निज-पर के भेद को मिटाना ईश्वर के ज्ञान का फल
आज का वेद चिंतन विचार
संत विनोबा वेद प्रवचन करते हुए कहते हैं कि ईशावास्य – बोध* मंत्र 4 और 5 का एक स्वतंत्र परिच्छेद होता है। उसका सार है कि ईश्वर की शक्ति अलौकिक है। वह असीम है उसके बारे में हम तर्क नहीं कर सकते। हमारे तर्क से वह सीमित हो जायेगा।
गीता में बताया है कि ईश्वर जब अवतार लेता है, तब वह महान कर्म करता हुआ दिखाई देता है,पर उस कर्म का लेप उसे नहीं लगता। उस समय भी वह अकरता रहता है। इससे उल्टे, जब वह अपने मूल रूप में रहता है,अर्थात अवतार ग्रहण नहीं करता है, तो वह कुछ भी नहीं करता ऐसा दिखायी देता है, पर उस वक्त भी वह सारी दुनिया का शासन करता रहता है। अर्थात् अकर्ता होकर भी वह सब कर्म करता है। उसका वही व्यापक स्वरूप यहां रख दिया है।
फिर 3 मंत्रों में ईश्वर – भक्त का वर्णन है । वह अपने में सबको और सब में अपने को देखता है। यही भक्ति है। भक्ति से निज – पर का भेद मिट जाता है। मनुष्य ने अपने बीच हजारों दीवारें खडी की हैं, राष्ट्र, समाज ,और कुटुंब में लड़ाई – झगड़े इसी से पैदा हुए हैं। इस निज-पर के भेद को मिटाना ईश्वर के ज्ञान का फल है।
जो ईश्वर की भक्ति करनेवाला है, वह इसी रास्ते पर अग्रसर होता है। दिन – दिन उसकी आत्मा भावना बढ़ती जाती है। अर्थात वह सोचता है कि जैसे मेरे शरीर की वासनाएं हैं ,दूसरों की भी हैं। इसलिए उनको खिलाकर खाऊँ और पिलाकर पिऊँ। मुझ में और मेरे कुटुंब में कोई भेद नहीं ,इसी तरह देहात – देहात और राष्ट्र- राष्ट्र में कोई फर्क नहीं है। इतना ही नहीं, मनुष्य और पशु में भी वह भेद नहीं करता। इस प्रकार वह अपना- पराया भेद मिटाया जाता है। जो इस तरह रहता है, उसका जीवन आनंदमय बनता है। इस प्रकार ईश्वर -निष्ठ पुरुष का या आत्मज्ञानी का वर्णन करके आठवें मंत्र के अंत में पूर्वार्ध समाप्त किया है।