खुदाई ख़िदमतगार सीमांत गांधी : आजादी के संघर्ष का जूनून
खुदाई खिदमतगार, अर्थात ईश्वर की बनाई दुनिया का सेवक जिसकी प्रतिज्ञा होती थी की हम खुदा के बन्दे हैं , दौलत या मौत की हमें कदर नहीं है, हमारे नेता सदा आगे बढ़ते चलते हैं।ऐसे खुदाई खिदमतगार खान अब्दुल गफ्फार खान, जो भारत की आजादी के संघर्ष के दौरान बादशाह खान , बाचा खान ,सीमांत गाँधी ,फ्रांटियर गाँधी के नाम से प्रसिद्द रहे .
उसके रक्त में था आजादी के संघर्ष का जूनून। परदादा आबेदुल्ला खान को आजादी की लड़ाई में प्राणदंड दिया गया था। दादा सैफुल्ला खान लड़ाकू स्वभाव के पठान सरदार थे जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के दांत खट्टे कर रखे थे। पिता बैरमखाँ शांति स्वभाव के ईश्वर भक्त थे जो अपने बच्चों को आधुनिक ऊँची शिक्षा देना चाहते थे।
खुदाई खिदमतगार
1919 में जब अंग्रेजों ने पेशावर में मार्शल ला लगाया तो नौजवान अब्दुल गफ्फार खान ने शांति प्रस्ताव रखा पर अंग्रेजों ने इन्हे कैद कर लिया ,बाचा खान संघर्ष के पथ पर चल पड़े
1929 के कांग्रेस महाधिवेशन में सम्मिलित होने के बाद बादशाह खान ने खुदाई खिदमतगार की स्थापना एक अहिंसक संगठन के रूप में की और पख्तूनों के बीच लालकुर्ती अहिंसकआंदोलन प्रारम्भ किया। हिंसक प्रवृत्ति के पठानों को इस सीमांत गाँधी ने अहिंसा का ऐसा पाठ पढ़ाया और सब्र तथा नेकी का ऐसा कवच प्रदान किया कि 23 अप्रैल 1930 किस्सा ख्वानी बाजार आजादी के इतिहास का एक अविस्मरणीय पृष्ठ बन गया त्याग और बलिदान का।
खुदाई खिदमतगार सीमांत गाँधी के नेतृत्व में नमक सत्याग्रह के दौरान निहत्थे पठान पर ब्रिटिश सैनिकों की क्रूरतापूर्ण नर संहार की गाथा है यह जिसमे दो सौ पचास पठान गोलियों के शिकार हुए घोड़ों से कुचले गए पर पठानों ने हिंसक प्रतिकार नहीं किया। बादशाह खान बंदी बना लिए गए . उन्हें पंजाब के जेलों में रखा गया।कैदियों के बीच उन्होंने न केवल कुरान ,गीता ,गुरुग्रंथ का अध्ययन किया बल्कि बाकायदा क्लास लगा कर धार्मिक सदभाव पर विचार विमर्श भी होता रहा।
1931 गाँधी इरविन समझौते के फलस्वरूप खुदाई खिदमतगार बादशाह खान छोड़े गए और काफी समय तक वर्धा आश्रम में रहे। बादशाह खान ने मुस्लिग लीग द्वारा भारत विभाजन की माँग का मुखर विरोध किया।
1937 में प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की प्रांतीय विधानसभा में खुदाई खिदमतगार सीमांत गाँधी के प्रयासों से ही बहुमत प्राप्त किया। इनके भाई जो गाँधी नेहरू के बहुत निकट थे वे प्रदेश के प्रधानमन्त्री बने। 1942 के भारत छोडो आंदोलन में सीमांत गाँधी गिरफ्तार किये गए और 1947 तक जेल में रहे।
नियति का खेल रहा की आजादी के बाद सीमांत प्रदेश पाकिस्तान में आया. खुदाई खिदमतगार बादशाह खान बहुत दुखी हुए. उन्होंने कहा हमें भेड़ियों के बीच छोड़ दिया गया। इस वीर पुरुष ने हार नहीं मानी ,अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सीमांत जिलों को मिलाकर एक स्वतन्त्र पख्तून देश पख्तूनिस्तान की अवधारणा के साथ आजादी का योद्धा पाकिस्तान की बर्बर सरकार से जूझता रहा और बीस साल पाकिस्तान के जेलों में बिताई।
सीमांत गांधी बादशाह खान का नाम भारत से क्यों मिटाया जा रहा है!(Opens in a new browser tab)
1970 में आजादी के बाद खुदाई खिदमतगार सीमांत गाँधी भारत आये और पूरे भारत में घूमे। मेरा सौभाग्य है की इस महापुरुष के दर्शन का अवसर उस समय मिला। समाचार पत्रों से ज्ञात हुआ कि बादशाह खान इलाहाबाद से सड़क मार्ग से वाराणसी जा रहे हैं.
ज्ञानपुर पी जी कालेज के शिक्षकों ने गाँधीवादी विचारक और शिक्षक डा सुचेत गोइंदी के नेतृत्व में तय किया की हमलोग नागरिकों तथा छात्रों के साथ गोपीगंज में इकठ्ठा हों और उनका स्वागत करे । छह फुट से अधिक ऊंचाई का अहिंसक सेनानायक शिक्षकों छात्रों के बीच में आयासारा भीड़ उस युगपुरुष के समक्ष बौना दिख रहा था ।
मुझे उस दिन का चित्र आज भी कौंध जाता है की उन्होंने भरे गले और डबडबाई आखों से हाथ उठाकर बस इतना कहा -मेरा भारत मेरा देश। अपार भीड़ इकठ्ठा हो गई थी हर व्यक्ति जिसने गांधी को नहीं देखा था सीमांत गांधी में गांधी का दर्शन कर रहा था.
मैक्लोहान ने अपनी डाकूमेंट्री –बादशाह खान -ऐ टार्च ऑफ़ पीस में कितना सही कहा है की –दो बार नोबुल शान्ति पुरस्कार के लिए नामित बादशाह खान की जिंदगी की कहानी के बारे में लोग कितना कम जानते हैं कि 98 साल की अपनी जिंदगी में 35 साल उन्होंने जेल में बिताए . इसलिए की इस दुनिया को इंसान के रहने के लिए एक बेहतरीन जगह बनाई जा सके।
सामाजिक न्याय ,आजादी और शान्ति के लिए खुदाई खिदमतगार सीमांत गांधी जिस तरह अपनी जिंदगी में जूझते रहे ,वह उन्हें नेल्सन मंडेला ,मार्टिन लूथर किंग और महात्मा गांधी जैसों के समतुल्य बना देता है।
1987 में खुदाई खिदमतगार को भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।1988 में जिस समय बादशाह खान की मृत देह सुपुर्दे ख़ाक के लिए जलालाबाद –अफगानिस्तान ले जाया जा रहा था ,उस समय वहां अफगानिस्तान के उस इलाके में सोवियत संघ की कम्यूनिस्ट आर्मी और मुजाहिदीनों के बीच जंग चल रही थी , पर इस शांति के पुजारी खुदाई खिदमतगार के आदर में दोनों तरफ से सीज फायर की घोषणा कर दी गई।
दुनिया में जब कभी भी कहीं भी मोहब्बत और भाई चारे की कमी आएगी ,बादशाह खान जैसे लोगों की बची हुयी स्मृतियाँ ही इंसानो के काम आएंगी।
डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज