नामकरण ही नहीं, उसके पीछे के इरादे भी जानना ज़रूरी है !
अहमदाबाद में सरदार पटेल स्टेडियम का नाम अचानक बदलकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर करने का राजनीतिक संदेश क्या है? अभी क्या कुछ और बदला जा सकता है और किसान आंदोलन का भविष्य क्या है? इन महत्वपूर्ण प्राशनों पर राजनीतिक विश्लेषक श्रवण गर्ग की टिप्पणी.
अहमदाबाद में नए सिरे से निर्मित और श्रृंगारित दुनिया के सबसे बड़े स्टेडियम का नाम उद्घाटन के अंतिम क्षणों तक रहस्यमय गोपनीयता बरतते हुए बदलकर एक ऐसी शख़्सियत के नाम पर कर दिया गया जो राजनीतिक संयोग के कारण इस समय देश के प्रधानमंत्री हैं।
इसी तरह के संयोगों के चलते और भी लोग पूर्व में समय-समय पर प्रधानमंत्री रह चुके हैं पर उनके पद पर बने रहते हुए ऐसा नामकरण पहले कभी नहीं हुआ होगा। स्टेडियम के दो छोरों में एक ‘अंबानी एंड’ और दूसरा ‘अडानी एंड ‘कर दिया गया है।ज़ाहिर है प्रधानमंत्री के नाम वाले इस राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम में भविष्य के सारे खेल अब इन दो छोरों के बीच ही खेले जाने वाले हैं।
कृषि क़ानून इन खेलों का सिर्फ़ एक छोटा सा हिस्सा भर है। प्रधानमंत्री ने साफ़ भी कर दिया है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है। एक-एक करके जब सभी मूलभूत नागरिक ज़रूरतों और सुविधाओं को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है , किसी उचित अवसर पर शायद यह भी स्पष्ट कर दिया जाएगा कि सरकार और संसद के ज़िम्मे अंतिम रूप से क्या काम बचने वाले हैं। और जब ज़्यादा काम ही करने को नहीं बचेंगे तो फिर लगभग दोगुनी क्षमतावाला नया संसद भवन बनाने की भी क्या ज़रूरत है?
इसमें कोई दो मत नहीं कि किसान-आंदोलन के कारण अभी तक सुन्न पड़े विपक्ष में कुछ जान आ गई है और उसने सरकार के प्रति डर को न सिर्फ़ कम कर दिया है, राजनीति भी हिंदू-मुस्लिम के एजेंडे से बाहर आ गई है। इसे कोई ईश्वरीय चमत्कार नहीं माना जा सकता कि गो-मांस और पशुओं की तस्करी आदि को लेकर आए-दिन होनेवाली घटनाएँ और हत्याएँ इस वक्त लगभग शून्य हो गई हैं।ऐसा कोई नैतिक पुनरुत्थान भी नहीं हुआ है कि मॉब-लिंचिंग आदि भी बंद है। स्पष्ट है कि या तो पहले जो कुछ भी चल रहा था वह स्वाभाविक नहीं था या फिर अभी की स्थिति अस्थाई विराम है।
सरकार अगर अचानक से घोषणा कर दे कि परिस्थितियाँ अनुकूल होने तक अथवा किन्ही अन्य कारणों से विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस लिया जा रहा है और कृषि क्षेत्र के सम्बन्ध में सारी व्यवस्थाएँ पहले की तरह ही जारी रहेंगीं तो आंदोलनकारी किसान और उनके संगठन आगे क्या करेंगे ? महीनों से दिल्ली की सीमाओं पर जमे हज़ारों किसान और उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाक़ों में महापंचायतें आयोजित कर रहे आंदोलनकारी जाट क्या सरकार की जय-जयकार करते हुए अपने ट्रेक्टरों के साथ घरों को लौट जाएँगे या फिर कुछ और भी हो सकता है? राकेश टिकैत ने तो किसानों से अपने ट्रेक्टरों में ईंधन भरवाकर तैयार रहने को कहा है। उन्होंने चालीस लाख ट्रेक्टरों के साथ दिल्ली में प्रवेश कर संसद को घेरने की धमकी दी है। अतः साफ़ होना बाक़ी है कि क्या बदलती हुई परिस्थितियों में भी किसान नेताओं का एजेंडा कृषि क़ानूनों तक ही सीमित है या कुछ आगे बढ़ गया है?
