक्त भारत ने अपनी आबादी का छह फीसदी हिस्सा खो दिया था. फ्लू से बीमार होने वाली प्रसिद्ध शख्सीयतों में से गांधी के अलावा हिन्दी उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद स्वयं और कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की पत्नी और घर के कई दूसरे सदस्य हुए । सूर्यकांत निराला की पत्नी और परिवार के लोग  इस बीमारी की भेंट चढ़ गए थे. इस घटना पर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला लिखते हैं, “मेरा परिवार पलक झपकते ही मेरे आंखों से ओझल हो गया था.” वो उस समय के हालात के बारे में वर्णन करते हुए कहते हैं कि गंगा नदी शवों से पट गई थी. चारों तरफ इतने सारे शव थे कि उन्हें जलाने के लिए लकड़ी कम पड़ रही थी. 

 हालात और खराब हो गए जब खराब मानसून की वजह से सूखा  पड़ गया और अकाल जैसी स्थिति बन गई. इसकी वजह से लोग और कमजोर होने लगे. उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम हो गई. शहरों की तरफ पलायन होने से बीमार पड़ने वालों की संख्या और बढ़ गई.मुम्बई शहर इस बीमारी से बुरी तरह प्रभावित हुआ था.उस वक्त मौजूद चिकित्सकीय व्यवस्थाएं आज की तुलना में और भी कमतर थीं. तब एंटीबायोटिक था नहीं। इतने सारे मेडिकल उपकरण भी मौजूद नहीं थे, अस्पतालों का व्यापक नेटवर्क नहीं  था । देसी इलाज  ही अवलंब था.

औपनिवेशिक काल के अधिकारी इस बात को लेकर अलग राय रखते हैं कि 1918 में भारत में यह फ्लू कैसे फैला ।लॉरा स्पिनी लिखती हैं, “औपनिवेशिक अधिकारियों को स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य को अनदेखी करनी की कीमत चुकानी पड़ी थी. हालांकि यह भी सच है कि वे ऐसी त्रासदी का मुकाबला करने में वे  बहुत सक्षम नहीं थे. डॉक्टरों की भी भारी कमी थी क्योंकि वे जंग के मैदान में तैनात थे.” मुकम्मल इलाज के अभाव में  बीमारों को कोरेन्टाइन कराना , उन्हें अछूत रखना पडा़ था ताकि जिन्हे फ्लू नहीं है उन्हें यह नामुराद बीमारी न लगे।  गैर सरकारी संगठनों और स्वयं सेवी समूहों ने आगे बढ़कर मोर्चा संभाला था। उन्होंने छोटे-छोटे समूहों में कैंप बना कर लोगों की सहायता करनी शुरू की। पैसे इकट्ठा किए, कपड़े और दवाइयां बांटी। नागरिक समूहों ने मिलकर सहायता समितियां बनाईं।

 

एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक, “भारत के इतिहास में पहली बार शायद ऐसा हुआ था जब पढ़े-लिखे लोग और समृद्ध तबके के लोग गरीबों की मदद करने के लिए इतनी बड़ी संख्या में सामने आए थे।”आज की तारीख में जब फिर एक बार ऐसी ही एक मुसीबत सामने मुंह खोले खड़ी है और सौभाग्य से भारत सरकार और राज्य सरकारें चुस्ती के साथ महामारी की रोकथाम में लगी हुई हैं लेकिन एक  सदी पहले जब ऐसी ही मुसीबत सामने आई थी तब नागरिक समाज ने बड़ी भूमिका निभाई थी. जैसे-जैसे कोरोना वायरस के मामले बढ़ते जा रहे हैं, इस पहलू को भी हमें ध्यान में रखना होगा।

भारत में स्पैनिश फ्लू के बारे में मेडिकल इतिहासकार और ‘राइडिंग द टाइगर’ पुस्तक के लेखक अमित कपूर लिखते हैं, “10 जून, 1918 को पुलिस के सात सिपाहियों को जो बंदरगाह पर तैनात थे, नज़ले और ज़ुकाम की शिकायत पर अस्पताल में दाखिल कराया गया था। ये भारत में संक्रामक बीमारी स्पैनिश फ़्लू का पहला मामला था। तब तक ये बीमारी पूरी दुनिया में फैल चुकी थी।

यहां एक तथ्य यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि स्पैनिश फ्लू में स्पेन की कोई भूमिका नही रही। स्पैनिश फ्लू का नाम पडा़ क्योंकि स्पैनिश अखबारों ने इसकी खुलकर रिपोर्टिंग की और स्पेन हो रही भारी तादाद में मौतों की जानकारी विश्व को बताई, जबकि अन्य  देश ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी व अन्य यूरोपीय देश फ्लू से हो रही मौतों को उसी प्रकार अन्डर रिपोर्टिंग कर छिपा रहे थे जैसे चीन ने कोरोना वाली रिपोर्टिंग में किया है। स्पेन के अखबारों की बोल्डनेस के कारण विश्व को लगा कि वह बीमारी केवल स्पेन में है और अन्य जगह नहीं है । इस कारण जब अन्य जगहों में हो रही मौतों को छिपाना असंभव हो गया तो बीमारी से मृत्यु दर स्पेन की तरह देखते हुए यूरोप और अमरीका की तरह विश्व इसको स्पैनिश फ्लू बोलने लगा ।

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