ट्रम्प क्यों चाहते हैं आज़ादी

कोरोना वायरस से लड़ाई में राजनीति हावी

शिव कांत

शिव कांत, पूर्व सम्पादक, बीबीसी हिंदी रेडियो, लंदन से 

आपने निकलस हिट्नर की हास्य फ़िल्म The Madness of King George देखी है? यदि नहीं देखी तो समय निकाल कर देखिए और यदि न देख पाएँ तो कोई बात नहीं। अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के पिछले कुछ रोज़ के संवाददाता संमेलन देख लीजिए। एक ही बात है। फ़िल्म में ब्रितानी सम्राट जॉर्ज तृतीय का दिमाग़ थोड़ा हिल जाता हैं और उनके ऊटपटाँग फ़ैसलों की वजह से संसद के रूढ़िवादी और सुधारवादी खेमों के बीच सत्ता की जंग शुरू हो जाती है। डोनल्ड ट्रंप भी कोरोनावायरस से पैदा हुए सामाजिक और आर्थिक संकट से कुछ ऐसे हिले हैं कि उन्होंने राज्यों के लोगों को वायरस से बचाव के लिए लगी पाबंदियों और उन्हें लगाने वाले गवर्नरों के ख़िलाफ़ ही उकसाना शुरू कर दिया है।

ट्रंप ने पिछले शुक्रवार को तीन ट्वीट किए। मिनिसोटा की आज़ादी! मिशिगन की आज़ादी और वर्जीनिया की आज़ादी! आपको क्या लगता है केवल कन्हैया कुमार और शाहीन बाग़ के लोग ही आज़ादी के नारे लगाना जानते हैं? ट्रंप भी किसी से पीछे नहीं हैं। उन्होंने कहा बहुत हो चुका! लोगों को और अमरीकी अर्थव्यवस्था को सरकारी तालेबंदी से आज़ाद करना है। कहाँ, कब और कैसे करना है इसका फ़ैसला और ऐलान वे ख़ुद करेंगे क्योंकि राष्ट्रपति होने के नाते सारे अधिकार उनके हैं। कई राज्यों के गवर्नरों ने इसका कड़ा विरोध किया और कहा कि उनके राज्यों में तालाबंदी कब ख़ुलेगी इसका फ़ैसला करने वाले राष्ट्रपति कौन होते हैं? संविधान के हिसाब से यह तो गवर्नरों का काम है। ट्रंप साहब को बात समझाई गई और उन्होंने सुर बदल लिया। कहा तालाबंदी खोलने का फ़ैसला तो गरर्नरों को ही करना है। मैं तो अमरीकी जनता के मन की बात रख रहा था। जनता पाबंदियों से उकता चुकी है और कामकाज पर लगना चाहती है।

अगले ही दिन ट्रंप साहब ने आज़ादी के ट्वीट कर दिए। आप सोचेंगे कि अमरीका कब ग़ुलाम हुआ था? बल्कि वह तो दूसरों को आज़ादी दिलाने का ठेका लेता फिरता था। फिर यह मिनिसोटा, मिशिगन और वर्जीनिया की आज़ादी से क्या मतलब? मतलब साफ़ है। इस आज़ादी का मतलब है राज्य की उन सरकारों से आज़ादी जो बीमारी का फैलाव रोकने के लिए ट्रंप साहब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ पाबंदियाँ थोपे हुए हैं। उन्हें चाहिए कि सब को खुला छोड़ दें। लोग ख़ुद समझदार हैं। अपना भला-बुरा समझते हैं। बच कर रहेंगे। उनको किसी सरकारी अम्मा की ज़रूरत नहीं है। कामकाज शुरू होने दीजिए। ताकि अर्थव्यवस्था पटरी पर आए और ट्रंप साहब की जीत का रास्ता साफ़ हो। तो यह बात है, सारा खेल नवंबर के चुनाव का है। जो भी उसके रास्ते में आएगा उससे आज़ादी। इसीलिए अगर संसद ताबड़तोड़ ट्रंप साहब के राहत प्रस्ताव पारित नहीं करती तो वह भी जाए छुट्टी पर। ताकि ट्रंप साहब ख़ुद ही उन प्रस्तावों को पारित कर सकें। नया इतिहास कायम कर सकें। संसद से भी आज़ादी। गवर्नर भी टैस्टों और स्वास्थ्यकर्मियों के बचाव के सामान की माँगें करना बंद करें और उनका बंदोबस्त ख़ुद करें। वर्ना ख़ामोश हो जाएँ। गवर्नरों से भी आज़ादी।

बस, फिर क्या था! आ गए लोग सड़कों पर, हाथों में झंडे और प्लेकार्ड लिए। फ़्लोरिडा के सागरतट भर गए तैरने वालों और धूप सेंकने वालों से। क्योंकि सवाल आज़ादी का था। वायरस से पहले डैमोक्रेट सरकारों से आज़ादी। लेकिन संवाददाताओं और आलोचकों का क्या करें? वे पूछते हैं कि साढ़े सात लाख लोग बीमार हैं और चालीस हज़ार दम तोड़ चुके हैं और राष्ट्रपति जी हैं कि अपनी ही महिमा गाए जाते हैं जैसे कोई हनुमान चालीसा गा रहे हों वायरस भगाने के लिए। तो उसका भी जवाब है। दुनिया में सबसे ज़्यादा रोगी और सबसे ज़्यादा मौतें हो गई तो क्या। प्रति व्यक्ति के हिसाब से मौतों की दर अब भी यूरोप के देशों से बहुत कम है। इसलिए आलोचक और संवाददाता फ़ेक या जाली न्यूज़ हैं। ट्रंप सरकार का प्रदर्शन पूरी दुनिया में बेजोड़ समझा जाए। तो, फ़ेक न्यूज़ से आज़ादी।

अब आप पूछेंगे कि जनवरी फ़रवरी में तो आप अमरीका को महान और स्थिति को पूरी तरह नियंत्रण में बता रहे थे। तब फिर ग्रेट अमरीका रोगियों और मरने वालों की संख्या में ग्रेटेस्ट कैसे हो गया? तो कहा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सारा खेल बिगाड़ा है। उसके लोग चीन केंद्रित हो गए। जनवरी में जब उन्हें हवाई यातायात बंद करने की सिफ़ारिश करनी चाहिए थी और कोविड19 को महामारी घोषित कर देना चाहिए था। तब उसने उल्टी पट्टी पढ़ाई। पहले चीन की हाँ में हाँ मिलाकर 22 जनवरी तक कहता रहा कि कोविड19 इंसान से इंसान में फैलता ही नहीं। उसके बाद कहता रहा कि हवाई यातायात बंद करने से कोई फ़ायदा नहीं। फिर कह दिया कि मास्क लगाने से वायरस से कोई ख़ास बचाव नहीं होता। इन्हीं भ्रामक घोषणाओं की वजह से अमरीका और यूरोप की यह हालत हुई है। इसलिए WHO की भूमिका की पूरी जाँच होनी चाहिए और हम उसके लिए पैसा देना बंद करते हैं। WHO का कोई फ़ायदा नहीं है इसलिए WHO से आज़ादी।

यह सही है कि WHO ने 23 जनवरी तक वायरस के इंसान से इंसान में संक्रमण की बात का खंडन करके, हवाई यातायात जारी रखने की सलाह देकर और मास्क को वायरस रोकने में उपयोगी न बता कर तीन बड़ी भूलें की हैं। लेकिन उसके अलावा वायरस का जनेटिक प्रिंट पूरी दुनिया तक पहुँचाने, उसके स्वभाव, फैलाव और टैस्टिंग की जानकारी और किट पूरी दुनिया में उपलब्ध कराने का महत्वपूर्ण काम भी तो किया है। हम सब मानते हैं कि जासूसों और रणनीतिकारों की निरंतर चेतावनियों के बावजूद कोविड19 जैसी महामारी के लिए पूरी दुनिया में न कोई सुनियोजित नीति बनाई गई और न ही कोई तैयारी की गई। विश्व स्वास्थ्य संगठन की जो भी कमज़ोरियाँ रही हैं उनके लिए ज़िम्मेदार कौन है? विश्व स्वास्थ्य संगठन न होता तो क्या हालात इससे कुछ बेहतर होते? जो हुआ सो हुआ, विश्व स्वास्थ्य संगठन को भविष्य में ऐसी महामारियों का सामना करने में और समर्थ, स्वायत्त और कुशल बनाने की बजाय उसे पंगु बना देना कहाँ की समझदारी है?

