मुहम्मद करीम छागला ने सुप्रीम कोर्ट का जज बनने से इंकार कर दिया था
मुहम्मद करीम छागला एक यशस्वी और ईमानदार न्यायाधीश तो थे ही वे किसी के दबाव में बिल्कुल नहीं आते थे। मूंदड़ा घोटाले को उजागर किया था फिरोज गांधी ने और उसकी जांच की छागला ने। उनके व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं की चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोक दीप:
लोक सभा में कुछ ऐसे सदस्य हुआ करते थे जिन्हें सुनने के लिए संसद भवन के बाहर कतारें लग जाया करती थीं और सभी दर्शक दीर्घाएं खचाखच भरी रहती थी। जिन माननीय सदस्यों के नाम जेहन में आ रहे हैं उनमें प्रमुख थे पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनके दामाद फिरोज गांधी। उन दिनों सदन में भी पूर्ण उपस्थिति रहा करती थी। पंडित जी के आम तौर पर प्रमुख भाषण राष्ट्रपति के धन्यवाद प्रस्ताव और विदेश मंत्रालय की मांगों के अवसर पर हुआ करते थे।
जब तक वे प्रधानमंत्री रहे विदेश मंत्रालय उन्हीं के पास रहा। उनकी सहायता के लिए एक राज्यमंत्री थी श्रीमती लक्ष्मी मेनन। पहले स्वतंत्र प्रभार वाले विदेशमंत्री सरदार स्वर्णसिंह बने जिन्हें दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने मंत्रिमंडल में नियुक्त किया था। पंडित नेहरू और फिरोज गांधी में छत्तीस का आँकड़ा था। फिरोज गांधी लोक सभा में ऐसे मुद्दे उठाया करते थे जिन से या तो मंत्री परेशान हो जाते या उलझन में फंस जाया करते थे।
उनके मुद्दे तथ्यों पर आधारित हुआ करते थे और उन्हें साबित करने के लिए वे अपने साथ सदैव संसदीय लाइब्रेरी से दस्तावेज लाया करते थे। ऐसा ही एक मुद्दा कोलकाता के उद्योगपति हरिदास मूंदड़ा की वित्तीय अनियमितता को लेकर था जो उसने सरकार द्वारा नियंत्रित जीवन बीमा निगम से किया था। अपने तर्कों,तथ्यों और आँकड़ों से फिरोज गांधी ने यह सिध्द कर दिया कि इस घोटाले में तत्कालीन वित्तमंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी भी शामिल हैं। नेहरू सरकार के खिलाफ हरिदास मूंदड़ा घोटाला उनकी छवि पर प्रहार था जिसे पंडित जी के अपने ही दामाद ने उजागर किया था।
नेहरू जी खासे तिलमिला गये लेकिन तथ्यों को झुठला भी तो नहीं सकते थे लिहाजा बंबई हाईकोर्ट के अवकाशप्राप्त मुख्य न्यायधीश मोहम्मद करीम छागला (एम.सी.छागला) के नेतृत्व में एक सदस्यीय जांच समिति गठित की गयी। एम.सी. छागला खाँटी के न्यायाधीश थे। उन्होंने इस जांच को सार्वजनिक जांच में बदल कर सुनवाई शुरू कर दी ।इस में सभी प्रकार के निवेशकों,सट्टेबाजों तथा जीवन बीमा से जुड़े लोगों ने गवाहियाँ दीं।
अपने आप को निर्दोष सिद्ध करने के लिए टीटीके ने जब मंत्रालय के सचिवों के माथे पर दोष मढ़ना चाहा तो जस्टिस छागला की दलील थी कि’संवैधानिक जिम्मेदारी से आप खुद को अलग नहीं कर सकते।’जस्टिस छागला ने मात्र 24 दिनों में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। टीटीके को अपने मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा जिससे पंडित नेहरू की साख गिरी और उनकी छवि भी धूमिल हुई। जस्टिस छागला से भी नेहरू जी ने परोक्ष तरीके से अपनी नाखुशी का इज़हार किया।
