नागवंश ,भारशिवनाग वंश ,राजभर कौन हैं?
नागवंश ,भारशिवनाग वंश ,राजभर ,भर– पूर्व वैदिक काल से आधुनिक काल तक की पौराणिक और ऐतिहासिक यात्रा का निहितार्थ. प्रयागराज से डा चंद्रा विजय चतुर्वेदी का एक खोज पूर्ण लेख.
16 फरवरी 2021 ,वसंत पंचमी को उत्तरप्रदेश में सरकारी गैर सरकारी स्तर पर सुहेलदेव जयंती बहुत धूमधाम से मनाई गई। सरकार द्वारा बहराइच में सुहेलदेव की याद में उनके स्मारक की आधारशिला भी प्रधानमंत्री द्वारा रक्खी गई।
इतिहास के पन्नो में महाराज सुहेलदेव को श्रावस्ती सम्राट के रूप में वर्णित किया गया है। एक महान योद्धा के रूप में अवध के मैदानी क्षेत्रोंके लोकजीवन में सुहेलदेव को याद किया जाता है। 1907 में प्रकाशित बहराइच के गजेटियर में सुहेलदेव के साथ राजपूत ,राजभर ,भर पासी ,बौद्ध ,तथा जैन का भी उल्लेख है। कभी सुहेलदेव को राजा सुहेलदेव राजभर ,राजपूत के रूप में प्रचारित किया जाता है तो कभी उन्हें भर पासी अनुसूचित जाति से जोड़ दिया जाता है तो कभी राजभर पिछड़ावर्ग का मसीहा कहा जाता है। पिछड़ेवर्ग के बिन्द ,केवट , चौरसिया तथा अन्य कई छोटे किसानो का समुदाय अपने को भर ,राजभर ,से जोड़ता है।
इन सब के बीच पूर्व वैदिक काल से लेकर आज तक के पुराण तथा इतिहास के अनुशीलन से बहुत महत्वपूर्ण और रोचक तथ्य प्रकाश में आते हैं की राजभर और भर समुदाय की कड़ी इस देश के आदि मानव समुदाय से जुडी हुयी है।
भारतीय पुरातत्ववेत्ताओं और प्राचीन भारतीय इतिहास के विद्वानों द्वारा ऐसा कोई प्रामाणिक इतिहास नहीं प्रस्तुत किया जा सका है ,जिससे यह ज्ञात हो सके की मूलतः भारत की प्राचीन जाति कौन सी है जो यही उत्पन्न हुयी यही पली और बढ़ी।
प्राचीन इतिहास के आधार पर प्राचीनतम जाति नेग्रीटो माना जाता है ,यह मानवजाति अफ्रीका से आई या भारत की रही इसमें भी ,मतभेद है। दूसरी प्राचीन जाति आस्ट्रिको कहा जाता है जिसके अंतर्गत निषाद ,कोल ,भील ,शबर आदि जातियां आती हैं। इसके बाद प्राचीन जातियों में किरात का उल्लेख होता है। इन्हे आदि मंगोल भी कहा जाता है जो चीनी सभ्यता का निर्माता है। चौथी प्राचीन जाति द्रविण हैं इनका मूल स्थान भी स्पष्ट नहीं है। आर्य कहलाने वाली भारतीय जाति द्रविणो के बाद भारत में आई। अधिकांश भारतीय विद्वान् वेद पुराण के आधार पर आर्यों का मूल स्थान भारत ही मानते हैं।
वैदिक सभ्यता के पूर्व भारत में कोई समृद्ध सभ्यता रही है जिसे नाग सभ्यता शैव ग्रंथों के आधार पर कहा जाता है जो समूचे विश्व में फैली थी। यह शोध का विषय है की कहीं नागवंशी मानव सभ्यता ही नेग्रीटो सभ्यता तो नहीं थी । पौराणिक ग्रंथों और महाभारत के अनुसार कश्यप और कद्रू से एक सहस्त्र सर्प पैदा हुए। इन पुत्रों से ही आगे चलकर नाग जाति विक्सित हुयी। इनमे से प्रमुख नागवंश हुए –वासुकि वंश ,तक्षकवंश ,ऐरावत वंश ,कर्कोटक वंश ,,धृतराष्ट्र वंश ,शंख वंश तथा कलिक वंश। महाभारत के अनुसार नागों के प्रमुख निवास स्थान थे –नागलोक ,सरस्वती नदी के किनारे नागधन्वा तीर्थ और नागपुर। प्रयाग तीर्थ के नायकों में वासुकि नाग और शेषनाग का उल्लेख किया गया है –त्रिवेणी माधवं सोमं भरद्वाजं च वासुकिम –वन्दे अक्षयवट शेषं प्रयागं तीर्थनायकम।
विश्वयुद्ध महाभारत से पहले राम -रावण युद्ध और इससे पूर्व सहस्रार्जुन परशुराम युद्ध से भी प्राचीन दाशराज्ञ युद्ध मानवीय सभ्यता का प्रथम विश्वयुद्ध है।
