किसानों ने अश्वमेध का घोड़ा बांध दिया
बड़े दिनों बाद किसानों ने दिल्ली में डेरा डाल दिया है। अगर सरकार ने तीनों किसान विधेयकों को तीन तिकड़म से पास न कराया होता और मान्य संसदीय परम्परा के अनुसार किसान संगठनों और राजनीतिक दलों से सलाह मशविरा करके व्यवस्था में बदलाव किया होता और आंदोलनकारियों पर बलप्रयोग न किया होता तो संभवतः किसानों का ऑंदोलन इतना जुझारू न होता, पेश है वरिष्ठ पत्रकार अम्बरीश कुमार का विश्लेषण:
अंबरीश कुमार
ज्यादा दिन की बात तो है नहीं सितंबर के आखिरी पखवाड़े में ही तो राज्यसभा में हंगामें के बीच उप सभापति हरिवंश ने कृषि बिल को भारी विरोध और हंगामे के बीच पास करा दिया था। बीस सितंबर ही तो था जब यह खबर आई थी। सत्तारूढ़ दल भी बमबम था और हरिवंश और बड़ी कुर्सी की कतार में करीब आ गए। हरिवंश बड़े पत्रकार रहे हैं। अपने जैसे छोटे पत्रकार से भी अच्छा ही रिश्ता रहा है। समाजवादी भी रहे हैं इस वजह से हम सब ने बहुत आलोचना भी की उनकी, समाजवादी की आलोचना समाजवादी खुल कर करता है। पर कभी संघ के किसी प्रचारक को देखा है जो संघ के किसी शीर्ष नेता की आलोचना किए हो। न याद आए तो कभी गोविंदाचार्य को भी याद कर लें, मुखौटा से आगे की सीमा उन्होंने भी कभी नहीं लांघी, खैर अब लगता है हरिवंश ने देश पर बड़ा उपकार किया है। उन्होंने तो देश को जगा दिया, अश्वमेघ का वह घोड़ा जो दौड़ता जा रहा था उसे किसानों ने दिल्ली की सीमा पर ही बांध दिया है। वह सरकार जो सिर्फ अपने मन की बात करती रही है वह कभी दूसरे के मन की बात सुनती कहां थी।
दिल्ली के दरवाजे पर बैठे इन किसानों ने इस सरकार को मजबूर कर दिया है कि वह किसानों के मन की भी बात सुने, और सरकार से बात करने गए किसान अपनी रोटी दाल साथ लेकर गए थे बात करने, इस सरकार की हेकड़ी पंजाब के किसानो ने निकाल दी है। तो इसका इसका बड़ा श्रेय समाजवादी धारा से संघ के खेमे में पहुंचे हरिवंश को भी तो देना चाहिए। यह सरकार जो हेकड़ी और हथकंडों की सरकार मानी जाती वह किससे बात करती थी। कश्मीर सामने है। निपटा दिया न सबको, सीएए आंदोलन को देखा था या नहीं लखनऊ के चौराहों पर पोस्टर लगवा दिए थे। क्या किसी सरकार में यह हिम्मत है पंजाब के किसानों का पोस्टर पंजाब या हरियाणा में लगवा सके।
चूक यहीं हो गई पंजाब को ये समझ नहीं पाए वह हिंदू मुसलमान के खेल में न फंसा है न फंसेगा केंद्र का करिश्माई नेतृत्व पंजाब पहुंचते पहुंचते हांफने लगता है। उसका इतिहास भूगोल बहुत अलग है। पंजाब का किसान आंदोलन भी बहुत अलग है। इस आंदोलन में नौजवान हैं ,महिलाएं है तो बुजुर्ग भी है, ये किसान हैं। वही किसान जिसके सारे बेटे केंद्र की सरकार में मंत्री है। ये सब अपने को किसान का बेटा बताते हैं और पिता सामान किसान को गुमराह घोषित कर देते हैं। ऐसे बेटे हैं यह, दिल्ली की दहलीज पर बैठे किसानो से कोई आईटी सेल नहीं लड़ सकती यह तो समझ लेना चाहिए। बहरहाल इस आंदोलन के साथ वर्ष 1988 के आंदोलन पर भी नजर डाल लें, वर्ष 1988 का अक्टूबर महीना था। तारीख थी 25 अक्टूबर जब मैं बोट क्लब के एक छोर पर किसान नेताओं से बात कर रहा था। जनसत्ता अख़बार के लिए किसान आंदोलन की कवरेज की जिम्मेदारी दी गई थी। तब भी किसान ट्रैक्टर लेकर आये थे और सीधे बोट क्लब तक पहुंच गए थे। दिल्ली पुलिस ने शुरू में रोकने की कोशिश जरुर की पर बाद में किसानो की भारी संख्या देख कर ऊपर तक बात की और फिर इजाजत दे दी, राजीव गांधी की सरकार थी।
