जो हिल जिन्होंने फांसी से पहले कहा था, “मेरे लिये शोक मनाने में वक्त बर्बाद मत करो।”

अनुवादक पंकज प्रसून

मेरी वसीयत

जो हिल का आखिरी गीत

स्वीडिश मूल के अमेरिकी मजदूर और विश्व औद्योगिक मजदूर संगठन आई.डबलू.डबलू. के जुझारू सदस्य थे जो हिल जिन्हें हत्या के मामले में फंसा कर फांसी दे दी गयी। उनका पूरा नाम था जोसेफ हिलस्ट्रॉम। उनका जन्म 7 अक्टूबर 1879 को स्वीडन के गावले नामक स्थान में हुआ था।

अमेरिका आने के बाद सन् 1990 के दशक में उन्होंने अंग्रेजी सीखी। इस बीच तरह-तरह की नौकरियां की। फिर सन् 1910 में इंटरनेशनल वर्कर्स औफ द वर्ल्ड नामक मजदूर संगठन से जुड़े। यह संस्था पूंजीवादी व्यवस्था को बिल्कुल खारिज करती थी और उसका सपना था कि एक दिन देश भर में मजदूर क्रांति होगी।

सन् 1908 में उस संगठन ने अपने विचारों को गीतों के माध्यम से जनता में फैलाने का निश्चय किया। जिसके तहत उसने लिटिल रेड सौंग बुक प्रकाशित किया।

कुछ वर्षों के बाद मजाकिया स्वभाव वाले और देखने में खूबसूरत जो हिल उसके प्रमुख गीतकार और गायक बन गये। उनका लिखा गीत द प्रीचर औफ द स्लेव काफ़ी मशहूर हुआ। जिसमें पाई इन द स्काई नामक मुहावरे का ईजाद किया।

उनका लिखा एक गीत देयर इज ए पावर इन अ यूनियन बहुत मशहूर हुआ। जो हिल वीएतनाम युद्ध के खिलाफ प्रतिरोध की मुख्य आवाज़ बन गये थे। जैसे – जैसे वह मजदूर संगठन लोकप्रिय होता गया खदान मालिकों और जहाज़ निर्माण में लगे पूंजीपतियों की आंख की किरकिरी बनता गया। उसके पदाधिकारियों को विभिन्न मुकदमों में फंसा दिया गया।

जो हिल 1914 तक बहुत मशहूर हो चुके थे। साल्ट लेक सिटी के किसी अनाज गोदाम की डकैती और उसे रोकने के सिलसिले में दो सिपाहियों की हत्या करने के फर्जी मुकदमे में उन्हें फंसा कर गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गई।

19 नवंबर 1915 को गोली से उड़ा कर उन्हें फांसी दे दी गई। काल कोठरी में फांसी से एक दिन पहले उन्होंने मेरी वसीयत नामक कविता लिखी थी, जिसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है।जिस कविता को इथेल राइम ने स्वरबद्ध करके अमर कर दिया।

इस कविता के साथ ही अपने संगठन के नेता बिल हेवुड को संदेश दिया — ” मेरे लिये शोक मनाने में वक्त बर्बाद बिल्कुल नहीं करो। संगठित हो जाओ।”

मेरी वसीयत का फैसला करना

कितना है आसान

बांटने को कुछ नहीं है मेरे पास

घबराने , कराहने की जरूरत

नहीं है मुझ जैसों को

काई कभी नहीं चिपकती लुढ़कते पत्थरों से

मेरा बदन

हां अगर मैं चुन सकता

बदल देता उसे राख में

विहंसते समीर को बहने देता

ताकि मेरी धूल

उड़ कर चली जाती वहां

फूल कुछ उग आते जहां

शायद कोई मुरझाया फूल

जिंदगी पाकर खिले जाते

यही है मेरी आखिरी और आखिरी इच्छा

आप सभी को अलविदा और खुश आमदीद !!!

Leave a Reply

Your email address will not be published.

6 − 4 =

Related Articles

Back to top button