लेकिन साथ ही उनकी ईंमानदार और निष्पक्ष निर्णय की तारीफ भी की, उनकी अपने काम के प्रति ईमानदारी, काबिलियत और पारदर्शिता से प्रधानमंत्री नेहरू बहुत प्रभावित हुए और इसी वजह से पहले छागला को अमेरिका में राजदूत बना कर भेजा। वहां का अपना कार्यकाल पूरा कर 1961 में जब छागला स्वदेश लौटने वाले थे उस समय जॉन केनेडी वहां के राष्ट्रपति बने। दोनों के बीच तब अमेरिका-भारत के संबंधों पर जो बातचीत हुई थी उसे राजनयिक हलकों में महत्वपूर्ण माना गया था।
उनके उत्तराधिकारी बने बी.के. नेहरू केनेडी-छागला बातचीत का ही नतीजा था कि कुछ समय के बाद उन्हें ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त नियुक्त किया गया। उनसे पहले पंडित नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित वहां उच्चायुक्त थी जबकि छागला के बाद आये जीवराज मेहता। नेहरू जी एम.सी. छागला की विद्वता और स्पष्ट दृष्टिकोण से इस कद्र प्रभावित हुए कि स्वदेश लौटने पर उन्हें शिक्षामंत्री बनाया।
वे तीसरे मुस्लिम शिक्षामंत्री थे। उनसे पहले अबुल कलाम आजाद और हुमायूं कबीर भी शिक्षामंत्री रह चुके थे।बाद में उनके उत्तराधिकारी भी मुस्लिम ही हुए फखरुद्दीन अली अहमद। नेहरू जी के निधन के बाद शास्त्री जी ने छागला को उसी मंत्रालय में रखा। शुरू शुरू में इंदिरा गांधी की सरकार में भी वे शिक्षामंत्री रहे लेकिन कुछ समय बाद विदेशमंत्री बना दिये गये।
तीन प्रधानमंत्रियों के साथ छागला जी ने काम किया लेकिन मेरी छागला जी से भेंट तब हुई जब वे बतौर शिक्षामंत्री थे और सत्ता में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री थे। मेरे साथ थे फोटोग्राफर एस.जे.सिंह जो राज्यसभा में काम करते थे और देश के शीर्ष फोटोग्राफर ओ. पी. शर्मा के शिष्य थे,जो उन दिनों मोडर्न स्कूल में फ़ोटोग्राफ़ी की क्लासेस लिया करते थे। सन 1964 में किसी महीने उनसे मुलाकात हुई थी ।तब शिक्षामंत्री भी नार्थ ब्लॉक में बैठा करते थे।शास्त्री भवन अभी नहीं बना था।
शिक्षा की दुर्दशा का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा था कि आज सरकारी स्कूलों में अप्रशिक्षित टीचर हैं, बच्चों के पास नई किताबें नहीं हैं, खेल के ढंग के मैदान नहीं हैं, क्या हमारा मकसद झोपड़ियों को तरजीह दे वहां बच्चे भरना है या नयी और आधुनिक शिक्षित पीढ़ियां तैयार करनी है। हम चाहते हैं कि छह से चौदह साल के बच्चों को व्यावहारिक शिक्षा दी जाये जो आगे चलकर उनके जीवन को नयी दिशा दे सके। अपनी सरकार की शिक्षा नीति पर उनका व्यवहार सुन कर कुछ अजीब तो लगा लेकिन छागला तो छागला ही थे।
मैंने पूछा कि आप देश के चोटी के निर्विकार और निर्भीक न्यायविद रहे हैं तो निडर शिक्षामंत्री क्यों नहीं हो सकते। मेरी इस बात पर उन्होंने कहा कि न्यायपालिका और कार्यपालिका में यही तो फर्क होता है। मुख्य न्यायाधीश अपने आप में बादशाह होता है लेकिन शिक्षामंत्री तो अपने मंत्रालय का भी पूरी तरह से मुखिया नहीं होता। यहां तो दूसरों के रहमोकरम पर काम करना पड़ता है ।आपको मालूम है कि जब कभी देश मेंआर्थिक मजबूरी पैदा होती है तो सब से पहले नजला किस पर गिरता है? शिक्षा मंत्रालय पर और उसके बजट में कटौती कर दी जाती है।
जब ऐसी सोच होगी, मानसिकता होगी तो खाक नई और आधुनिक विचारों वाली जिज्ञासु पीढ़ियाँ बनेंगी या पैदा होंगी। मैं तो उनसे बार बार कहता हूं कि शिक्षा मंत्रालय के बजट में बढ़ोतरी कीजिए, घटोत्तरी नहीं ऐसी तल्ख और साफ बातें छागला जैसे निर्भीक मंत्री ही कर सकते थे।
यह पूछे जाने पर कि मूंदड़ा मामले के फैसले को लेकर क्या आपको दबाव नहीं झेलना पड़ा,इस पर छागला साहब मुस्करा दिये और बोले कानूनन हम पुख्ता जमीन पर थे ।हुक्मरान उस हक़ीक़त से वाकिफ थे। उस समय कानून की दुनिया में छागला बहुत बड़ा नाम था। जो जज दस साल तक बंबई हाई कोर्ट का चीफ जस्टिस रहा हो और जिसने सुप्रीम कोर्ट का जज बनने से इंकार कर दिया हो वह भला क्यों किसी की परवाह करने लगा।
दिसंबर 1949 में जब उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने के बारे में विचार चल रहा था तो उन्होंने तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सर हीरालाल कानिया से साफ शब्दों में कह दिया कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बनने में कोई रुचि नहीं। सर हीरालाल तब फ़ेडरल कोर्ट के चीफ जस्टिस थे जो छागला की नजरों में निम्न पद था।
उन दिनों बंबई हाई कोर्ट का बहुत रुतबा और दबदबा हुआ करता था। यही फेडरल कोर्ट बाद में सुप्रीम कोर्ट में तब्दील हो गया लेकिन छागला साहब अपने निर्णय पर अटल रहे और किसी दबाव के आगे नहीं झुके। जस्टिस कानिया की दो कोशिशें नाकामयाब रहीं तो उनके बाद जस्टिस मेहरचंद महाजन ने भी उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में लाना चाहा लेकिन उन्हें भी सफलता नहीं मिली।
उस समय बंबई उच्च न्यायालय का जज इतना शक्तिशाली होता था कि उसके समक्ष महाराष्ट्र, गुजरात, सिन्ध और यहां कि अदन के मुकदमे भी सुनवाई के लिए आते थे। जस्टिस कानिया के समय फ़ेडरल कोर्ट में सिर्फ तीन जज होते थे। उनके निर्णय के विरुद्ध इंग्लैंड में हाउस ऑफ लॉर्ड्स में अपील की जा सकती थी ।लेकिन 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के बाद फेडरल कोर्ट जब सुप्रीम कोर्ट में बदल गया तो वह देश का सर्वोच्च और अंतिम न्यायालय बन गया।
बाद में चीफ जस्टिस मेहरचंद महाजन ने भी जस्टिस छागला को अपने एक पत्र में लिखा था कि आप जैसे जजों को सुप्रीम कोर्ट की शोभा बढ़ानी चाहिए। मुझे विश्वास है कि मेरे प्रस्ताव पर आप गौर करेंगे। लेकिन जस्टिस छागला ने बड़ी विनम्रता से उनका प्रस्ताव मानने में अपनी असमर्थता ज़ाहिर की ।बाद में काफी दुखी अंदाज में कहीं जस्टिस महाजन ने यह टिप्पणी की थी कि मुझे जस्टिस छागला के साथ पीठ में बैठने का विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हुआ।
जस्टिस छागला के बारे में यह भी माना जाता था कि वह किसी प्रोटोकाल की परवाह नहीं किया करते थे। अपना काम बीच में छोड़ कर वे किसी समारोह में नहीं जाते थे चाहे किसी भी अतिविशिष्ट व्यक्ति का ही क्यों न हो। उनके बारे में कहा जाता है कि वे बुद्धिमत्ता और सुसंस्कृत दिमाग के व्यक्ति थे और दबाव में कभी नहीं आते थे और न्याय को सर्वोपरि मानते थे। इस तथ्य से सभी लोग परिचित भी थे।
यह पूछे जाने पर कि छागला का क्या मतलब है तो पहले वे हंसे और फिर बोले हम लोग खानदानी व्यापारी हैं और हमारे नाम के आगे मर्चंट लिखा जाता है। मुझे मर्चंट लिखना मंजूर नहीं था ।एक दिन मैंने अपने दादा से पूछा कि मेरे पिता को घर में किस नाम से बुलाया जाता था। उन्होंने उत्तर दिया ‘छागला’। इस पर मैंने उसका अर्थ पूछा तो उन्होंने बताया कि कच्छी यानी गुजराती में इसका अर्थ है ‘प्यारा बच्चा’।
मैंने दादा से अनुमति लेकर मर्चंट के स्थान पर छागला लिखना शुरू कर दिया और इस प्रकार मैं मोहम्मद करीम मर्चंट से ‘छागला’ हो गया। अब मेरे बेटे जहांगीर और इकबाल भी छागला हैं, मर्चंट अब कोई नहीं रहा और न ही अपने नाम के साथ लिखता भी है। उन दोनों ने भी वकालत को अपना प्रोफेशन बनाया,अब कोई कारोबारी नहीं है।
30 सितम्बर,1900 को बंबई में एक समृद्ध गुजराती इस्माईली खोजा परिवार में जन्मे एम.सी. छागला बहुत महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे। उन्होंने वकालत सर जमशेदजी कांगा और मोहम्मद अली जिन्ना के साथ शुरू की। पहले वे जिन्ना के राष्ट्रवादी विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उनकी मुस्लिम लीग पार्टी में शामिल हो गये। छागला ने डॉ. बी.आर.अंबेडकर के साथ भी काम किया।
सन् 1941में वे बंबई हाई कोर्ट के जज नियुक्त हुए तथा 1947 से 1958 तक वहां के मुख्य न्यायाधीश रहे। जिन्ना ने जब अलग पाकिस्तान की मांग की तो छागला उन से अलग हो गये। उनके चार बच्चे हुए:दो बेटे जहांगीर और इक़बाल तथा दो बेटियां हुस्न आरा और नूरू। इकबाल और उनकी बीवी रोशन दोनों वकील हैं तथा उनकी बेटी रोहिक़ा (एम.सी.छागला की पोती) की टाटा ऐण्ड सन्स के पूर्व चेयरमैन साइरस मिस्त्री से शादी हुई है।
इक़बाल का बेटा रियाज बंबई हाई कोर्ट में जज है। छागला की छोटी बेटी नूरू की शादी दक्षिण भारतीय हिन्दू परिवार के सुब्बारण स्वामिनाथन से हुई जो कैप्टन लक्ष्मी स्वामिनाथन और मृणालिनी साराभाई के भतीजे हैं। छागला खुद अज्ञेयवादी अर्थात संशयवादी थे जिन को भगवान होने या न होने में संशय था। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया गया, दफनाया नहीं गया था।
यह भी क्या संयोग है कि जिस फ़िरोज़ गांधी ने मूंदड़ा घोटाले का मुद्दा लोक सभा में उठाकर सरकार को छागला आयोग गठित करने को मजबूर किया था उनका दिल्ली में ही अंतिम संस्कार हुआ था और उनकी अस्थियों को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के पारसी कब्रिस्तान में सुरक्षित रखा गया। बंबई हाई कोर्ट के भीतर एम. सी. छागला की एक मूर्ति लगाई गयी है जिसके चबूतरे पर अंकित है: ‘एक महान न्यायाधीश,एक महान नागरिक और इन सब से ऊपर एक महान नागरिक।’