किसान आराम से बोट क्लब पहुंच गया शाम होते होते चूल्हे जल चुके थे। कुछ मवेशी भी वे ले आए थे दूध के लिए, जगह जगह चौपाल लगी हुई थी। चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के साथ कुछ अन्य किसान संगठनों के नेता भी बैठे थे। समूचा बोट क्लब एक गांव में बदल चुका था। खास बात यह थी कि सरकार और प्रशासन ने किसानो के लिए पीने के पानी के लिए टैंकर की व्यवस्था की थी। तब बोतलबंद पानी का चलन भी नहीं था और यह संवाददाता भी उन्ही एक टैंकर से दो बार पानी पी चुका था। आज तो किसानी पर पानी बरसाया जा रहा है और सड़क काट दी जा रही है। हम दिन भर बोट क्लब में किसानो के बीच ही रहते बहुत सहजता से किसान नेताओं से मिलते और बात करते, पहले दिन देर शाम बहादुर शाह जफ़र स्थित एक्सप्रेस बिल्डिंग पहुंचा और दो तीन खबरे लिख दी, राब्तेगंज ही तो लिखा था गांव का नाम जिस पर बोट क्लब बना किसान इसी बोट क्लब के ताल में नहाते थे। खैर पहले दिन जब बोट क्लब पहुंचा तो नजारा बड़ा ही अलग था। प
हले टिकैत का कार्यक्रम एक दिन का ही घोषित था। पर टिकैत से मैंने जब पहले बात की तो साफ़ लगा वे अपनी मांग मनवा कर ही जाएंगे, हालांकि मीडिया को लगा था वे एक दिन बाद लौट जाएंगे, जनसत्ता की हेडिंग थी ,धरना में बदल सकती है टिकैत की रैली, रैली में पांच लाख से ज्यादा किसान आए थे। अपनी संख्या करीब साढ़े पांच लाख थी। न्यूज रूम में कोई मानने को तैयार नहीं, संघ से जुड़े एक वरिष्ठ संवाददाता का आकलन था तीन लाख लोग से ज्यादा नहीं थे। चीफ रिपोर्टर कुमार आनंद ने बोट क्लब की लंबाई चौड़ाई की जानकारी ली और कई अन्य तथ्य भी जांचा परखा फिर तय हुआ संख्या पांच पाख ही जाएगी। वही गई भी, और वही संख्या आज तक सही मानी जाती है। जनसत्ता ने टिकैत के इस आंदोलन के चलते दोपहर का जनसत्ता निकाल दिया सिर्फ आंदोलन की खबरों को लेकर मुझे याद है जनसत्ता में मेरी रपट को देख कर फिल्म अभिनेता राजबब्बर जनसत्ता के दफ्तर आए मिले,पत्रकार संतोष भारतीय के साथ वे भी अपना समर्थन देने आए थे ताकि उसपर खबर चली जाए शरद जोशी जैसे किसान नेता बहुत सहजता से बातचीत के लिए तैयार हो जाते थे तो रैयत संघ के किसान नेता भी यह अख़बार और किसान आंदोलन पर संपादक प्रभाष जोशी के नजरिए का असर था।
खैर एक दौर वह था और एक दौर आज का है। पिछले दस दिनों में दिल्ली में आंदोलन कर रहे करीब दर्जन भर किसान नेताओं से मैंने बात की है जिसमें पंजाब में आंदोलन का नेतृत्व कर रहे दर्शनपाल हों या राष्ट्रीय नेता वीएम सिंह, राकेश टिकैत, राजू शेट्टी, हन्नान मुल्ला या फिर डा सुनीलम और अतुल कुमार अंजान ये सब अपने कार्यक्रम में लगातार आ भी रहे हैं। कुछ फर्क है उस और इस आन्दोलन में तब राजीव गांधी थे जो जबरन कोई टकराव हो ऐसे स्वभाव के भी नहीं थे। न ही दमन उत्पीडन वाली रणनीति पर चलने वाले थे। तब विपक्ष में चंद्रशेखर ,देवीलाल जैसे ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले नेता थे जो आंदोलन का समर्थन करने टिकैत से धरना स्थल पर मिलने भी गए थे। पर आज न तो चंद्रशेखर और देवीलाल के कद नेता बचे हैं न किसानों के प्रति वह सम्मान बचा है। वर्ना केंद्र से कुछ तो महत्वपूर्ण मंत्री बात करने सामने आते बहरहाल केंद्र ने आज जो रुख अपनाया है उससे उम्मीद जग रही है। सरकार को यह समझना चाहिए किसान जब भी दिल्ली आया है वह खाली हाथ नहीं लौटा है। इस बार भी नहीं लौटेगा, यह सोचकर ही खेत गांव से वह दिल्ली आया है।