शेष नारायण सिंह – पत्रकार, पिता और मित्र
विनीता द्विवेदी
देश में जमींदारी उन्मूलन के साल भर बाद ही 2 अगस्त 1951 को शेष नारायण सिंह का जन्म एक जमींदार परिवार में हुआ था, जो प्रदेश की राजधानी लखनऊ से तकरीबन 150 किलोमीटर दूर सुल्तानपुर जिले के मामपुर-मकसूदन के पट्टीपृथ्वी सिंह वंश के वारिस थे। पिता लाल साहब सिंह के चार बेटे- बेटियों में इनका स्थान दूसरे नंबर पर था। ब्रम्हर्षि वशिष्ठ की पुत्री आदिगंगा गोमती की अविरल जल धारा अवध के इसी इलाके में प्रवाहित है।
कहा जाता है कि एकादशी को इस नदी में स्नान करने से संपूर्ण पाप धुल जाते हैं। यह संयोग ही है कि शेष जी का स्वर्गवास एकादशी के दिन देव वेला में ही हुआ। गोमती उन पवित्र नदियों में है जो मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है। रावण का वध के बाद भगवान श्री राम ने भी गोमती (धोपाप) में स्नान किया था। यह नदी उनके परिवार के अनेक पीढिय़ों की साक्षी है। इनके पूर्वज देश को अंग्रेजों की गुलामी से बचाने के लिए 1857 में हुए विद्रोह का हिस्सा थे, लेकिन जमींदारी उन्मूलन होने से रातोंरात परिवार की किस्मत बदल गई। सीमित सुविधाओं व कम वित्तीय साधनों के बीच उनकी तीन भाई-बहनों के साथ ऐसे माहौल में परवरिश हुई जहां पैसे की किल्लत के बावजूद परिवार की सामाजिक स्थिति और सोच का दायरा शीर्ष पर था, वो कोटे के स्वामी कहे जाते थे।
देश को आजादी मिली,जम्हूरियत कायम हुई। बड़े होने पर उन्होंने गांधी बाबा की पद यात्रा और कहानियों को सुना। उनके आदर्शों आत्मसात किया और आजीवन उनसे प्रभावित रहे। जब हाई स्कूल में थे तब उन्हें नदी पार करके नाव से स्कूल जाना होता। कभी-कभी मीलों पैदल चलते, लेकिन उनकी माता जी को शिक्षा के महत्व पर भरोसा था उनकी पढ़ाई के लिए अपने गहने तक बेच डालीं, ताकि बेटा कॉलेज जा सके। वह मेधावी थे। मां की उम्मीदों हमेशा खरे उतरे। जौनपुर के टीडी कॉलेज से इतिहास में परास्नातक किया। इसके बाद तुरंत, उन्हेंं सुलतानपुर के कादीपुर स्थित संत तुलसी दास महाविद्यालय में एक व्याख्याता की नौकरी मिल गई। इसी दरमियान उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, बेटे सिद्धार्थ के आगमन की खबर सुनते ही उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। तय किया कि अपने बच्चों को बेहतर जीवन का हर संभव अवसर देंगे।
इसके बाद वह दिल्ली चले गए। दिल्ली में जवाहरलाल लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) पहुंचे, जहां छात्र के रूप में उनके विश्व दृष्टिकोण को विस्तार मिला। वैचारिक बारीकियों से अवगत हुए। समाजवाद, साम्यवाद, माक्र्सवाद, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक समानता, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति, साहित्य और भाषाओं को जानने और पढऩे की भूख बढ़ी। शायद इसी वजह से उनकी दिलचस्पी पत्रकारिता में होने लगी। इसके बाद देश के शीर्ष समाचार प्रतिष्ठानों के लिए काम किया। समसामयिक घटनाओं पर अपने समय के सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक विश्लेषकों और अनन्य जानकारों में से एक बन गए।
राष्ट्रीय सहारा, जेवीजी टाइम्स, अक्षर भारत, जन संदेश टाइम्स, एनडीटीवी, देशबंधु में उन्होंने लंबे समय तक काम किया। बीबीसी हिंदी, टाइम्स नाउ, एबीपी न्यूज, सीएनएन-आईबीएन में भी योगदान दिया। उन्होंने कई प्रतिष्ठित सस्थानों में पत्रकारिता को पढ़ाया और सिखाया भी। अनेक विषयों पर विशेष व्याख्यानों के लिए देश के कोने-कोने से बुलाए जाते। कई युवाओं में स्वच्छ और साहसी पत्रकारिता की सच्ची आग को प्रज्ज्वलित किया। लाखों प्रशंसक टेलीविजन पर उनकी उपस्थिति, आकर्षक व्यक्तित्व और दमदार आवाज के कायल थे। उन्होंने अधिकांश प्रमुख हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी समाचार पत्रों के लिए जीवन के अंतिम सप्ताह तक कॉलम लिखते रहे। सही अर्थों में कलम के सच्चे सिपाही थे।
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शेषजी, बहुआयामी प्रतिभा के धनी और शानदार व्यक्तित्व के स्वामी थे, यही उनकी पहचान थी। वे किसी के लिए मित्र थे, तो किसी के चाचा या मामा थे। पढ़ाना 40 वर्ष पहले छोड़ चुके थे लेकिन कई लोगों अभी तक उन्हें गुरू जी कह कर पुकारते थे। उनकी मृत्यु पर प्रत्येक शोक संदेश हार्दिक और व्यक्तिगत है। उनसे जुड़ी हर एक बात अपने आप में दास्तान है। उनके पास लोगों से जुडऩे, उनसे संपर्क बनाए रखने और हमेशा मौजूद रहने की असाधारण क्षमता थी। अपने जीवन में उन्होंने हमेशा लोगों की मदद की, तब जब उनके पास कुछ था और तब भी जब उनके पास कुछ नहीं था। उन्होंने लोगों की अच्छाई देखी और जीवन का जश्न मनाया क्योंकि प्रत्येक दिन को वे नई संभावनाओं से भरा मानते थे। सुबह के पहले प्रहर में ही लिखने बैठ जाते थे। हाथ में एक किताब और बिस्तर के बगल में दूसरी। सभी को पढ़ने, विचारों का आदान-प्रदान करने और साझा करने के लिए प्रोत्साहित करते। उनके बच्चों को पता था कि उन्हेंं देने के लिए सबसे अच्छा उपहार एक नई पुस्तक है, जिसे वे अपने छोटे से फ्लैट में बनाए गए विशाल पुस्तकालय में गर्व से संजो कर रखते थे। पूर्वजों के गांव से आजीवन प्रेम रहा। गांव आंगन में लगा नीम का पेड़ उन्हें बहुत भाता था। घर की, खेत की, उस परिवेश की तस्वीरें साझा करते थे। वहां बनाया हुआ घर उनके बुढ़ापे का नया ठिकाना बनने वाला था। शेष जी, ने यह सुनिश्चित किया कि उनके बच्चे अपनी जड़ों से जुड़े रहे। अपने नाती पोतों के दिल में भी गांव के प्रति प्यार का बीज बो दिया था। जिस विषय पर उन्होंने सबसे अधिक लिखा वह था गांधी। उन्हेंं राष्ट्रपिता और स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में अथाह ज्ञान था। ग्राम स्वराज में विश्वास और भगवत गीता की समझ भी गांधीवादी विचारधारा से निकली, जिसे उन्होंने जीवन में उतारा। उनका धर्म था सही कर्म करना, सबके प्रति करुणा का भाव रखना। वह एक समर्पित पति थे, और अपने जीवन साथी को हर दिन मुस्कुराते देखना चाहते थे। बच्चों से बिना शर्त असीम प्यार करते। उनकी सहमति और समर्थन सदा बच्चों को ही होता। केवल पिता नहीं अभिभावक, संरक्षक और मित्र भी थे। दादा के रूप में, जीवन के छोटे सितारों के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे। बच्चों के साथ बच्चा बन जाना उन्हेंं बहुत पसंद था। समर्पित और वफादार दोस्त थे, यारों के यार थे। उनसे कई लोगों की दोस्ती 40-50 साल से चली आ रही थी। बचपन से लेकर स्कूल, कॉलेज और काम तक उन्होंने सभी को अपने साथ आगे बढ़ाया और साथ निभाया। पूरे परिवार के लिए भी वे ही पितातुल्य थे। उनके भाई-बहनों के बच्चे भी उनके अपने जैसे थे, और वे उनके जीवन के हर पायदान पर उनके लिए एक सच्चे अभिभावक थे। कुछ साल पहले मुंबई में एक युवा पत्रकार को सम्मानित करने के लिए आयोजित एक समारोह में पुरस्कार प्राप्त करने वाले व्यक्ति ने संबोधन में कहा, हर कोई अपने बच्चों से प्यार करता है, शेषजी दूसरों के बच्चों को भी अपना ही समझते हैं। अनेक विचारधाओं का गोता लगाया लेकिन शेषजी को समतावादी विचार ही सबसे प्रिय था। उनके विचार व्यापक फलक पर आधारित थे। उन्होंने ज्योतिबा फुले, बी आर अंबेडकर, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल को पढ़ा और राष्ट्रीय राजधानी और राज्यों में लगभग सभी दलों के शीर्ष राजनेताओं के साथ जुड़े रहे। सबसे रसूखदार लोगों तक उनकी पहुंच थी, बावजूद इसके इन रिश्तों का अनुचित प्रयोजन के लिए दुरुपयोग नहीं किया। |
हिंदी भाषी भारत और उसके सामाजिक सरोकारों व समीकरणों के बारे में उनकी समझ अद्वितीय थी। पिछले चार दशकों में देश के बदलते राजनीतिक परिदृश्य के बारे में जानकारी का खजाना थे। उन्हें शायरी और कविता से प्यार किया। यथार्थवादी और समानान्तर सिनेमा देखना पसंद करते थे। शास्त्रीय संगीत ठुमरी और खयाल गायकी सुनते थे। दशहरी आम के बहुत शौकीन। जिंदादिल इंसान के साथ ख़ुशमिजाज थे। दोस्तों के लिए उनके घर का दरवाजा हमेशा खुला रहता। भावुक थे, आसानी से रो देते और बेझिझक प्यार करते थे। मनमोहक मुस्कान के साथ हर किसी को गले लगाते। उनका होना अपने एक निजी आसमान का होना था।
अपने जीवन के संघर्ष का वर्णन वे कुछ इस प्रकार करते थे –
तूफान कर रहा था मेरे अज्म का तवाफ,दुनिया समझ रही थी कश्ती भंवर में है।
Shesh Narain Singh02.08.1951 – 07.05.2021