यह बात अभी विपक्ष की समझ से परे है कि किसी एक बिंदु पर पहुँचकर अगर किसान आंदोलन किन्ही भी कारणों से ख़त्म हो जाता है तो जो राजनीतिक शून्य उत्पन्न होगा उसे कौन और कैसे भरेगा। किसान राजनीतिक दलों की तरह पूर्णकालिक कार्यकर्ता तो नहीं ही हो सकते। और यह भी जग-ज़ाहिर है कि कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन को विपक्षी दलों का तो समर्थन प्राप्त है, किसानों का समर्थन किस दल के साथ है यह बिलकुल साफ़ नहीं है। टिकैत ने भी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को सार्वजनिक तौर पर उजागर नहीं किया है।
बड़ा सवाल अब यह है कि एक लम्बे अरसे के बाद देश में पैदा हुआ इतना बड़ा प्रतिरोधात्मक आंदोलन अगर किन्ही भी कारणों से समाप्त होता है या शिथिल पड़ता है तो क्या ऐसा होने से पहले किसान अपने मंच विपक्षी दलों के साथ साझा करते हुए लड़ाई को किसी अगले बड़े मुक़ाम पर ले जाने का साहस दिखा पाएँगे? तीन महीने पहले प्रारम्भ हुए किसान आंदोलन के बाद से नागरिकों के स्तर पर भी ढेर सारे सवाल जुड़ गए हैं और लड़ाई के मुद्दे व्यापक हो गए हैं। इन सवालों में अधिकांश का सम्बन्ध देश में बढ़ते हुए एकतंत्रवाद के ख़तरे और लोकतंत्र के भविष्य से है।
अहमदाबाद के क्रिकेट स्टेडियम में चौबीस फ़रवरी को जो कुछ भी हुआ वह केवल एक औपचारिक नामकरण संस्कार का आयोजन भर नहीं था जिसे कि राष्ट्र के प्रथम नागरिक की प्रतिष्ठित उपस्थिति में सम्पन्न करवाया गया। जो हुआ है वह देश की आगे की ‘दिशा’ का संकेत है जिसमें यह भी शामिल हो सकता है कि नए स्टेडियम के नाम के साथ और भी कई चीजों के बदले जाने की शुरुआत की जा रही है। यानी काफ़ी कुछ बदला जाना अभी बाक़ी है और नागरिकों को उसकी तैयारी रखनी चाहिए। केवल सड़कों, इमारतों, शहरों और स्टेडियम आदि के नाम बदल दिए जाने भर से ही काम पूरा हो गया है ऐसा नहीं समझ लिया जाए।
सोशल मीडिया के उपयोग को लेकर जारी किए गए ताज़ा कड़े निर्देशों को भी इसी बदलाव की ज़रूरतों में शामिल किया जा सकता है।सरकारों के लिए परिवर्तन एक निरंतर चलने वाली प्रकिया है। इस प्रक्रिया के पूरा करने की कोशिश में कई बार व्यक्ति को ही राष्ट्र बन जाना पड़ता है। स्टेडियम का नया नाम भी उसी ज़रूरत का एक हिस्सा हो सकता है। व्यक्तिवादी व्यवस्थाओं का काम उन स्थितियों में और भी आसान हो जाता है जब बहुसंख्यक नागरिक अपनी जाने बचाने के लिए टीके का इंतज़ाम करने में जुटे हुए हों या किसी दीर्घकालिक योजना के तहत जोत दिए गए हों ।
इससे पहले कि देखते ही देखते सब कुछ योजनाबद्ध और आक्रामक तरीक़े से बदल दिया जाए, आवश्यकता इस बात की है कि या तो किसान अपने शांतिपूर्ण आंदोलन में विपक्ष को भी सम्मानपूर्ण जगह देकर सार्वजनिक तौर पर भागीदार बनाएँ या फिर वे स्वयं ही एक सशक्त और आक्रामक विपक्ष की भूमिका अदा करें।आंदोलन समाप्त हो सकते हैं पर लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए एक प्रभावशाली विपक्ष की स्थायी उपस्थिति ज़रूरी है।
-श्रवण गर्ग , वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक