पोप की इराक यात्रा के बाद नरसंहार
आईएसआईएस ने ली हमले की जिम्मेदारी
पोप फ्रांसिस की बहुचर्चित यात्रा के फौरन बाद, गुरुवार को इराक की राजधानी बगदाद के निकट हुए 3 नृशंस हत्याकांडों ने पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित किया है। इस नरसंहार की जिम्मेदारी ‘इस्लामिक स्टेट’ ने ली है, जिसको अब दुनिया ने समाप्तप्राय मान लिया था। पूरी सोची समझी रणनीति के तहत इन हत्याओं को अंजाम दिया गया था जिसमे 8 लोगो का बड़ी बर्बरता से कत्ल कर दिया गया।
आईएसआईएस ने ली हमले की जिम्मेदारी
इराकी सेना द्वारा जारी वक्तव्य में कहा गया है कि बगदाद से 84 मील दूर सुन्नी बहुसंख्यक इलाके सलाह-अल-दीन में 3 अलग अलग हमलों में 8 निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। जिनमे 6 तो एक ही परिवार के थे। यह इलाका शिया बाहुल्य वाले अर्धसैनिक बल ‘पॉपुलर मोबिलाइजेशन यूनिट’ के कब्जे में है। और मरने वालों पर आरोप लगाया गया कि वह लोग इन्ही अर्धसैनिक बलों के लिए जासूसी का काम करते थे।
इस्लामिक स्टेट ने हमले की जिम्मेदारी ली है। उनके अनुसार पहले मृतकों के घर मे जबरन घुसा गया, और पूरे परिवार को एक साथ मौत के घाट उतार दिया गया। इसके अलावा उसी कस्बे में एक पुलिस वाले और एक वकील की अलग अलग हत्याएं की गईं। अपने दावे के समर्थन में इस आतंकवादी संगठन ने सबूत भी पेश किए।
पोप की इराक यात्रा के तुरंत बाद हुआ नरसंहार
यह घटना दो वजहों से सुर्खियां बटोर रही है। एक तो अभी हाल ही में ईसाइयों के सबसे बड़े धार्मिक नेता पोप फ्रांसिस ने इराक की यात्रा की थी। जिसे विभिन्न समुदायों में शांति और सद्भाव की स्थापना के प्रयास के रूप में देखा जा रहा था। दूसरा यह कि चरमपंथी आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट अभी खत्म नही हुआ है और वह हर सम्भव प्रयास करेगा कि इलाके में शांति स्थापित न हो सके।
बड़ी ताकतों के बीच पिसता इराक
दरअसल वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में इराक जैसे देश, बड़ी शक्तियों के शक्ति प्रदर्शन के लिए अखाड़ा बन चुके हैं। ईरान और तुर्की दोनों की अपनी महत्वाकांक्षाएं उनको किसी भी तरह की शांति बहाली से रोकती हैं। उधर अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के बाद से यह सिद्ध हो चुका है कि राष्ट्रपति जो बिडेन, अपने पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रम्प के उलट सेना की वापसी में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाने वाले हैं।
इरानी जनरल की हत्या ने माहौल बिगाड़ा
ऐसा माना जा रहा है कि पिछले साल ईरानी जनरल कासिम सुलेमानी की अमेरिकी सेना द्वारा करी गयी हत्या ने क्षेत्र में तनाव जबरदस्त तरीके से बढ़ा दिया है। वैसे तो सुलेमानी अमेरिका का धुर विरोधी था, वह अमेरिका के साथ साथ इसराइली खुफिया सर्विस के भी राडार पर था, किंतु एक बात पर वह और उसके दुश्मन एक मत थे कि इस्लामिक स्टेट जैसे चरमपंथी संगठन का सम्पूर्ण खात्मा बेहद जरूरी है।
सुलेमानी की हत्या के बाद से ईरान का अमेरिका पर से विश्वास पूरी तरह उठ गया। और अब वह इस तरह की कोशिशें करने लगा कि इराक के अंदर राजनैतिक स्थिरता का अभाव बना रहे। सोशल मीडिया इत्यादि का भरपूर इस्तेमाल कर के पिछले एक वर्ष में इराक के अंदर अराजकता, हत्याओं, प्रदर्शनों और बलवों की एक अबाध श्रृंखला सी चला दी गयी। और इसी वजह से इस्लामिक स्टेट के आतंकवदियों को अपने फलने फूलने की जगह भी फिर से प्राप्त हो गयी।
खत्म नही हुआ आईएसआईएस
उधर सीरिया में इस संगठन ने अपनी लड़ाई जारी रखी हुई है और यह अब किसी से छुपा नही है कि वहां पर इसे तुर्की से काफी मदद मिल रही है। कुर्द लड़ाकों की आड़ में तुर्की का ‘आईएस’ को बढ़ावा देना उसके आकाओं द्वारा ‘खिलाफत’ को पुनर्स्थापित करने की महत्वाकांक्षी योजना का ही एक भाग है।
पोप की इराक यात्रा के निहितार्थ
पोप फ्रांसिस की यात्रा इसी वजह से खास हो गयी थी क्योंकि शिया सुन्नी के इस अखाड़े में पहली बार तीसरा धार्मिक एंगल बन रहा था। कयासों के उलट पोप जहां भी गए उन्होंने शांति की बात की। उन्होंने राजनैतिक रूप से लगभग समाप्त हो चुके इराकी ईसाइयों को संदेश तो दिया ही, साथ ही विभिन्न समुदायों में आपसी सहभागिता की वकालत भी की। उन्होंने सिर्फ ईसाइयत की बात न करते हुए अब्राहमिक धर्म की बात की, जिससे यह संदेश जाता है कि शिया सुन्नी और ईसाइयत का उद्गम आपस मे जुड़ा हुआ है।
यह आश्चर्यजनक था। क्योंकि वर्तमान पोप ने परंपरा के उलट अपने वक्तव्य दिए थे। कैथोलिक चर्च और इस्लामिक परम्परा का आपस मे बैर सदियों पुराना है। ज्यादातर यही देखा गया है कि चर्च ने सदैव इस्लाम का हौवा दिखा कर उनके खात्मे की ही वकालत की थी। ठीक इसी प्रकार इस्लामिक चरमपंथियों ने ईसाइयत को अपने खिलाफ बताते हुए उनका खात्मा करना अपना धर्म मान लिया था। विभिन्न पक्षों के आतंकवादी संगठनों का उभार इसी धार्मिक वैमनस्यता में निहित है।
आतंकियों को नहीं भाती शांति की बातें
वर्तमान परिदृश्य में पोप की यात्रा शांति और सद्भाव का संदेश देने का प्रयास थी। यह स्थिति आतंकवादियों के लिए अनुकूल नही होती। वह परंपरागत रूप से बड़े धर्मों के बीच आपस मे व्याप्त अविश्वास की भावना को मजबूत देखना पसंद करते हैं। विचारों, संप्रदायों और जातिगत आधार पर बंटा हुआ समाज इन चरमपंथियों के लिहाज से ज्यादा उपयुक्त होता है। जिससे वह भय का सहारा ले कर ज्यादा से ज्यादा आर्थिक और राजनीतिक लाभ लेने को उत्सुक रहते हैं।
(लेखक भारतीय वायुसेना से अवकाशप्राप्त अधिकारी हैं, रक्षा और सामरिक मामलों पर विभिन्न मीडिया चैनलों पर अपनी राय रखते हैं।)