लखनऊ यूनिवर्सिटी का वो दिन और आज का!
मेरे विश्वविद्यालय (लखनऊ) का शताब्दी वर्ष मन रहा है। रोज जलसे हो रहे हैं। कल (24 नवम्बर 2020) खास पर्व था। सदी के सौ ”Illustrious”(खास) छात्रों का सम्मान हेतु चयन किया गया। कई हजारों में से। इन चुनिन्दा सौ में एक नाम मेरा भी है। इस संयोग—जनित हर्ष को विश्वास भला क्या जाने? यूं भी इतेफाक और एतबार के दरम्यान सुई की नोक बराबर का ही फासला रहता है।
करीब छह दशक हुए परिसर से निकले। आखिरी परीक्षा थी मास्टर्स (राजनीति शास्त्र) की। विभागाध्यक्ष गांधीवादी डा. गोपीनाथ धवन थे। मैं उनका प्रिय छात्र रहा। उन्हीं ने परीक्षा—परिणाम के पूर्व ही आगरा विश्वविद्यालय के पोस्टग्रेजुएट कालेज में मेरी नियुक्ति करा दी थी। उस भर्ती के दिन से कल तक का पूरा दौर फिल्मरील की भांति स्मृति पटल पर घूम गया, सजीव था। वे हमारी तरल तरुणायी के दिवस थे।
याद आया 9 जुलाई 1955 वाला पहला दिन। रजिस्ट्रार आफिस में प्रवेश फार्म लेने हम जब पहुंचे थे तो पाया जामुन के पेड़ झुंड में थे। साइकिल तने पर टिकाई। ढेला फेंकना शुरू किया। तभी एक सीनियर छात्र, ऊंची पढ़ाई कर चुके थे, रुके, मुस्कराये, फिर टोका: ”पहुंच गये यूनिवर्सिटी में?” फब्ती चुभ गई। मैं बोला, ”जनाब, अभी ही इन्टर पास किया है।”
यूपी में उस युग में सहशिक्षा का प्रचलन कम था। अत: प्रथम दृष्टया यूनिवर्सिटी नखलिस्तान लगी। क्यों नहीं? हमारा कैशोर्य उरोज पर जो था। पहले वर्ष अंग्रेजी वाला क्लास बड़ा नीक लगा। पढ़ाने वाले भी। मिस देवकी पाण्डे जो स्वयं कविता थी। फिर तो खराब दिन आने लगे। ट्युटोरियल क्लास, एटेंडेंस की चिंता, लाइब्रेरी की अनिवार्यता, एनसीसी का प्रशिक्षण इत्यादि।
एक दिन प्राक्टर साहब से आमना सामना हुआ। वे बोले ”साइकल को स्टैंड पर खड़ा करें? सड़क के किनारे नहीं। ”लगा शहर कोतवाल का तबादला शिक्षा के प्रांगण में हो गया। फिर आया यूनियन का निर्वाचन। तब संगठन ही प्रमुख थे। कम्युनिस्ट पार्टी (तब तक टुकड़े नहीं हुये थे) का स्टूडेन्ट फेडरेशन, भारतीय जनसंघ की विद्यार्थी परिषद, सत्तासीन राष्ट्रीय कांग्रेस का यूथ कांग्रेस और सोशलिस्ट पार्टी की समाजवादी युवक सभा। आचार्य नरेन्द्र देव, जो समाजवादी चिंतक थे, कुलपति रह चुके थे और लोहिया का भी खिंचाव था, तो युवक संख्या में काफी आये। हम जैसे सचेत छात्र चुनाव लड़ते और लड़ाते थे। इसलिए हममे एक व्यवहारिक अन्तर था। छात्राओं को बस ”बहनों” कह कर संबोधित करते थे।
उस वर्ष यूनियन का अध्यक्ष भी हमारा था। भिण्ड जिले के दिलीप सिंह चतुर्वेदी। कद—काठी वाला वर्ण गेहुंआ था। चूंकि लॉ के अध्येता थे, तो उनकी पढ़ाई में अधिक नैपुण्य का अंदाजा नहीं हो पाया। विश्वविद्यालय की शताब्दी वर्ष की भांति हमने विश्वविद्यालय छात्र यूनियन की रजत जयंती 1957 में मनाई थी। बड़ी भव्य थी। जवाहरलाल नेहरू, वीके कृष्ण मेनन, वीवी गिरी आदि आये थे। रघुपति सहाय फिराक भी मुशायरा की सदारत करने आये थे। बोले राष्ट्रभाषा उर्दू हो अथवा अंग्रेजी।
एक दिन प्रधानमंत्री आये थे। देश—विदेश, आसमान, जमीन, सभी विषयों पर बोल रहे थे। भाषण लम्बा हो रहा था, बोर भी। हम लोग खिन्न थे। क्या करते? एक विप्र साथी ने मानस के उस प्रसंग की याद दिलाई जब वानरसेना ने मेघनाथ के यज्ञ को भंग कर दिया था। इशारा होते ही पीछे से युवजनों ने आगे धक्का दिया। रस्सी के उस पार विराजीं महिला छात्राओं में भगदड़ मची। कई तो मंच पर चढ़ गई। सभा समाप्त हो गई।
उसी वर्ष गोवा मुक्ति आन्दोलन पुणे से प्रारम्भ हुआ। सांवतवाडी सीमा तक सत्याग्रही जाते थे। पुर्तगाली सैनिक उन्हें मारते, गोली चलाते और पंजिम के जेल में डाल देते थे। हमारे विश्वविद्यालय का नाम रौशन किया दाउजी गुप्ता ने। वे स्वाधीनता सेनानी रहे। लखनऊ के महापौर भी। मेरे समकालीन हैं।
[7:04 PM, 11/25/2020] Gu Vikram Rao I F W J: तभी पाकिस्तान के निरंकुश राष्ट्रपति जनरल इसकंदर मिर्जा, प्रधानमंत्री हसन शहीद सुहरावदी (जिन्ना के ”डाइरेक्ट एक्शन” वाले आदेश पर 14 अगस्त 1946 में कोलकाता में हिन्दुओं का संहार करने वाला) और विदेश मंत्री सर फिरोज खान नून ने कश्मीर फिर हथियाने के लिए धावा बोला। हमने हड़ताल की और हजरतगंज होते हुए विधानसभा तक जुलूस निकाला। नारा था: ”नून, सिकंदर, सुहरावदी, नहीं चलेगी गुंडागर्दी। ”एक भावभरा सूत्र था, ”जहां हमारा लहू गिरा है, वह कश्मीर हमारा है। ” उस समय बौद्धिक गतिविधि भी खूब होती थी। परिसर में स्टडी सर्किल की बैठकों में गंभीर विषयों पर चर्चा होती थी। यूनियन के सीनियर लाइब्रेरियन तथा इतिहास विभाग के अध्यक्ष डा.नन्दलाल चटर्जी पथप्रदर्शक थे।
एक बार डा. चटर्जी को पत्र देने मैं जब गया तो वहीं यूरोपीय इतिहास की क्लास के बाहर कुछ शिक्षित सीनियर छात्रों को कमेन्ट मारते सुना। वे टिप्पणी कर रहे थे: ”फिफ्टी शिप्स शी कैन मूव।” (पचास जहाज चलवा सकती है)। क्रमश: हर छात्रा के निकलने पर जहाजों की संख्या बढ़ती—घटती रहती थी। जानकारी के मुताबिक ट्रोय साम्राज्य की सुन्दरी हेलन के रूप का पैमाना जहाज से बनाया गया था। उस युग की सुंदरतम राजकुमारी हेलन को जीतने हेतु दावेदार राजकुमार एक हजार जहाज लेकर हमले पर आये थे।
लखनऊ विश्वविद्यालय के बदलते स्वरूप को हम चार सगे भाईयों के दौर के विश्लेषण से समुचित ज्ञान हो जाता है। हम चारों यही के पढ़े हैं। यदि हमें कहीं भी कोई भी पुराना छात्र मिलता था तो लखनऊ विश्वविद्यालय का नाम आते ही हमारे काल अवधि का निर्धारण सरलता से हो जाता था। सबसे बड़े भाई (प्रताप, विदेश सेवा में जाकर राजदूत बने) अपने समकालीन से भेंट पर पूछते, ”अच्छा तो आप उस वर्ष के छात्र थे जब नेताजी सुभाषचंद बोस आये थे।” या फिर मंकी ब्रिज पर ब्रिटिश पुलिस का लाठीचार्ज तब हुआ था।
मंझले भाई के.एन. राव (आई.ए.एण्ड ए.एस), भारतीय विद्या भवन (नई दिल्ली) ज्योतिष विभाग के संस्थापक और ”जर्नल आफ एस्ट्रोलोजी” के प्रधान सम्पादक, जब अपने समकालीनों से मिलते तो वर्ष का निर्धारण करते थे यह पूछकर कि अच्छा तब ”इंग्लिश विभाग का अध्यक्ष फलाना थे। कुलपति का नाम यह था।” फिर आया मेरा दौर। कहीं भी हम मिलते, तो याद करते, ”अच्छा तो यूनियन का तब प्रेसिडेन्ट वह था? हां तो उस माह हड़ताल करायी गयी थी।” इत्यादि। और जब मुझसे छोटे भाई सुभाष (एंथ्रोपॉलोजी के छात्र) अपने सहछात्रों को पहचानने का प्रयत्न करते तो पूछते, ” अच्छा तो आप उस वर्ष में थे जब फलाना…..पढ़तीं थीं?”
एक हादसे और एक घटना का उल्लेख और। जब उपद्रवी छात्रों ने टैगोर लाइब्रेरी को जला दिया था तो लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र, विश्व में जहां कहीं भी थे, दुखी थे। खुलकर इस जघन्य अपराध की सभी ने तीव्र भर्त्सना की थी। यह गन्दी राजनीति नहीं, यह अनपढ़ लफंगो की गुण्डई थी।
[7:04 PM, 11/25/2020] Gu Vikram Rao I F W J: एक और किस्सा : एक बार एक पुराने छात्र लखनऊ आये। चारबाग रेलवे स्टेशन पर रिक्शेवाले से पूछा: ”लखनऊ यूनिवर्सिटी चलोगे?” वह बोला : ”बाबू साहब, रास्ता बताते चलियेगा।” खैर वे पुराने छात्र हुसैनगंज, हजरतगंज से मंकी ब्रिज तक रिक्शेवाले का पथप्रदर्शन करते आये। मंकी ब्रिज पर जब उन्होंने ढलान के बाद बांय अंदर प्रवेश करने का आदेश दिया तो रिक्शावाला झल्लाकर बोला, ” बाबू साहब, स्टेशन पर ही बता देते कि अनिवरसिटी चलना है, तो मैं लालबाग होते हुए नजदीक के रास्ते ले आता।” इसलिए हमने अपने समय ”अंग्रेजी हटाओं” आंदोलन चलाया था।”
हम छात्र संगठनों में प्रतिस्पर्धा तीव्र होती थी। पैमाना था कि किसकी सभा में कितनी अधिक भीड़ आयी। इसी से आंकलन होता था। कम्युनिस्ट अच्छी भीड़ जमा कर लेते थे। ईएमएस नंब्रूदिपाद आगे आये थे। वे हकलाते थे। एक ने उसे पूछा भी था कि, ” आप क्या हमेशा हकलाते हैं?” जवाब आया :” नहीं, केवल जब मैं बोलता हूं तभी!”
एक बार यूथ कांग्रेसी अपनी रूपवती सांसद तारकेश्वरी सिन्हा को लाये। छात्रायें उमड़ पड़ी थी। समाजवादी युवकों ने यूनियन भवन की सीढ़ियों पर कब्जा कर लिया था। पंक्तिबद्ध खड़े हो गये व सबसे कहते चलते,” देखते जाओ, चलते जाओ।” एक सीढ़ी से चढ़ना, दूसरी छोर से उतरना। इस चलाचली से तारकेश्वरी क्रमवार भाषण नहीं दे पायीं। भीड़ छटती गई।
लखनऊ विश्वविद्यालय के इन सौ वर्षों में इतना तो परिवर्तन आया है कि कला, विशेषकर नाट्य, और साहित्य (हिन्दी और राष्ट्रमंडलीय अंग्रेजी), का अद्भुत विकास हुआ है। कई विदेशी भाषाओं का भी। हनुमान सेतु के नीचे गोमती का पानी प्रचुर मात्रा में बहता गया है। विश्वविद्यालय का रूप व आकार भी बदलता गया। मगर जो भी हम लोग जीवन में कर पाये, इसी विश्वविद्यालय के प्रांगण तथा कक्षा में पायी शिक्षा और ज्ञान की बदौलत। अगली सदी के प्रति हम आशान्वित है, भले हम रहे या न रहें।