धर्म का सार तत्व
मानव समाज के साथ धर्म शब्द अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है. धर्म को लेकर दुनिया में बहुतेरे संघर्ष हुए आज भी हो रहे हैं. प्रश्न उठता है कि धर्म का सार तत्व क्या है?
आज कोरोना की बंदी में सारे धर्मों के बड़े बड़े पूजा स्थल बंद हैं, जहां करोड़ों लोग मन की शांति और लोक परलोक सुधारने की प्रार्थना करने जाते हैं.
प्र्श्न उठता है कि क्या पूजा पद्धति ही धर्म है. अथवा धर्म कुछ ऐसा है जो हमारे अस्तित्व, सोच और व्यवहार से जुड़ा है.
आधुनिक युग के महात्मा मोहन दास करम चंद गांधी के लिए धर्म का सार तत्व सामाजिक जीवन और प्रकृति के शाश्वत नियम थे, जिनका उल्लेख वेदों – उपनिषदों में भी है. डा चंद्र विजय चतुर्वेदी धर्म के इन्हीं लक्षणों की पड़ताल इस लेख में कर रहे हैं. – सम्पादक
भारतीय दर्शन में धर्म के लक्षणों की विस्तृत विवेचना हुई है। सनातन संस्कृति में धर्म का सार तत्व समाज को धारण करने के रूप में समझा गया –जो मनुष्य को उन्नत बनाता है। गौतम ऋषि के अनुसार –यतो अभ्युदय निश्रेयस सिद्धिः स धर्मः –जिससे अभुदय और निश्रेयस की प्राप्ति हो वही धर्म है।
याज्ञवल्क ने धर्म के नौ धर्म का सार तत्व या लक्षण बताये –
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिनिद्रियनिग्रह ,
दानं दमो दया शांतिः सर्वेषा धर्म साधनम .
पद्मपुराण में धर्म के दश अंग बताये गए। विदुर नीति के अनुसार धर्म के आठ साधन हैं। श्रीमद्भागवत में सनातन धर्म के तीस लक्षण बताये हैं .
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जैन धर्म के दिगंबर अनुयायि सूत्र में दश लक्षण वर्णित हैं। ये लक्षण ही धर्म के धर्म का सार तत्व अथवा सर्वस्व हैं जो बेहतर तरीके से जीने की कला विकसित करते हैं –ये नैतिक नियम हैं —एथिक्स ऑफ़ रेसिप्रोसिटी। मनुस्मृति में धर्म के दश लक्षण बताये गए हैं —
धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहं ,
धीः विद्या सत्यमक्रोधो दशकम धर्म लक्षणम –मनुस्मृति -6 \91
एक –धृति -अर्थात धैर्य जिसका अर्थ धारण करना भी है –तात्पर्य जीवन में सुख दुःख लाभ -हानि मान -अपमान समय -कुसमय उसे सहर्ष धारण करते रहना स्वीकार करते रहना यही संतोष वृत्ति है यही धैर्य है।
संकट के समय सबसे बड़ी परीक्षा धैर्य की होती है -धैर्य ही मानव को टूटने से बचाता है। धीरवान पुरुष कर्मों के प्रयोजन परिणाम तथा अपनी उन्नति का विचार करके ही कोई कार्य प्रारम्भ करता है।
दो –क्षमा -इसमें दया और उदारता समाहित है –सामर्थ्यवान व्यक्ति ही क्षमाशील हो सकता है। यह मजबूरी नहीं है क्षमा ही शान्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन है। विदुर नीति में कहा गया –क्षमा हि परमं बलं -तथा शक्तिनाम भूषण क्षमा –अर्थात क्षमा ही सबसे बड़ा बल है जो जो समर्थों का भूषण है।
तीन -दम –या दमन –इन्द्रियों द्वारा अतिरेक बिषय भोग का दमन। पांच इन्द्रियों द्वारा रूप -रस -गंध -स्पर्श -ध्वनि के भोग में समभाव और संयमित रहना।
चार -अस्तेय –चोरी न करना –किसी के धन की इच्छा न करना।
पांच -शौच –पवित्रता –बाह्य और आतंरिक शुचिता।
छह –इन्द्रिय निग्रह तृष्णा को नियंत्रित करके सात्विक सुखों का उपभोग –मन चित को सात्विक बनाकर इन्द्रियों को बिषय भोग से दूर करना।
सात –धीः –बुद्धि –धन्ते इति धीः –जो धारण करे वही बुद्धि है। यह बुद्धि का विकास ही है जिससे मानव मानव बना। बुद्धि से ही ज्ञान ग्रहण किया जाता है। बुद्धि से भय दूर होता है –बुद्ध्या भयं प्रणुदति
आठ –विद्या –ज्ञान –लौकिक और पारलौकिक सुख के लिए –परा -आध्यात्मिक विद्या और अपरा लौकिक विद्या की प्राप्ति ,
बुद्धि जब विद्या का अनुसरण करे और विद्या बुद्धि का अनुसरण करे तभी मनुष्य पंडित होता है.
नौ -सत्य —सत्य ही ईश्वर है –जहाँ सत्य नहीं वहां धर्म नहीं। प्रेम और अहिंसा से सत्य का साक्षात्कार होता है।
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दस –अक्रोध –क्रोध ही जो हिंसा है मनुष्य का शत्रु है जो मनुष्य की सभी अच्छाइयों को नष्ट कर देता है –यही अहिंसा है
ये लक्षण ही धर्म के धर्म का सार तत्व , सर्वस्व हैं।
पद्मपुराण में कहा गया है -आत्मानं प्रतिकूलानि परेषाम न समाचरेत –अर्थात जो आचरण स्वयं को प्रतिकूल हो वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए –यही धर्म का सार तत्व है .
डा चन्द्र विजय चतुर्वेदी –प्रयागराज
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