रही समय रहते नहीं चेताने की बात तो ज़रा रिकॉर्ड खोल कर देखें तो पता चलेगा कि अमरीका के ही राष्ट्रीय ख़ुफ़िया विभाग के निदेशक ने अमरीकी संसद के समक्ष 2009, 2010, 2017 और 2019 की सालाना रिपोर्टों में सार्स और स्वाइन फ़्लू जैसी किसी ख़तरनाक महामारी के फैलने की चेतावनियाँ दी हैं। इसी साल 13 जनवरी को ट्रंप के अपने आर्थिक सलाहकार ने कोविड19 के फैलने से अमरीका में भयंकर बर्बादी के ख़तरे के प्रति सचेत किया था। लेकिन ट्रंप साहब तो चुनाव में रूसी हस्तक्षेप और अपने इम्पीचमैंट के मामले की वजह से अपने ही ख़ुफ़िया विभाग से आज़ादी के फेर में थे। इसलिए उनकी रिपोर्टें कूड़ेदान को नश्र कर दी गईं और अब जब मुसीबत सर पर आन पड़ी तो बलि का बकरा बनाने को बच गए WHO और चीन।

वही चीन जिसकी तारीफ़ में जनवरी में कई बार कसीदे पढ़े गए थे। जनवरी के ट्रंप के ट्वीट और वीडियो पर उपलब्ध बयान तो साइबर स्पेस में हैं। उन पर तो कोविड19 का हमला भी काम नहीं कर सकता। पर हाँ, चीन की भूमिका संदेहास्पद रही है, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता। पहली बात, तो कोविड19 केवल वूहान के बदनाम वेट मार्किट या मछली बाज़ार से ही फैला है इस बात पर सवाल खड़े हो गए हैं। क्योंकि कई चीनी मूल के आलोचक ही दावा कर रहे हैं कि नवंबर और दिसंबर के महीनों में वूहान में कई ऐसे लोग भी बीमार हुए थे जिनका मछली बाज़ार के साथ या वहाँ काम करने वालों के साथ कोई लेन-देन नहीं था। दूसरी बात कि दिसंबर में कई ऐसे लोग भी बीमार पड़े जो मछली बाज़ार तो नहीं गए थे लेकिन वहाँ काम करने वालों के संपर्क में आए थे। 15 जनवरी को एक ऐसा ही व्यक्ति जापान में बीमार पड़ा था जिस पर जापानी सरकार ने सवाल भी उठाया था। 

निचोड़ यह है कि एक तो चीन का यह दावा संदेहास्पद है कि कोविड19 मछली बाज़ार के जानवरों से ही फैला है। दूसरे उसका यह दावा सरासर ग़लत है कि दिसंबर से लेकर 22 जनवरी तक इस वायरस के इंसान से इंसान में फैलने के सबूत नहीं थे। यदि यह बात सही मान ली जाए तो फिर चीन ने 23 जनवरी को पूरे वूहान और हूबे को सीलबंद क्यों किया? सीलबंद करने का एकमात्र उद्देश्य ऐसे वायरस के फैलाव को रोकना है जो इंसान से इंसान में फैल रहा हो। यदि यह मान भी लिया जाए कि चीन को 22 जनवरी की रात को ही इस बात का ज्ञानोदय हुआ, तो भी यह सवाल निरुत्तरित रह जाता है कि कोई सरकार एक दिन में इतने बड़े पैमाने पर सीलबंदी का बंदोबस्त कैसे कर सकती है और कैसे पूरे देश के स्वास्थ्य कर्मियों, पार्टी कार्यकर्ताओं और सेना को एक दिन के भीतर इस काम में झोंक सकती है।

एक और बात हो जो किसी के समझ में नहीं आ रही है और वो यह कि 23 जनवरी की वूहान की सीलबंदी से पहले वहाँ से जाने वाले लोगों के ज़रिए कोविड19 चीन के दूसरे प्रांतों में उतने बड़े पैमाने पर क्यों नहीं फैला जितने बड़े पैमाने पर वह बाक़ी दुनिया में फैला है? चीनी नए साल के लिए वूहान से लोग दुनिया के दूसरे शहरों के साथ-साथ चीन के भी तो दूसरे शहरों में गए होंगे? चीन ने वहाँ तो वूहान जैसी सीलबंदी नहीं की थी और न ही उन का हाल इटली, स्पेन, फ़्रांस, ब्रिटन और अमरीका जैसा हुआ। चीन के पास ऐसी कौन सी रहस्य की पुड़िया थी जिसके सहारे वह अपने बाकी प्रांतों और महानगरों को बचा ले गया और बाक़ी दुनिया नहीं बचा पाई? हो सकता है चीन ने वूहान से जाने वाले लोगों को चीन के दूसरे प्रांतों में न जाने दिया हो। लेकिन यदि ऐसा था तो विश्व स्वास्थ्य संगठन को इसकी भनक क्यों नहीं पड़ी और पड़ी तो उसने उसे बाकी दुनिया से साझा क्यों नहीं किया?

ये सारी बातें चीन की भूमिका पर सवाल उठाती हैं। ऊपर से नवंबर के राष्ट्रपतीय चुनाव में विपक्षी डैमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार और मैदान में बचे एकमात्र प्रतिद्वंद्वी जो बाइडन को निशाना बनाने के लिए कोई दिखावटी दुश्मन देश चाहिए। रूस को हिलरी क्लिंटन के ख़िलाफ़ पिछले चुनाव में भुनाया जा चुका है। इसलिए काठ की हाँडी बार-बार नहीं चढ़ सकती। तो अब चीन ही बचता है जिसने मौक़ा भी दे दिया है और दस्तूर भी है। तो जो बाइडन चीन के ख़िलाफ़ नरम हैं का प्रचार करते हुए चीन के ख़िलाफ़ चुनावी मोर्चा खोल कर एक बार फिर उल्लू सीधा किया जा सकता है। इसलिए चेतावनी जारी हो गई कि भूल में ग़लती हो जाना अलग बात है, लेकिन यदि यह साबित हुआ कि चीन ने जान-बूझकर दुनिया को धोखे में रखा है तो उसके परिणाम भुगतने होंगे। कोविड19 की मारी अर्थव्यवस्था की गुहार है कि दूसरे देशों से झगड़े मोल लेने की बजाय व्यापार को बढ़ाओ और लोगों की ज़िंदगी पटरी पर लाओ। लेकिन चुनाव है कि जो बाइडन को चीन से जोड़ना होगा। तो, चीन से भी आज़ादी।

अब आप पूछेंगे कि ये सारी आज़ादियाँ अपनी जगह हैं। लेकिन सबसे अहम कोविड19 से आज़ादी कब और कैसे मिलेगी और कौन दिलाएगा? जवाब में ट्रंप साहब कहेंगे कि अमरीकी वैज्ञानिक उसी पर तो काम कर रहे हैं और ऐसा काम कर रहे हैं जैसा इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ। नहीं कर पाएँगे तो जिस देश के वैज्ञानिक टीका बनाएँगे, ट्रंप साहब उन्हें उठवा लाएँगे। जैसा उन्होंने जर्मनी के शोधकर्ता के साथ करने की कोशिश की थी। मुश्किल यह है कि टीका बनने में कम से कम छह महीने से लेकर साल भर लगेगा पर चुनाव छह महीने बाद तय समय पर होने हैं। इसलिए कोविड19 से आज़ादी उतनी ज़रूरी नहीं है। उसका फैलाव रोकने के लिए लोगों की निजी आज़ादी पर लगाए गए तालों को खोलना और ट्रंप का खोलते नज़र आना सबसे ज़रूरी है।

अब आप पूछेंगे कि ताले तो खुल जाएँगे। और यूरोप में खुलने भी लगे हैं। स्वीडन ने तो लगाए ही नहीं। यही वजह थी कि पिछले मध्य अप्रेल तक उसकी मिसालें दी जा रही थीं। हमें भी लगा कि स्वीडन के लोग कितने सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार और जागरूक हैं कि बिना पाबंदियों के ही बच के चल रहे हैं। लेकिन एक करोड़ की आबादी के इस देश में पिछले हफ़्ते मौत का आँकड़ा जब 1400 की संख्या पार कर गया तब लोग सवाल उठाने लगे। कहीं स्वीडन की सरकार ने सारी ज़िम्मेदारी लोगों पर छोड़ कर भूल तो नहीं की? अब वहाँ पाबंदी लगाने के लिए भी देर हो चुकी है। वायरस के चारों तरफ़ फैल चुकने के बाद आप रैंडम पद्धति से टैस्ट करते और टोह लगाते हुए बीमार लोगों के इलाकों को सीलबंद करके ही फैलाव रोक सकते हैं।

वायरस का फैलाव धीमा पड़ने के बाद तालाबंदी से बाहर आते हुए यूरोप के इटली, स्पेन और जर्मनी और खाड़ी के देश ईरान को भी शायद यही करना होगा। अमरीका में टैस्टों की संख्या और टोह रखने के तरीक़ों को लेकर बहस चल रही है। लेकिन राज्यों को वहाँ भी यही रास्ता अपनाना होगा। तेज़ी से फैलती आग की तरह फैलते वायरस के फैलाव को धीमा करने के लिए तालाबंदी ज़रूरी थी। यह बात देशों ने देर-सवेर चीन से सीखी। लेकिन कोई देश अनिश्चित काल के लिए लोगों को ताले में बंद नहीं रख सकता। जीवन की रक्षा का दूसरा और अहम पहलू जीविका की रक्षा भी है। लोगों को कामकाज पर लौटना होगा। लेकिन मुश्किल यह है कि तालाबंदी से कुछ हफ़्तों के लिए संपर्क तोड़ लेने भर से कोविड19 ग़ायब नहीं हो जाने वाला।

कोविड19 न आसमान से बरसा है और न ही आसमान में हवा हो जाने वाला है। जब तक इस का मुकाबला करने के लिए हमारे शरीरों की रोग रक्षा प्रणाली नहीं जाग जाती, तब तक हमें बच कर ही चलना होगा और रैंडम टैस्टों के ज़रिए जहाँ-जहाँ वायरस फैलता मिले वहाँ टोह और क्वारंटीन के ज़रिए उसकी रोकथाम करते रहना होगा। इसके लिए सबसे पहले हर देश को झटपट रिज़ल्ट देने वाले टैस्टों और मोबाइल टैस्ट वाहनों की ज़रूरत होगी। जो कंपनियाँ ऐसे टैस्ट बना पाएँगी उनकी क़िस्मत बदल जाएगी। उसके बाद आम लोगों को बचाव के लिए अच्छे टिकाऊ मास्कों और दस्तानों की ज़रूरत होगी जिन्हें पहन कर वे बाहर कामकाज और कारोबार पर जा सकें। खुले में थूकने या नाक साफ़ करने जैसी आदतों को बदलना होगा और बार-बार हाथ थोने की आदत डालनी होगी। सबसे अहम बात यह है कि स्वास्थ्य कर्मियों और सफ़ाई कर्मियों पर हमले करने की बजाय उनका आभार मानना होगा और उनसे दूर भागने की बजाय उन्हें अपना हाल बताना होगा।

कोविड19 का फैलाव धीमा पड़ जाने का मतलब महामारी का दूर हो जाना नहीं है। वह तब तक हमारे लिए घातक बनी रहेगी जब तक हमारे शरीरों की रोग रक्षा प्रणाली उससे लड़ने के लिए जाग नहीं जाती। जिन लोगों की रोग-रक्षा प्रणाली मुस्तैद है उनमें वह ख़ुद जागेगी। बाकी लोगों को टीकों से जगवानी पड़ेगी जिनके तैयार होने में समय लगेगा। दुनिया भर की तीस-चालीस कंपनियाँ इन्हीं टीकों के विकास में लगी हैं और कुछ एक ने तो रोगियों पर उसके टैस्ट भी शुरू कर दिए हैं। कुछ वैज्ञानिक उन लोगों के ख़ून से एंटीबॉडी लेकर भी रोगियों का इलाज करने की कोशिश कर रहे हैं जिनके शरीर की रोगरक्षा प्रणाली वायरस को हरा चुकी है। हमें दक्षिण कोरिया और इस्राइल से सीखना होगा कि कैसे वायरस की रोकथाम करें और रैपिड और रैंडम टैस्ट और टोह के सहारे देश को दोबारा खोलें। अंत में हमें ज़रूरत होगी उस लचर नेतृत्व से आज़ादी की जिसकी लापरवाहियों ने दुनिया को संकट के इस भँवर में फँसाया है। अख़्तर अंसारी अकबराबादी का शेर है:

क्या करिश्मा है मिरे जज़्बा-ए-आज़ादी का,

थी जो दीवार कभी, अब है वो दर की सूरत।

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