पोलैंड में हिटलर की नात्ज़ी हुकूमत के ज़ुल्म की कहानियां
पोलैंड में हिटलर की नात्ज़ी हुकूमत के ज़ुल्म की कहानियां . त्रिलोक दीप वैसे तो कोई चार दशक पहले पोलैंड की यात्रा पर गये थे लेकिन औश्वीत्ज़ में नाज़ियों द्वारा बनाए गए यातना शिविर की याद उन्हें अभी भी दुखी कर जाती है। 6 जनवरी 2021 को जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बलवाई समर्थकों ने वहां के संसद भवन पर हमला किया तो उनमें से कुछ ने औश्वीत्ज़ लिखा टोपी वाला स्वेटर पहना और नाज़ी फांसी के फंदों को प्रदर्शित किया। जिसके बाद सारी दुनिया में दहशत जा गयी और उस औश्वीत्ज़ यातना शिविर की याद ताजा हो गयी।हमारे पाठकों के लिये वे पेश कर रहे हैं वहां की खौफनाक यादों की दास्तान:
क्राकोव से मैं ज़ाकोपाने गया । इसे पोलैंड की शीतकालीन राजधानी भी कहा जाता है ।सर्दियों के दिनों में बड़ी संख्या में लोग यहां स्कीइंग के लिए आते हैं ।आधे से अधिक साल तक ज़ाकोपाने बर्फ से ढका रहता है और उसके चारों तरफ बर्फ ही बर्फ नज़र आती है ।बावजूद इसके लोगों को स्कीइंग पोशाक में देखा जा सकता है ।
ज़ाकोपाने समुद्र सतह से दो हज़ार मीटर से ज़्यादा ऊंचा है ।ज़ाकोपाने के स्थानीय नागरिकों को उनके लंबे चोगे से पहचाना जा सकता है ।
क्राकोव और ज़ाकोपाने के रास्ते में छोटे छोटे हरे भरे खेतों के बीच से गुज़रते हुए अपने वतन की याद ताज़ा हो आयी ।एक तो क्राकोव में अपने देशवासियों की बेपनाह मोहब्बत पाकर अपने मुल्क से करीबी का अहसास हुआ तो दूसरे इन छोटे-छोटे हरे भरे खेतों ने उस अहसास को इस मायने और बढ़ा दिया कि अपना देश छोड़े मुझे सात हफ्ते हो गये थे और अभी एक देश की यात्रा बाकी थी ।
जिन दिनों मैं पोलैंड की यात्रा पर था उन दिनों वहां कम्युनिस्ट शासन प्रणाली की सरकार थी ।बावजूद इसके 80 प्रतिशत खेत निजी थे और कुछ में सहकारी खेती भी होती थी ।जिस तरह से युगोस्लाविया में लोगों को निजी संपति रखने का अधिकार था पोलैंड के लोगों को भी तत्कालीन सरकार ने वैसे हक़ दिए हुए थे ।
अब तो वहां भी पश्चिमी देशों वाली शासन प्रणाली आ गयी है और पूर्व और पश्चिम यूरोप का अंतर जाता रहा है। यह सन् 1977 की बात कर रहा हूं ,इसीलिए उस दौर की शासन व्यवस्था का उल्लेख करना मैं ज़रूरी समझता हूं ।
एक परिवार को 112 मीटर में ही मकान बनाने का अधिकार था ।यहां के मकान कांक्रीट और लकड़ी के मिले जुले होते हैं ।
कुछ लोगों से बातचीत करने पर पता चला कि एक मकान को बनने में दो साल लग जाते हैं ।वह इसलिए कि लकड़ी सूखने के बाद ही मकान में पलास्टर करने का काम शुरू हो पाता है ।
यहां के जंगलों और पहाड़ों का खासा संगम देखने को मिलता है जो आंखों को सुकून प्रदान करता है ।इन्हीं जंगलों की लकड़ी का इस्तेमाल ज़ाकोपाने के निवासी अपने मकानों के निर्माण में करते हैं ।एक तो सर्द मौसम और दूसरे जंगल की गीली लकड़ी के लिए माकूल मौसम की दरकार होती है ।ज़ाकोपाने में भेड़ों की तादाद भी खासी है ।जिनकी रखवाली के लिए हमारे यहां की तरह लोग नहीं बल्कि सफेद कुत्ते आपको दीख जायेंगे ।
आज से 40-45 बरस पहले पूर्व यूरोपीय देशों में सरदार शायद ही कभी दीखता हो। पश्चिमी यूरोपीय देशों में भी कम दीखा करते थे, इंग्लैंड, कनाडा और अमेरिका को छोड़ दीजिए ।
अमेरिका में हवाई और अलास्का में शायद ही ।हंगरी के मैंने तीन दौरे किये,मुझे न तो बुदापेश्त और न ही किसी गांव या कस्बे में कोई सिख दीखा ।पोलैंड में वैसी ही स्थिति थी ।
जब मैं ज़ाकोपाने से गुज़र रहा था तो लोग मुझे विस्मयभरी नज़रों से देख रहे थे ।हो सकता है उनके बीच एक सिख की मौजूदगी उनके लिए अजूबा हो । लोगों ने मेरे साथ फोटो भी खिंचवाये ।
हमारी पगड़ी और दाढ़ी उनके लिए कुतूहल भरी थी ।राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैलसिंह बाद में गये थे ।उनकी भी वैसी ही धारणा थी ।सरकारी स्तर पर तो लोग उनके व्यक्तित्व से परिचित थे लेकिन आम लोगों के लिए वह भी मेरी तरह से अजूबा ही थे ।मेरे साथ तो ऐसा अनुभव कई देशों में हो चुका था ।यहां तक कि हवाई की राजधानी होनोलूलू में भी दसियों लोगों ने मेरे साथ फोटो खिंचवाये थे।
ज़ाकोपाने की महिलाएं खासी तगड़ी हैं और भारतीय महिलाओं की तरह अपने बालों का जूड़ा बनाती हैं ।
यहां के लोग धार्मिक प्रवृति के हैं और गिरिजाघरों में अच्छी खासी रौनक देखने को मिलती है ।
औश्वीत्ज़ में हिटलर की नात्ज़ी हुकूमत के ज़ुल्म की कहानियां
इससे थोड़ी दूर पर औश्वीत्ज़ है जो हिटलर की नात्ज़ी हुकूमत के ज़ुल्म की अनेक कहानियां अपने सीने में छुपाये हुए है ।
ज़ाकोपाने से औश्वीत्ज़ के यातना शिविरों के पास तक रेल लाइन थी जो आज भी वहां मौजूद है ।रेल में ठूंस कर यहूदियों को लाया जाता था ।
रेल लाइन के आगे कंटीली तारें लगीं हैं ।जर्मनी और उसके आसपास के क्षेत्रों से यहूदियों को ढूंढ कर यहां लाया जाता था ।कभी कभी इन कैदियों को दो हज़ार से ज़्यादा किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती थी ।इस पूरी यात्रा में उन्हें भूखा प्यासा रखा जाता ।छोटे छोटे दुधमुँहे बच्चों के साथ भी कोई रियायत नहीं बरती जाती थी ।यहां लाकर उन्हें गैस चैंबरों में धकेल दिया जाता जहां गैस छोड़ दी जाती जिससे उनकी मौत हो जाती थी ।
इंसान इतना जालिम और हृदयहीन भी हो सकता है
एक गैस चैंबर मुझे दिखाया गया,उसके भीतर घुसते ही मैं कांप गया । वहां पर रखे छोटे बच्चों के जूते,मौजे,टोपियां,खिलौने, बाल,दूध की बोतलें,निप्प्लें देखकर मन दहल गया ।सोचने लगा कि क्या कोई इंसान इतना जालिम और हृदयहीन भी हो सकता है ।
कुछ बुजुर्गों के दांत भी थे और ऐनकों का अंबार लगा हुआ था।बच्चों के अलावा स्त्री पुरुषों के अंग वस्त्र तथा उनके कपड़े जूते,चप्पलें,स्लीपर आदि भी रखे गये थे ।उस गैस चैंबर को देखते हुए कई तरह का चीत्कार सुनायी पड़ता था मानो वह पूछ रहा हो कि हमारा ज़ुर्म क्या है और हमें किस गुनाह की सज़ा दे रहे हो ।इन मासूम दूध पीते बच्चों ने आपका क्या बिगाड़ा है, ये बुजुर्ग तो वैसे ही मरे हुए हैं इनका कत्ल क्यों हो रहा ।सभी ओर सन्नाटा था ।आपके अंदर और बाहर की
आवाज़ आपके समक्ष ही प्रश्नचिन्ह लगा रही थी ।गैस चैंबर और उसके आस-पास के सभी यातना शिविरों को बिजली की करंटयुक्त कंटीली तारों से घेर कर रखा गया था जिसे हाथ लगते ही मृत्यु अवश्यंभावी थी ।
साथ चल रहा मार्गदर्शक बताये जा रहा था कि औश्वीत्ज़ को इस लिए चुना गया था ताकि हिटलर की फौजें सभी देशों पर कब्ज़ा कर वहां की आबादी को यहां लाकर यातना दे और बाद मे पोलैंड का नाम कुछ वैसे ही मानचित्र पर से मिटा दे जिस तरह पारसियों को मिटाने के बाद पर्शिया का किया गया था ।आज का ईरान कभी पर्शिया होता था ।
हिटलर का अपनी सेना को आदेश था कि जिस तरह से पारसी नेस्तनाबूत हुए हैं वैसे ही यहूदियों को भी हमेशा के लिए नष्ट कर दिया जाये ।इसलिए न केवल अधिकृत क्षेत्र में रहने वाली यहूदियों की पूरी आबादी को ही औस्श्वीत्ज़ ट्रकों और ट्रेनों में भर कर लाया करते थे बल्कि उनका सामान,जेवर जायदाद और घर के कागजात तक ढो कर लाते थे ।
उनके शोरूम पूरी तरह खाली कर सारा सामान यहां शिफ्ट किया करते ।उन सामानों को रखने के लिए कई गोदाम बनाये गये थे ।कुछ सामान का तो हिसाब किताब होता था तो कुछ लोगों के घरों को चले जाया करता था । यहां के गोदाम बेशकीमती सामान से पटे हुए थे ।यहूदियों के मकानों को नष्ट कर दिया गया ,उनके इबादतगाह साइनगॉग को जला दिया गया,दुकानों और मकानों-कोठियों को लूटने के बाद जला दिया गया ।हिटलर की ओर से रोज हिसाब मांगा जाता कि आज का ‘स्कोर’ क्या है । इबादतगाह के पादरियों तथा सामाजिक सरोकारों से जुड़े लोगों की हत्या कर दी जाती ।यहां तक कि गर्भवती महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा जाता ।उन्हें गैस चैंबर में बंद कर मार डाला जाता था ।
मेरा मार्गदर्शक उस जालिमाना और अवसादपूर्ण प्रकरण का विवरण करते हुए सिसकियां भी ले रहा था ।लगता था कि उसे कुछ अपनों की याद हो आयी हो ।
तीन तरह के यातना कैंप होते थे–नजरबंदी वाले, विलुप्ति वाले या विध्वंसक कैंप और लेबर कैंप । नजरबंदी वाले कैंप में शिनाख्त, कुछ लिखा पढ़ी होती और आम तौर पर उन्हें गैस चैंबर में भेज कर मार दिया जाता ।विलुप्ति वाले कैंप में लाते ही कैदियों का दीवार की ओर मुंह करके गोली मारकर विलुप्त कर दिया जाता ।तीसरे यानी लेबर अथवा श्रम वाले कैंप में सेहतमंद लोगों से बेगार कराई जाती और उनकी नज़रों में जो निकम्मे होते उन्हें या तो गोली मार दी जाती अथवा गैस चैंबर में ठूँस कर मार दिया जाता ।
इस औश्वीत्ज़ कैंप में हत्या करने के तीन तरीके थे:गैस चैंबर,फांसी देना और दीवार की तरफ मुंह करके गोली मारना ।
जिन लोगों की नात्ज़ी सैनिकों ने हत्या की उनमें यहूदियों की संख्या सबसे ज़्यादा थी ।अलावा इनके रूसी युध्दबंदियों के अतिरिक्त हिटलर के कब्जे में आने वाले देशों के युद्घबंदियों के साथ भी अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अंतर्गत व्यवहार नहीं किया जाता था बल्कि उन्हें भी दोनाली का शिकार बनाया जाता ।
27 जनवरी, 1945 में मुक्ति सेना ने जब युद्घबंदियों की हाज़िरी ली तो करीब तेरह हज़ार युद्घबंदियों में से सिर्फ 92 युद्घबंदी ही जीवित पाये गये । इसी प्रकार जिप्सियों की भी दुर्गति हुई । 21 हज़ार से अधिक जिप्सियों को नजरबंद किया गया ।उन्हें बीमारी या थकान का बहाना बनाकर विभिन्न कैंपों में भेजा गया ।कुछ को गैस चैंबर में डाल कर मार डाला गया तो कुछ को फांसी पर लटका कर ।मुक्ति सेना को महज़ दो हज़ार जिप्सी ही जीवित मिले ।
हिटलर के सैनिक लूट का सामान आपस में तीज त्योहार के दिनों में बांट लिया करते थे ।उनके पद के अनुसार किसी को पांच पांच सूटलेंथ मिलती तो किसी को दो ।ऐसे ही घडियां बांटी जातीं । कीमती घड़ियां बड़े अफसरों के पास चली जातीं तो साधारण अन्य लोगों को ।सोने और हीरे के जेवरों का भी इसी तरह से बंटवारा होता था ।जिन के छोटे बच्चे थे वे सब लोग उन बच्चों की पहिया गाड़ियों को अपने बच्चों के लिए ले जाते जिन्हें उन्होंने गैस चैंबर में सदा के लिए सुला दिया था ।
कुछ अमीर घरानों के बच्चों की दूसरी चीज़ों और खिलौनों को क्रिसमस के उपहार के तौर पर वे अपने बच्चों को दे दिया करते थे । मारे गये लोगों का सामान जहां रखा जाता था उसे हिटलर के सैनिक ‘कनाडा’ कहते थे ।
हंगरी से पकड़ कर लाई गयी औरतों को जिस बैरक में रखा गया था उसका नाम ‘मेक्सिको’ था ।इनमें अधिसंख्य यहूदी महिलायें थीं जो वहां नंग धंड़ग पड़ी रहती थीं ।धीरे-धीरे उन्हें भी गैस चैंबर में डाल दिया जाता था ।
दूसरा यातना शिविर था बिर्केनाऊ
औश्वीत्ज़ के साथ ही एक दूसरा यातना शिविर था बिर्केनाऊ । दोनों के बीच रेल लाइन थी और ट्रकों से भी लोगों को ढोया जाता था । इनयातना शिविरों की इतनी दर्दनाक और दर्दभरी दास्तान सुनने के बाद उस दिन मुझसे न तो कुछ खाया पिया गया और न ही किसी चीज़ में मन लग रहा था । रात को सोते सोते भी मैं उठ कर बैठ जाता था । यह क्रम कई दिनों तक चला ।
मेरा मार्गदर्शक उन घटनाओं को बताते हुए बीच बीच में अपने आंसू पोंछते हुए कहता कि 27 जनवरी, 1945 को मुक्ति सेना की खबर मिलने से पहले ही हिटलर के दरिंदों की दरिंदगी ने कहर बरपा किया ।जीवित लोगों को भगा दिया, शवदाहग्रहों को नष्ट कर दिया,’कनाडा’ और ‘मेक्सिको’ में आग लगा दी,कुछ लोग भाग निकले और काफी बड़ी तादाद में मुक्ति सेना के हाथ भी चढे । वहां शवदाहग्रह और खुले में भी इतनी लाशें थीं जिनको ढोने में लारियों को कई बरस लग गये ।
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एक अनुमान के अनुसार नात्ज़ी कैंपों में करीब एक करोड़ लोग मारे गये । औश्वीत्ज़ में मारे जाने वालों की संख्या चालीस लाख कूती जाती है जिन में ज़्यादातर यहूदी थे ।
औश्वीत्ज़ की मेरी इस यात्रा के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैलसिंह भी वहां गये थे । उनसे मेरा अक्सर मिलना जुलना रहता ही था । एक दिन किसी विषय पर बातचीत करते हुए औश्वीत्ज़ का ज़िक्र आया तो उनका गला रुंध गया और आंखें भर आयीं ।बोले कोई इंसान इतना क्रूर,जालिम, हृदयहीन, बेदर्द और दरिंदा भी हो सकता है इस बात का अहसास औश्वीत्ज़ गैस चैंबर देखकर ही हो सकता है ।उसे देखकर मैं कई दिनों तक बेचैन रहा । जिन लोगों और जिन देशों के साथ यह घटा होगा उनकी हालत क्या हुई होगी इसे लफ्जों में बयां नहीं किया जा सकता ।
पश्चिमी जर्मनी के तत्कालीन चांसलर (प्रधानमंत्री) विली ब्रांट ने वहां जाकर घुटने टेक कर अपने पूर्ववर्ती शासकों के कुकृत्यों के लिए माफी मांगी थी ।आज भी जब कोई जर्मन किसी यहूदी से मिलता है तो वह उससे अपने पूर्ववर्ती शासकों के गुनाहों की माफी माँगता है ।
त्रिलोक दीप, वरिष्ठ पत्रकार
संडे मेल के पूर्व कार्यकारी संपादक