ऋग्वेद के अठारहवें सूक्त के मन्त्रों में इस युद्ध का उल्लेख मिलता है। इस युद्ध में पांचाल देश के सुविख्यात राजा सुदास पैजवन ने दश प्रतापी राजाओं पर विजय प्राप्त किया। ऋग्वेद में ही सुदास को दिवोदास का पुत्र कहा है और भरत वंशीय बताया है। दिवोदास और सुदास को कई वैदिक ग्रंथों में भरतकुल का नागवंशी माना है।
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ऋग्वेद में भरत को मानव समूह कहा गया है और विश्वामित्र को भरतों का ऋषभ अर्थात भरतों में श्रेष्ठ कहा गया है। सुदास ने दाशराज्ञ युद्ध में वशिष्ठ और इंद्र की सहायता से सफलता प्राप्त की थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारंभ में विश्वामित्र ही भरतकुल के पुरोहित रहे होंगे जो मतभेदों के कारण सुदास के विरोध पक्ष में सम्मिलित हो गए होंगे। वैदिक काल और पूर्व वैदिक काल के ग्रंथों के अनुशीलन से विदित होता है की पूर्व वैदिक युग और वैदिक युग में मानव समुदायके विभिन्न वंश कबीलों में रहते थे। दाशराज्ञ युद्ध को ऋग्वेद में एक दुर्भाग्यशाली घटना कहा गया है। विश्वामित्र के विचार का आधार था वेद पर आधारित भेदभाव रहित वर्णव्यवस्था का विरोध और दूसरी ओर था एकतंत्र और इंद्र की सत्ता को स्थापित करने की विचारधारा जिसे वशिष्ट और सुदास ने बल प्रदान किया।
इस युद्ध में कबीले के गणतांत्रिक समाज को समाप्त कर राजाओं पर केंद्रित समाज को स्थापित किया गया। इस युद्ध से आर्यावर्त और आर्यों पर भरतों का राज्य स्थापित हो गया। आर्यावर्त भारतवर्ष कहा जाने लगा।
कालांतर में बौद्ध काल ,शुंगकाल और कुषाण कल में भी नागवंशियों का अस्तित्व किसी न किसी रूप में बना रहा ये शैव थे शिव के उपासक थे ये अपने सर पर शिवलिंग धारण करने लगे जिससे भारशिव नागवंशी कहे जाने लगे.
इन्होने अपना राज्य यमुना गंगा की घाटी में स्थापित किया। समुद्रगुप्त से पूर्व दूसरी सदी ईस्वी में कुषाणों को धूलचटाने वाले भारनाग क्षत्रियों ने तमसा ,गंगा और विन्ध्यगिरि श्रंखला की भूमि पर सामरिक तैयारी की और काशी में कुषाणों को पराजित कर उनका सिंहासन हस्तगत किया तथा विंध्याचल के समीप कान्तिपूरी नाम से अपनी राजधानी स्थापित किया।
विजय के उपरांत इस क्षेत्र में –सेमराधनाथ ,बदेवरानाथ ,महुआंव तथा कोठार में शिवलिंगों की स्थापना की थी। उनके विजय की पुण्यतिथि कदाचित पूस महीने के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी थी। इन स्थानों पर आज भी तेरस का भारी मेला लगता है। कान्तिपूरी आज कंतित कहा जाता है। पंद्रहवीं शताब्दी के उपरांत इस क्षेत्र में गहरवारों के दो राज्य विजयपुर और मांडा स्थापित हुए जो अपने को भारशिव नागवंशियों से जोड़ते हैं।
समुद्रगुप्त के दिग्विजय में भारशिव नागवंशी उनके अधीन हो गए और उनके अधीन कार्य करने वाले राजभर कहे जाने लगे। युग परिवर्तन की श्रंखला में राजाओं की आपसी लड़ाई में विजय पराजय में जातीय स्थितियों में भी परिवर्तन होता रहता है। राज्य से बेदखल होने पर फिर ये राजभर से घुमन्तु जाति भर होते गए। कंतित के आसपास के बहुत से गांव भरारी ,भरदुआर ,भदोही –भारद्रोही ,भरवारी इनके स्मृति के प्रतीक हैं।
डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज